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शुक्रवार, 21 जून 2013

मौत का जल






























आस्था का बढ़ा विनाशी भ्रमण
हथेली पर लिए चले प्राण
स्वार्थों का बढ़ा अतिक्रमण
खुद खाई खोदने का लिया प्रण

मानव की बढ़ी बेहद मनमानी
तिजारती इमारतें उसने तानी
देवभूमि की महत्ता न जानी
प्रकृति ने सबक सिखाने ठानी

अंबर को भी गुजरा यह नागवार
आँखें तरेरता आक्रोशित अंबर
चेतावनी की बूंदों का हुआ न असर
फटे आफत के बादल गरजदार
आया मौत का जल जोरदार

गिरी आस्था की निष्ठुर चट्टानें
धंसी मोक्ष की जिन्दगी रूलाने
मलबे में दबी काया लगी झांकने
मुसीबतों का पहाड़ लगा सताने

केदारनाथ बचे धाम हुआ अनाथ
शिवमूर्ति को गंगा ले गई साथ
बौराई मंदाकिनी का बना रौद्र पथ
काल की धारा में बहे सब खाली हाथ

अपनों की आँखों से बहती अश्रु गंगा
रिश्तों के दर्द का उफान कम न होगा
संबंधों की देह का इन्तजार रहेगा
भोले शंकर पर भरोसा कम न होगा

सिकेंगी अब भावनाओं की रोटी
सुनाई जाएगी परस्पर खरी-खोटी
नोंच खाएंगे बदनीयत बोटी-बोटी
राहत आपस में ही जाएगी बांटी

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(फोटो उत्तराखंड-फेसबुक से साभार)






   

गुरुवार, 20 जून 2013

चुभता एक नश्तर

सोमनाथ के समुद्र तट पर
आस्था की लहरों से सराबोर
आस्तिक थपेड़ों से तरबतर
फिर भी चुभता एक नश्तर
इंसान बेहतर या जानवर
किसका व्यवहार बेहतर
नन्दीश शंकर ही देंगे प्रत्युत्तर

(फोटो : श्रीमती प्रीति ठक्कर) 


रविवार, 16 जून 2013

कराते चैम्पियन दादी बलसारा से भेंटवार्ता धर्मयुग में

इनके पेट के नाजुक हिस्से के ऊपर से कार गुजर सकती है! यह इनका विश्व- कीर्तिमान हैं। ये जब मेज पर खड़ी बोतल की गर्दन पर हाथ से वार करते हैं, तो बोतल का ऊपरी हिस्सा चूर-चूर हो जाता है, पर बोतल वहीं खड़ी-की-खड़ी रहती है! यह काम दुनिया में सिर्फ चार व्यक्ति ही कर सकते हैं। बर्फ की 65 पौंड वजन वाली आठ सिल्लियों को ये अपने माथे के एक ही झटके से तोड़ सकते हैं ! यह दक्षिण- पूर्व एशिया का कीर्तिमान है। 65 पौंड वजन वाली बर्फ की छह सिल्लियों को ये कोहनी के एक ही वार से तोड़ सकते हैं। आग में तपते टाइल्स के  गट्ठर को माथे या कोहनी के एक प्रहार से टुकड़े- टुकड़े कर सकते हैं। हाथ में पैनी धार वाली तलवार पकड़ कर और उसके मध्य भाग में सेब टिका कर अगर कोई खड़ा हो, तो ये दूर से दौड़ कर आयेंगे, दाहिने पांव के अंगूठे से एक सधा हुआ वार करेंगे और सेब के दो टुकड़े हो जायेंगे!
ये हैं "क्यो-कुशिन कराते" के बेताज बादशाह 38 वर्षीय कोलकाता निवासी शिहान दादी बलसारा। फोर्थ डेन ब्लैक बेल्टधारी बलसारा इस जापानी कराते संस्था "क्यो- कुशिन काई कान" की भारतीय शाखा के अध्यक्ष, निदेशक और प्रमुख नियंत्रक हैं। ये दक्षिण- पूर्व एशिया कराते फेडरेशन के उपाध्यक्ष भी हैं। ये कराते की अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भारतीय दल के प्रतिनिधि एवं निर्णायक मंडल के सदस्य भी रह चुके हैं। कोलकाता स्थित इनके प्रशिक्षण केंद्र में 3 वर्ष से लेकर 82 वर्ष तक की उम्र के प्रशिक्षार्थी हैं। इनमें दक्षिण अफ्रीका, अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा श्रीलंका के लोग भीं हैं। युवतियां भी हैं। नेत्रहीन और विकलांग भी। 
कराते के फायदे
दादी बलसारा को वर्ल्ड क्यो कुशिन कराते फेडरेशन, जापान की तरफ से "शिहान" तथा "रेन्सी" जैसी उच्चतम उपाधियां मिली हुई हैं। उन्हें "शिबुचो" की पदवी भी मिली है, जो किसी राष्ट्र के सिर्फ एक ही व्यक्ति को दी जाती है। "शिबुचो" टाइटिलधारी किसी योग्य प्रशिक्षार्थी को थर्ड डिग्री ब्लैक बेल्ट तक की पदवी दे सकते हैं। "क्यो कुशिन कराते" की विधा के प्रसार के लिए जिन दो व्यक्तियों को "एंब्लेम ऑफ मेरिट ट्राफी" दी गयी है, दादी बलसारा उनमें से एक हैं और अब वे कराते के अपने इन्हीं रोमांचक कारनामों पर आधारित  हिंदी एवं अंग्रेजी की कुछ फिल्मों में बतौर नायक अभिनय भी कर चुके हैं। उनसे बातचीत कुछ यों शुरू हुई:-
0 कराते के क्षेत्र में आने की प्रेरणा आपको कहां से मिली?
-14 वर्ष की उम्र से ही मैं इसमें रुचि लेने लगा था। ग्रैंड मास्टर कांचो मॉस ओयामा की कराते संबंधी किताबों के अध्ययन से मेरी दिलचस्पी और बढ़ी। जब मैं नौसेना में अधिकारी था, तब मुझे विश्व के अनेक कराते प्रशिक्षण केंद्रों में जाने का अवसर मिला। पहले मैंने "कुंग-फू" अर्थात नॉन कांटैक्ट कराते में दक्षता हासिल की। पर बाद में मुझे "क्यो कुशिन" या फुल कांटैक्ट कराते उससे श्रेष्ठ प्रतीत हुआ। मैंने नौकरी छोड़ दी और सारा जीवन इसी कराते को समर्पित कर दिया। मुझे जापान आमंत्रित किया गया और वहीं मैंने ये सारी उपाधियां हासिल कीं।
0 कराते से फायदा क्या है?
- अहिंसा और निर्भीकता पर आधारित यह सर्वोत्तम द्वंद्व- कौशल है। इससे अपनी तथा दूसरों की रक्षा की जा सकती है। शारीरिक एवं मानसिक विकास होता है और फुर्ती आती है।
हम निहत्थे लड़ते हैं
0 "क्यो कुशिन काई कान" तथा विश्व में प्रचलित कराते के अन्य संगठनों में क्या फर्क हैं?
- इंटरनेशनल कराते ऑर्गनाइजेशन "क्यो कुशिन काई कान" की तकनीकी पद्धति, नियमावली एवं विचारधारा "विश्व यूनियन ऑफ कराते फेडरेशन" तथा जे.के. ओ. से सर्वथा भिन्न है। हालांकि ये सभी जापानी पद्धति पर आधारित हैं, पर हमारा क्यों कुशिन फुल कांटैक्ट स्ट्रांग कराते है, जबकि बाकी दोनों नॉन कांटैक्ट स्पोर्ट्स कराते हैं। उनकी विधा में शरीर के कई हिस्सों पर प्रहार वर्जित होता है। वे हथियारों का इस्तेमाल भी करते हैं। वे सिर्फ सार्वजनिक प्रदर्शन के माध्यम से मनोरंजन ही कर सकते हैं। प्रतियोगिता एवं सुरक्षा की दृष्टि से उनकी कोई सार्थकता नहीं होती, जबकि हम खाली हाथ से प्रहार करते हैं, अपनी रक्षा भी करते हैं और अंतर्राष्ट्रीय मुकाबलों में अव्वल भी आते हैं।
0 बाकी दोनों संगठनों के कार्यकलापों के प्रति आपका क्या दृष्टिकोण है?
- वे लोग कराते के आदर्श से विमुख हो कर प्रशिक्षाथियों को गुमराह कर रहे हैं। उन संगठनों ने पिछले आठ साल के दौरान अपनी खामियां दूर नहीं कीं। इसी वजह से हम विश्व- कराते के भविष्य के प्रति चिंतित भी रहते हैं। ये दूसरे संगठन कराते को अपने धन के माध्यम से चला रहे हैं, न कि वास्तविक पद्धति से। तभी तो इन संगठनों के प्रशिक्षार्थी कराते प्रतियोगिता में ज्यादा सफल नहीं हो पाते।
0 कराते प्रशिक्षार्थी को विभिन्न ग्रेड के बेल्ट प्रदान करने का क्या तरीका है?
- कराते के दस निम्न तथा पांच उच्च एवं डेन वर्ग होते हैं। जब कोई कराते सीखना शुरू करता है, तब वह दसवें "क्यू क्लास" का प्रशिक्षार्थी कहलाता है। उसे व्हाइट बेल्ट दिया जाता है। अभ्यास- परीक्षण के बाद उसे ब्ल्यू बेल्ट का ग्रेड दिया जाता है। फिर येलो, ग्रीन, ब्राउन और अंत में ब्लैक बेल्ट दिया जाता है। अब उसे बुनियादी प्रशिक्षण मिल चुका होता है। यहां तक पहुंचने में उसे तीन से चार वर्ष लगते हैं। अब वह प्रथम श्रेणी ब्लैक बेल्ट से शुरू करके पांचवे डैन तक जा सकता है। यह ब्लैक बेल्ट की अंतिम डिग्री होती है। तीसरी श्रेणी के ब्लैक बेल्टधारी होने में 15-16 वर्ष तक का समय लग जाता है।
भारत में "क्यो कुशिन"
0 क्यो कुशिन कराते पद्धति की शुरुआत कैसे हुई और आज इसकी स्थिति क्या है?
- यों तो सामान्य कराते का उद्भव वर्ष 1610 के आसपास माना जाता है। किंतु वर्ष 1900 के बाद जापान के फूनाकोशी गीथीन ने इसमें अनेक परिवर्तन किये। वे ही आधुनिक कराते के जनक कहलाते हैं। इसके अलावा आज संसार में "शोतोकान", "शीतोरू" "गूजूकाई", "वादोक्यू" तथा "गुजूरू" पद्धतियां प्रचलन में हैं। "क्यो कुशिन" की शुरुआत तो की थी जापान के मासुवात्सु ओयामा ने, पर इसे परिपक्व बनाया संगठन संस्थापक एवं अंतर्राष्ट्रीय डायरेक्टर जनरल कांचो मॉस ओयामा ने। आज  96 देशों में लोग इस पद्धति से प्रशिक्षण ले रहे हैं। भारत में इसकी 81 शाखाएं हैं। जहां 33 हजार युवक- युवतियों कराते सीख रहे हैं। राजस्थान और जम्मू कश्मीर के अलावा देश के अन्य सभी राज्यों में इसके प्रशिक्षण केंद्र हैं।
0 आपकी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे होती है? भारत सरकार की तरफ से कितना सहयोग मिलता है आपको?
- विश्व कमेटी हमारी काफी मदद करती है। हम यहां उन्हीं की ओर से कार्य कर रहे हैं। हमारी विदेश यात्रा का व्यय भी कमेटी देती है। भारत सरकार अन्य खेलों के लिए तो अपने खिलाडिय़ों का खर्च वहन करती है, पर हमें ऐसी मदद नहीं दी जाती। हालांकि हमने कभी सरकार से मदद मांगी नहीं। फिर भी हम जहां सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं, वहां स्थानीय प्रशासन की तरफ से काफी मदद मिल जाती है।
0 सार्वजनिक प्रदर्शन से लाभ क्या हैं?
- लोगों को कराते की सारी विधाएं दूर से एक-सी नजर आती हैं। सार्वजनिक प्रदर्शन से इन सभी का उचित मूल्यांकन हो सकता है। लोगों को पता चलता है कि कौन सही है और कौन गलत।
0 विश्व कराते में भारत का क्या भविष्य हैं?
- यह तो सभी जानते है कि भारत ही कराते का प्रवर्तक है। अब यहां सेना एवं पुलिस में कराते का प्रशिक्षण शुरू हो गया है। कराते में भारत का भविष्य अन्य राष्ट्रों की अपेक्षा ज्यादा उज्जवल है।
- दिनेश ठक्कर 
(5 जुलाई 1981 को पत्रिका "धर्मयुग", मुंबई में प्रकाशित)

शुक्रवार, 14 जून 2013

यादें : धर्मयुग में कराते चैम्पियन दादी बलसारा से भेंटवार्ता प्रकाशित

द टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप की लोकप्रिय रही हिन्दी पत्रिका "धर्मयुग" जब श्री धर्मवीर भारती के संपादन में प्रकाशित होती थी, तब उसका हर अंक अपना अलग मायने रखता था। उस वक्त "धर्मयुग" में छपना किसी भी कलमकार के लिए प्रसन्नता और गर्व का विषय होता था। यह मेरा भी सौभाग्य था कि श्री धर्मवीर भारती ने "धर्मयुग" के 5 जुलाई 1981 के अंक में जापानी क्यो कुशिन काई-कान कराते के चैम्पियन-ट्रेनर शिहान दादी बलसारा से लिया गया मेरा विशेष साक्षात्कार प्रकाशित किया था। उस समय कोलकाता निवासी फोर्थ डेन ब्लैक बेल्टधारी दादी बलसारा क्यों-कुशिन काई कान कराते (कराटे) की भारतीय शाखा के अध्यक्ष और दक्षिण पूर्व एशिया कराते फेडरेशन के उपाध्यक्ष भी थे। मेरे गृह नगर बिलासपुर के राजा रघुराज सिंह स्टेडियम में उन्होंने अपने पेट के ऊपर से कार पार करवाने का हैरतअंगेज प्रदर्शन किया था। इसके बाद मैंने उनसे वैश्विक कराते और उनकी उपलब्धियों पर आधारित भेंटवार्ता की थी, जिसे "धर्मयुग" में प्रकाशित किया गया था। श्रद्धेय श्री धर्मवीर भारती के प्रोत्साहन के कारण ही मुझे पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर लेखक-पत्रकार बतौर पहचान मिली। बाद में जब श्री गणेश मंत्री कार्यवाहक संपादक और श्री विश्वनाथ सचदेव संपादक बने, तब भी उनके संपादकीय विभाग द्वारा टेलीग्राम के जरिये विषय प्रेषित कर मुझसे छत्तीसगढ़ अंचल से जुड़ी विभिन्न रिपोर्ताज मंगाई जाने लगी। "धर्मयुग" में मेरी रिपोर्ताज के प्रकाशन का सिलसिला वर्ष 1993 तक अनवरत जारी रहा। फिर जनसत्ता मुम्बई से जुड़ने के कारण "धर्मयुग" के लिए मेरा लिखना बाधित हो गया। कालांतर में "धर्मयुग" का प्रकाशन बंद हो जाना दुखदायी रहा। इस पत्रिका की अब यादें ही शेष रह गई हैं। मेरी प्रकाशित रिपोर्ताज वाले इसके अंक मेरे संग्रहण में अब भी सुरक्षित हैं, जो मेरे लिए धरोहर सदृश्य हैं।