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बुधवार, 28 दिसंबर 2011

सत्यदेव दुबे के रंग और कर्म का सच - (२)


कच्चे रास्ते के ठीक बीचों बीच/ अब भी राख का धब्बा पडा होगा/ बहुत पहले कभी मैंने/ नीम की पीली झरी पत्तियों की/ ढेरी जलाई थी/ धुआं कडवाहट मुझे स्वीकार है.... सत्यदेव दुबे अपने पड़ोसी मित्र डा. धर्मवीर भारती द्वारा लिखित कविता "फागुन में शेष" की उक्त बेबाक पंक्तियाँ अक्सर गुनगुनाते थे. खासकर, जब कोई अन्तरंग व्यक्ति उनके व्यक्तित्व के उलझे व्याकरण पर कटाक्ष करता था, तब वे इन्हीं पक्तियों के माध्यम से अपनी अंतर्मुखी अभिव्यक्ति प्रकट करते थे. इसका मुख्य कारण यह था जीवन भर उन्होंने छद्म आवरण कभी स्वीकार नहीं किया. जो भीतर था, वह ज्यों का त्यों बाहर था. वे अपने आप को वे बेलगाम घोड़े के सदृश्य नहीं बल्कि एक बेलाग इंसान जरूर समझते थे. यद्दपि उन्हें जीवन पर्यंत थियेटर और सिने इंडस्ट्री के कुछ बौद्धिक ईर्ष्यालु जनों द्वारा असामाजिक करार दिए जाने की कोशिश की जाती रही. असल में वे अंतर्मुखी थे. मुंह फट थे. किन्तु दिल के साफ़ थे. उनके आचार, विचार और व्यवहार में एकरूपता थी. अपनी बेबाक अभिव्यक्ति में वे किसी नासमझ और गैर जिम्मेदार व्यक्ति की दखलंदाजी बिलकुल बर्दाश्त नहीं करते थे. उन्हें अपनी बाहरी दिखावटी छवि अपनाने की कोई गरज नहीं थी. उन्हें किसी की परवाह नहीं थी. परवाह थी तो केवल अपने बेहतर काम की. उनके विचारों में कोई अंतर्विरोध नहीं था. कहीं भी "शो पीस" बनना उन्हें कभी मंजूर न था. जुबान, दिल और दिमाग एक था. इसमें कोई बेजा घालमेल नहीं था. उत्कृष्ट सृजन के नाम पर विचारों और संवेदनाओं की तानाशाही बाह्य रूप से कभी कभी अवश्य दृष्टिगोचर होती थी, परन्तु उनका अंतर्मन कुछ अलहदा था. उन्हें मुंबई के थियेटर क्षेत्र में आदरपूर्वक "पंडित जी" के नाम से संबोधित किया जाता था. लेकिन कोई वर्कशाप हो या प्ले की रिहर्सल हो अथवा सेमीनार, यहाँ उनके प्रशिक्षण-निर्देशन की शैली, संवाद, व्याख्यान और संबोधन में जातिगत पांडित्य कहीं नहीं झलकता था. वे रौबदार ठाकुर के अंदाज में पेश आते थे. उनका यह स्वरुप सृजन की नयी पीढी के हस्ताक्षरों की समझ से भी परे होता था.
सत्यदेव दुबे के लिए उनका भोगा यथार्थ और अनुभवजनित आक्रोश उन्हीं के व्यक्तित्व के व्याकरण की अवधारणा बन गया था. मुंबई के पृथ्वी थियेटर में शुरूआती सक्रियता के दौरान ही मुखौटाधारी रंगकर्मी उन्हें रंगकर्म जगत का परशुराम और दुर्वासा ऋषि कहने लग गए थे. उनके बेबाकी और कड़े कार्य-अनुशासन की खुले आम आलोचना होने लगी. उनका  "बुलिश एटीटयूट" खुद की थियेटर यूनिट के शिष्य कलाकार, कर्मियों को शुरू में समझ नहीं आता था, किन्तु उनके जायज क्रोध की आग में तपने के बाद वे कुंदन बन जाते थे. वास्तव में वे रंगकर्म के आश्रम के एक ऐसे गुरू ऋषि द्रोणाचार्य थे, जिन्होंने कई नौसीखिए को अभिनय के प्रभावी तीर तरकश से लैस किया था. छिपकर उनकी कला को आत्सात करने वाले कई एकलव्य अच्छे कलाकार भी बने, किन्तु सत्यदेव दुबे ने उनसे कोई गुरू दक्षिणा नहीं ली वरन कुछ एकलव्य कलाकारों ने उन्हें अंगूठा दिखाकर अवश्य चिढाया. जबकि इन्होने पौराणिक काल के गुरू द्रोणाचार्य की मानिंद व्यवस्था के साथ कोई समझौता नहीं किया, जिससे इनका आचार्य कला-कर्म बदनाम होने से बच गया. गुरू द्रोणाचार्य के किरदार का सच उन्होंने स्वयं के संघर्ष से भलीभांति समझ लिया था. इसीलिये सत्यदेव दुबे अपने बिलासपुर ( वर्ष १९७४ से मुंबई वासी हुए थे ) के नाटककार मित्र डा.शंकर शेष द्वारा लिखित नाटक "एक और द्रोणाचार्य" का भी सटीक मंचन मुंबई में कर सके थे.  इस नाटक के जरिये उन्होंने यह साबित करने की सफल कोशिश की थी सही मायने में आज कौन गुरू द्रोणाचार्य है और कौन नहीं. कथ्य और शिल्प की दृष्टि से शक्तिशाली इस नाटक को उन्होंने एक नया कलेवर दिया था. नए जमाने के अध्यापक अरविन्द और पौराणिक काल के गुरू द्रोणाचार्य का परस्पर पूरक व्यक्तित्व तथा उनका बिम्ब-प्रतिबिम्ब को मंच पर जीवंत करना नाट्य गुरू सत्यदेव दुबे के चुनौतीपूर्ण था, जिसमें वे शिद्दत के साथ कामयाब रहे.
सत्यदेव दुबे को दो-चार मुलाक़ात में समझना आसान नहीं था. मेरे साथ भी यही हुआ था. बिलासपुर में वर्ष १९८० से सक्रिय पत्रकारिता से जुड़ने से पहले भी मैं विद्यार्थी जीवन में हर साल गर्मी की छुट्टियों में मुंबई अपनी बुआ के यहाँ जाता था. वहां गुजराती नाटकों का क्रेज होने के कारण चर्चित नाटक अवश्य देखता था. लेकिन टिकट खरीद कर हिन्दी नाटक व्यावसायिक मंच पर देखने का सिलसिला बिलासपुरिया सत्यदेव दुबे के आकर्षण के कारण ही प्रारंभ हो सका. शालेय जीवन के दौरान बिलासपुर के अपने मुहल्ले जगमल ब्लाक में पड़ोसी रंगकर्मी सुनील मुखर्जी के कारण ही हिन्दी नाटकों से मेरा लगाव हुआ था. उन्होंने ही मुझे सबसे पहले सत्यदेव दुबे और डा. शंकर शेष की नाट्य  उपलब्धियों के बारे में बताया था. फिर मेरी महाविद्यालयीन शिक्षा के वक़्त सुनील मुखर्जी पड़ोस के मुहल्ले दयालबंद रहने चले गए थे. तब भी उनके साथ होने वाली बैठकों में सत्यदेव दुबे का ही फालोअप जिक्र होता था. इसलिए मैं सत्यदेव दुबे के मूल स्वभाव से परिचित था, लेकिन उनकी रंग-कला से मैं रूबरू हुआ मेट्रिक करने के बाद. डा. शंकर शेष द्वारा लिखित नाटक "अरे मायावी सरोवर" को सत्यदेव दुबे ने वर्ष १९७४ से मुंबई में मंचित करना आरम्भ कर दिया था. टिकट खरीदकर देखा गया मेरा पहला दर्शनीय हिन्दी नाटक यही था. इसी नाटक के माध्यम से सत्यदेव दुबे की रंग-शैली से पहली बार मेरा साक्षात्कार हुआ. फिर तो जब भी मैं मुंबई जाता तब स्थानीय हिन्दी अखबारों को पढ़ कर पता लगाने की कोशिश करता सत्यदेव दुबे का नाटक कहाँ खेला जा रहा है.
वर्ष १९९३ में जब मैं बिलासपुर छोड़ कर मुंबई में पत्रकारिता करने गया, तब कला, संस्कृति, फिल्म मेरा विषय क्षेत्र होने के कारण पांच साल के दरम्यान सत्यदेव दुबे से ख़ास अवसर पर ही मेरी मुलाकात होती थी. वर्ष १९९४ के सितम्बर माह के आख़री हफ्ते में पहली बार उनके साथ मेरी व्यक्तिगत बैठक जुहू के जानकी कुटीर के पास स्थित फिल्म अभिनेता शशी कपूर के पृथ्वी थियेटर के कैफे में हुई थी. माध्यम थी शशी कपूर की पुत्री अभिनेत्री संजना कपूर, जो उस समय पृथ्वी थियेटर के प्रबंधन का कार्य भार सम्हाले हुई थी. उस बैठक के दौरान जब मैंने सत्यदेव दुबे को अपने प्रारंभिक परिचय में बिलासपुर का मूल निवासी होने का जिक्र किया तो वे थोड़े नाराज हुए लेकिन मेरा पूरा परिचय जानने और विविध लेखन कार्य से अवगत होने के बाद ही उन्होंने "लिफ्ट" दी. काफी पीने के दरम्यान जब मैंने उन्हें बताया सम्पादक धर्मवीर भारती ने राष्ट्रीय पत्रिका "धर्मयुग" के ५ जुलाई, १९८१ के अंक में मेरे द्वारा लिया गया कलकत्ता के कराटे मास्टर दादी बलसारा का साक्षात्कार प्रकाशित किया था, धर्मवीर भारती के कारण ही धर्मयुग में लगातार मेरी रपट छपने का सिलसिला शुरू हुआ था, यह जान कर सत्यदेव दुबे प्रसन्न हो गए. मेरे प्रति उनका नजरिया एकाएक सकारात्मक हो गया. वजह थे धर्मवीर भारती. सत्यदेव दुबे को जब मैंने यह भी बताया जनसता, मुंबई की रविवारी पत्रिका "सबरंग" में अपने स्तम्भ "मंच" में मुंबई के रंगमंच की शोधपरक सीरिज लिख रहा हूँ. १८ सितम्बर,१९९४ के अंक में पृथ्वी थियेटर पर भी लिखा हूँ, इसकी फोटो कापी देने पर वे ज्यादा खुश हुए. लेकिन जब मैंने उनसे भेंट वार्ता देने का आग्रह किया तो साफ़ इनकार कर दिया. उनका तर्क था "मैं छपने में नहीं, काम करने में भरोसा रखता हूँ, लिखना है तो सिर्फ मेरे नाटकों पर लिखो, मुझ पर नहीं".
दरअसल, सत्यदेव दुबे की सोच स्पष्ट थी. वे स्वयं को मीडिया में महिमा मंडित नहीं करवाना चाहते थे. अपनी मार्केटिंग कला के जरिये ही करने के वे पक्षधर थे. इसीलिये संजना कपूर कहती भी थी "सत्यदेव दुबे अपने आप में ड्रामा स्कूल हैं". यह गौरव उक्ति सौ फीसदी सत्य थी. इसीलिये वे नाटकों के निर्देशन की शतकीय पारी खेल सके.
वे नयी पौध को हमेशा अपने अनुभव से बेहतर रंगकर्म के लिए उत्प्रेरित किया करते थे. जीवन के ज्यादातर लम्हों में वे दूसरों से नहीं बल्कि स्वयं से संबोधित होते रहते थे. उनके भीतर का निष्पक्ष रंगकर्मी खुद से सवाल किया करता था.जवाब ढूँढने के लिए वे अपने आसपास और कभी यादों तथा अनुभवों के पृष्ठ पलटते थे. इसके अलावा वे अपने अन्तरंग मित्रों जिसमें डा. धर्मवीर भारती भी शामिल थे, का लिखा, पढ़ा और सुना प्रेरणा तथा सृजन का स्त्रोत हुआ करता था.खुद का अनुभव, अध्ययन और चिंतन सृजन में सहायक था ही. कलात्मक कृति और सृजन शिल्प का भेद समझने के लिए उनकी स्वयं की अभ्यस्त संवेदनशीलता और अक्खडपन भी मददगार था. इसीलिये उनके नाटकों में भी चाक्षुष बिम्ब रूपों का प्रयोग होता था. प्रतीकात्मक मुद्राओं के बजाय वे सीधे साफगोई सूचनात्मक तरीके को तरजीह देते थे. अति नाटकीयता से वे परहेज किया करते थे. नाट्य भाषा के निरंतर विघटन को लेकर वे अंतिम समय तक चिंतित थे.
सत्यदेव दुबे ने दो नाव पर सवारी करने के बावजूद अपना मूल कला कौशल नहीं छोड़ा. शोषित स्त्री समाज की विभिन्न त्रासदियों को कलारूपों के जरिये फ़िल्मी परदे पर संवादों को परोसा था. यह अलग बात है वे स्वयं अपने दाम्पत्य जीवन में असफल साबित हुए थे. जीवन संगिनी स्त्री न बन सकी, बल्कि जीने का सहारा सृजन रहा. इनकी कोई संतान नहीं थी. हालांकि अपने भाई राजा बाबू दुबे के पोते फिल्म अभिनेता सत्यजीत (सुतीक्ष्ण दुबे के  पुत्र) को ही अपना पोता और वारिस मान कर स्नेह देते रहे. बिलासपुर में अपनी जमीन जायदाद की देखरेख का जिम्मा पारिवारिक मुनीम के पुत्र रमेश अग्रवाल को दे रखा था. सत्यदेव दुबे एकाकीपन से वे टूटे नहीं वरन अधिक मजबूत हुए थे.
सत्यदेव दुबे ने जब समानांतर हिन्दी सिनेमा का रूख किया तब भी उन्होंने अपनी शर्तों पर ही पट कथा और संवाद का लेखन किया. उन्होंने पट कथा, संवाद के माध्यम से सिने भाषा को नव आयाम दिया. सामाजिक अवमूल्यन को उन्होंने बेबाकी से आइना दिखलाया. सामाजिक असलियत को खडी बोली में दमदारी से पेश किया.
समानांतर या फिर कला सिनेमा की जटिल भाषा को आम बोलचाल की भाषा में बदलने की कोशिश कामयाब रही. निर्देशक श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलानी ने अपनी फिल्मों में सत्यदेव दुबे की सार्थक सोच को कलात्मक जगह दी. श्याम बेनेगल की पहली हिन्दी फीचर फिल्म "अंकुर" (१९७४) की पट कथा और संवाद सत्यदेव दुबे ने लिखे थे. इस फिल्म को तीन राष्ट्रीय पुरस्कार समेत देश विदेश के ४३ पुरस्कार मिले थे. इसके बाद सत्यदेव दुबे ने श्याम बेनेगल की फिल्म "निशांत"(१९७५) लिखी, जिसे सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. शिकागो फिल्म समारोह में इसे "गोल्डन प्लेक"से सम्मानित किया गया था. श्याम बेनेगल की फिल्म "भूमिका" (१९७७) के लिए सत्यदेव दुबे को १९७८ में सर्वश्रेष्ठ पट कथा लेखन का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. फिर श्याम बेनेगल की फिल्म "जुनून" (१९७८) के लिए सत्यदेव दुबे को फिल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया था. इस फिल्म को सातवें अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के उदघाटन अवसर पर भी दिखलाया गया था. फिल्म "कलियुग" (१९८०), "आक्रोश" (१९८०), "विजेता" (१९८२), और "मंडी" (१९८३) में भी सत्यदेव दुबे का लेखन सशक्त तरीके से सामने आया था.
सत्यदेव दुबे ने अपनी इन सभी समानांतर फिल्मों के माध्यम से दर्शकों और समीक्षकों के बीच जीवंत संवाद सूत्र स्थापित किया था. अपनी पट कथा और संवाद में उन्होंने किरदारों की छवियों को सहज और सारगर्भित बनाया था, जो दर्शकों को कतई सिनेमाई नहीं लगती थी. दर्शकों को ऐसा लगता था जैसे वे अपने आसपास के दृश्यों को जीवंत होते देख रहे हैं. उनकी पट कथा और संवाद में फिल्म की मूल कहानी के तत्त्व सटीक और स्पष्ट होते थे. संवादों में आम आदमी के बोलचाल के शब्द होने की वजह से वह फिल्म निर्देशकों, कलाकारों और दर्शकों को  भी सहज लगती थी. पट कथा में सूक्ष्म ब्यौरे और उनके किरदार अक्सर क्रुद्ध प्रतिक्रियाएं देते थे, क्योंकि वे इसी शोषित समाज का हिस्सा थे. अपने संवाद में सत्यदेव दुबे बड़े सच को भी छोटे छोटे विवरण और असल दृष्टांत से प्रतिस्थापित करते थे. उनके संवादों में उनकी उपस्थिति रहती थी, जो कलाकारों द्वारा अदायगी के वक़्त उसे जीवंत कर देती थी. वे अपने इर्दगिर्द के प्रसंगों को भी दिमागी सूझ बूझ के साथ संवादों में बखूबी पिरोते थे. फिल्म "मंडी" में सत्यदेव दुबे ने बिलासपुर के अपने मोहल्ले गोंड पारा स्थित चित्रगुप्त धर्मशाला के चबूतरे में फाकामस्त निवास करने वाले और पेशे से कुआं साफ़ करने वाले ६० वर्षीय शराबी गोंड आदिवासी टून्ग्रुस (इसकी मौत सिविल लाइन के एक कुएं को साफ़ करते वक़्त जहरीली गैस से हुई थी) का नाम अभिनेता नसीरूद्दीन शाह के किरदार के लिए इस्तेमाल किया था.जो इस फिल्म में नायिका रूकमनी बाई
(शबाना आजमी) का भरोसेमंद सहायक पुरूष होता है. सत्यदेव दुबे ने दो लघु फिल्म "अपरिचय के विंध्यांचल" और "टंग इन चीक" का भी निर्माण किया था. मराठी फिल्म "शांता ताई" का निर्देशन भी किया था. दूरदर्शन पर प्रसारित हुए श्याम बेनेगल के ऐतिहासिक सीरियल भारत एक खोज में चाणक्य की भूमिका बखूबी अदा कर सत्यदेव दुबे ने अपने सशक्त अभिनय का लोहा भी मनवाया था. सत्यदेव दुबे को आम फ़िल्मी नुस्खों से बेहद चिढ थी. सतही दर्शकों से से उनकी कोई गंभीर अपेक्षा भी नहीं थी. वे आख़री वक़्त तक समानांतर सिनेमा की सम्भावनाओं की खोज में जुटे हुए थे. समझौतावादी न होने के कारण आगे चल कर श्याम बेनेगल से भी अलगाव हो गया था. उन्होंने खुद को समानांतर सिनेमा की भाषा और उसमें अन्तर्निहित कलात्मक सम्भावनाओं तक सीमित रखा. खालिस धंधेबाज फार्मूला फिल्मों के ताने बाने में स्वयं को बेवजह उलझाना नहीं चाहते थे. वे इंग्लिश के अच्छे ज्ञाता होने के कारण हालीवुड के अलावा अन्य पश्चिमी देशों की प्रसिद्ध कलात्मक फिल्मों पर दृष्टिपात अवश्य करते थे, लेकिन उनके सृजन का मुख्य सरोकार देसी शोषित समाज से होता था. अपने जीवन के अंतिम समय वे बीमार होने से पहले राम नाम सत्य के नाम से एक फिल्म की पट कथा लिख रहे थे. किन्तु पट कथा का यह नाम इन्हीं पर लागू हो जाएगा कल्पना नहीं थी. ( समाप्त )        

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(चित्र : गूगल से साभार)                                                                           
                                                                                                             

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

सत्यदेव दुबे के रंग और कर्म का सच

झुरमुट में दुपहरिया कुम्हलाई/ खेतों में अन्हियारी घिर आई/ पश्चिम की सुनहरिया घुंघराई/ टीलों पर, तालों पर/ इक्के दुक्के अपने घर जाने वाले पर / धीरे धीरे उतरी शाम/ लगता है इन पिछले वर्षों में/ सच्चे झूठे, मीठे कडवे संघर्षों में/ इस घर की छाया छूट गई अनजाने .... डा. धर्मवीर भारती द्वारा लिखित चर्चित कविता "कस्बे की शाम" की उक्त पंक्तियाँ रंग ऋषि सत्यदेव दुबे पर चरितार्थ होती हैं. वे भी जीवन पर्यंत इस कविता के माध्यम से अपने खोये कस्बे और घर की छाया को अपने सृजन में तलाशते रहे. डा. धर्मवीर भारती के वे बेहद प्रिय पड़ोसी थे. परस्पर साहित्य सहवास भी अत्यंत अन्तरंग था. यह भी एक संयोग था निवास क्षेत्र का नाम "साहित्य सहवास" होना. मुंबई के उप नगर बांद्रा (पूर्व) में डा. धर्मवीर भारती के घर का पता "५, शाकुंतल, साहित्य सहवास" और सत्यदेव दुबे का ठौर ठिकाना "१०, फूलरानी , साहित्य सहवास". डा. भारती के अन्तरंग पड़ोसी होने के कारण सत्यदेव दुबे की साहित्यिक अभिरूचि में वृद्धि और सोच में व्यापकता स्वाभाविक थी. लेकिन रविवार, २५ दिसंबर २०११ को सुबह ११.३० बजे सत्यदेव दुबे के देहावसान से साहित्य सहवास की "फूलरानी" मुरझा गई. अपने भाई सदृश्य मित्र डा. भारती की तरह यायावर सत्यदेव दुबे भी अनंत यात्रा पर चले गए. उनका जाना सार्थक रंगमंच और समानांतर सिने कथा-संवाद जगत के लिए बड़ा झटका है. मुंबई के एक निजी अस्पताल में साँसों की डोर टूटने से उनके जीवन के रंगमंच का ही पर्दा नहीं गिरा है, अपितु प्रयोगधर्मी सृजन कर्म भी "लास्ट कट" के साथ "पैक-अप" हो गया है. कोमा में चले जाने के कारण उनके जीवन अध्याय के अंतिम "शाट" के "रिटेक" का मौका भी ऊपर वाले ने नहीं दिया. रंगमंच की दुनिया खासकर जुहू, मुंबई के पृथ्वी थियेटर से उनका दिलोदिमाग से गहरा जुडाव था. इसके प्रबंधन और मालिकाना हक़ को लेकर फिल्म अभिनेता शशी कपूर की पुत्री अभिनेत्री संजना कपूर और शशी कपूर के ही पुत्र कुनाल के बीच हुए पारिवारिक विवाद का सदमा सत्यदेव दुबे को भी लगा था. संजना कपूर को पृथ्वी थियेटर से अलग कर दिए जाने से इन्हें मानसिक आघात पहुंचा था. तब से सत्यदेव दुबे की तबियत खराब रहने लगी थी. सितम्बर माह में उन्हें ब्रेन स्ट्रोक हुआ था, जो जीवन के अंतिम सफ़र की वजह भी बना. भावनात्मक रूप से वे जितने संवेदनशील थे, उससे कहीं ज्यादा सृजन में संवेदनशील थे. इनका अंतिम संस्कार रविवार, २५ दिसंबर की शाम को मुंबई के शिवाजी पार्क शमशान गृह में किया गया.
७५ वर्षीय सत्यदेव दुबे के जीवन की पृष्ठभूमि प्रतिष्ठित रही है. छितानी मितानी परिवार बिलासपुर (छतीसगढ़) का एक जाना माना परिवार है. बिलासपुर के खांटी पुराने मुहल्ले गोंड पारा में १९ मार्च १९३६ को गया प्रसाद दुबे के यहाँ इनका जन्म हुआ था. इनके पिताश्री की इच्छा थी सत्यदेव इंग्लिश की पढ़ाई में अव्वल रहे, इसलिए इन्हें  आरंभिक शिक्षा बिलासपुर के रेलवे इंग्लिश मीडियम स्कूल में दिलवाई गई थी. उस जमाने यह एंग्लो इंडियन लोगों का स्तरीय स्कूल समझा जाता था. एक एंग्लो इंडियन परिवार के संरक्षण में इन्हें इस स्कूल में एडमिशन मिला था. नवमी कक्षा के बाद फिर मैट्रिक इन्होने हिन्दी माध्यम वाले स्कूल लाल बहादुर शास्त्री शाला से किया था. शालेय शिक्षा के दौरान ही इनके पिताश्री की मृत्यु हो गई थी. सत्यदेव दुबे जब दस साल थे, तब आलू पराठे खाने का बेहद शौक था. बचपन में इनका अधिकतर लालन पालन चाचा काशीप्रसाद दुबे के यहाँ हुआ था. चाचा के घर से लगा हुआ ब्रिजवासी होटल गोलबाजार के संचालक कल्लामल ब्रिजराज खंडेलवाल का घर भी था. दोनों घर की छत एक थी. इसी छत में खेलने के दरम्यान बालक सत्यदेव अक्सर खंडेलवाल जी के घर पहुँच जाते फिर उस घर की बड़ी बहू जो स्वादिष्ट शुद्ध घी के आलू पराठे बनाने में माहिर थी, से आलू पराठा खिलाने का बाल हठ करते. बालक सत्यदेव नाटकीय अंदाज वाले थे, इसलिए बड़ी बहू कहती "पहले अपना डांस दिखाओ तब आलू पराठा मिलेगा". फिर आलू पराठे के लालच में सत्यदेव ठुमक ठुमक कर डांस करते. इस दौरान घर की सभी महिलाएं एकत्रित हो जाती थीं. सत्यदेव बिना झेंपे सबका मनोरंजन करते थे.
सत्यदेव दुबे के बाल्यकाल का नाटकीय अंदाज युवा अवस्था में परिष्कृत हो गया था. मुंबई के जेवियर्स कालेज में जाने पर यह नाटकीय अंदाज कलात्मक सृजन में परिवर्तित हो गया. यहाँ से स्नातक होने के बाद वर्ष १९५९ में सत्यदेव दुबे ने सागर यूनिवर्सिटी से इंग्लिश में मास्टर आफ आर्ट्स (गोल्ड मेडलिस्ट) की डिग्री ली थी. इसके बाद कुछ समय तक इन्होने बिलासपुर के एस.बी.आर. कालेज में पढ़ाया भी था. बिलासपुर के  देश विख्यात "तीन एस." में से वे एक थे. तीन एस. यानी साहित्यकार- राजनीतिज्ञ श्रीकांत वर्मा, नाटककार डा. शंकर शेष और सत्यदेव दुबे. इन तीनों ने अपने अपने तरीके से बिलासपुर का नाम पूरे देश में रोशन किया. ये तीनों विभूतियाँ आज इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन लोगों के दिलों में अवश्य बसे हैं.                .
बिलासपुर के गोंड पारा की घुमावदार गलियों में सत्यदेव दुबे का बाल्यकाल गुजरा था. गोलबाजार के निकट स्थित हरदेव लाला मंदिर के आसपास बैठ कर वे दोस्तों से गप्पे लड़ाते थे. बाल्यकाल की इन यादों को उन्होंने अपने सृजन में भी उकेरा था. स्कूली जीवन से ही इन्हें क्रिकेट के खेल में ज्यादा रुचि थी, जो मुंबई जाने का कारण बनी थी. टेस्ट प्लेयर बनने का सपना उन्हें मुंबई खींच ले गया था, लेकिन बन गए नाटक और सिनेमा के खिलाड़ी, जो आख़री समय तक क्रीज पर बने रहे. पारिवारिक बंटवारे में बिलासपुर का पुराना सिनेमा हाल श्याम टाकिज इनके हिस्से में आया था. एक समय ऐसा भी आया जब पूर्व मंत्री अशोक राव  इसका संचालन कर सत्यदेव दुबे की आर्थिक सहायता करते रहे. बिलासपुर में रामचंद और बाजपेयी बाड़ा इनकी बैठकी का पसंदीदा स्थल था. जस्टिस के.के. वर्मा और बाजपेयी जी का बँगला इनका बौद्धिक विचार विमर्श का प्रमुख स्थान हुआ करता था. मध्यप्रदेश शासन में मंत्री रहे और सत्यम टाकिज के संचालक अशोक राव से इनकी गहरी दोस्ती थी. मुंबई वासी हो जाने के बाद भी जब वे बिलासपुर आते तब वे अशोक राव के यहाँ ही ठहरते. ख़ास सिने पटकथा, संवाद लेखन के लिए भी वे उनके यहाँ गुप्त रूप से आते थे. कुछ रोज बाद फिर वे किसी से मिले बगैर वापस मुंबई लौट जाते थे. यहाँ जब भी आते तो दिन में दो चार बार गुड़ाखू करना नहीं भूलते थे.
साहित्यकार पालेश्वर शर्मा भी बिलासपुर के प्रारम्भिक प्रमुख युवा मित्रों में से एक रहे. इन्होने ही सत्यदेव दुबे को मुंबई जाने से पहले डा. धर्मवीर भारती के चर्चित रेडियो प्ले "अंधा युग" के बारे में बताया था और उसे नयी स्क्रिप्ट के साथ रंगमंच पर प्रस्तुत करने की प्रेरणा दी थी. सत्यदेव दुबे ने नयी स्क्रिप्ट लिखकर १९६२ में इसका मंचन इब्राहिम अल्काजी के निर्देशन में मुंबई और दिल्ली में करवाया था. इस प्ले को नव आयाम देने से डा. धर्मवीर भारती स्वयं इनकी प्रयोगशीलता से बेहद प्रभावित थे.
मुंबई के जेवियर्स कालेज में पढ़ाई के दौरान सत्यदेव दुबे देव आनंद के भाई विजय आनंद के संपर्क में आये थे. वे ही इनके सृजन के सफ़र के सूत्रधार बने थे. उनके बहु आयामी व्यक्तित्व का बीजारोपण हो गया. शुरूआती दौर में थियेटर उनके लिए महज शौकिया था, जो आगे चलकर जूनून बन गया.  पीडी शिनॉय और निखिल जी की बताई रंग राह मंजिल की तरफ ले गई. वे इब्राहिम अल्काजी के थियेटर से जुड़ गए. फिर तो निर्बाध रंग यात्रा शुरू हो गई. देसी विदेशी नाटको के मंचन में उन्हें समान रूप से ख्याति मिली. हिन्दी, मराठी, गुजराती के अलावा इंग्लिश और फ्रेंच नाटको की सफल प्रस्तुतियों से उनकी पहचान प्रयोगधर्मी रंगकर्मी बतौर अधिक बनी. नाटक "अंधा युग" (डा. धर्मवीर भारती), "ययाति", "हयवदन" (गिरीश कर्नाड), "एवम इन्द्रजीत", पगला घोड़ा" (बादल सरकार), "और तोता बोला" (चन्शेखर काम्ब्रा), "आधे अधूरे" (मोहन राकेश), "गिधाडे", "शांतता ! कोर्ट चालू आहे" (विजय तेंदुलकर) आदि नाटकों के जरिये सत्यदेव दुबे रंगकर्म की दुनिया के एक सशक्त हस्ताक्षर बन गए. बिलासपुर के अपने नाट्य लेखक मित्र डा. शंकर शेष, जो १९७४ में मुंबई वासी हो गए थे, का नाटक "अरे मायावी सरोवर" का सफल मंचन इन्होने सौ बार से ज्यादा किया था. फ्रेंच नाटक "एंटीगोने " के  कलात्मक मंचन से उच्च वर्ग के दर्शकों में इनकी पैठ गहरी हुई. मुंबई के पृथ्वी थियेटर को स्थापित करने में इनके मंचित नाटकों का भी बड़ा हाथ रहा. जार्ज बर्नाड शा के नाटक "जूआन इन हेल" का मंचन जब इन्होने मुंबई के नरीमन पाइंट स्थित टाटा थियेटर में किया था तब समाप्ति के बाद दर्शक इन्हें बधाई देने के लिए टूट पड़े थे.
सत्यदेव दुबे जब मुंबई में रंगकर्म के क्षेत्र में कमर कस कर सक्रिय हुए तब उस समय व्यावसायिक तौर पर द्विअर्थी गुजराती और मराठी नाटकों का बोलबाला था. आज के कुछ स्थापित फिल्म और टीवी अभिनेता उसी दौर के नाटकों के रास्ते से आये हैं. इंग्लिश नाटकों का भी तब वर्चस्व था. उस वक्त मुंबई में हिन्दी नाटकों का व्यायसायिक स्थान चौथे क्रम पर था. ऐसे विपरीत रंग परिदृश्य में सत्यदेव दुबे ने हिन्दी नाटकों को टिकट खिड़की पर ग्राह्य बनाया.
नवमे दशक आते तक हिन्दी रंगमंच जगत में एम्.एस. सथ्यू, अंजन श्रीवास्तव (इप्टा), इला अरुण (सुरनयी ), नादिरा बब्बर (एकजुट), दिनेश ठाकुर (अंक), ओम कटारे (यात्री), संजना कपूर (पृथ्वी प्रोडक्शन), मकरंद देशपांडे (प्लेटफार्म प्ले), फिरोज खान (प्लेटफार्म परफार्मेंस) आदि नाट्य निर्देशक अपने अपने थियेटर ग्रुप के मार्फ़त पृथ्वी थियेटर में सक्रिय होकर सत्यदेव दुबे के लिए चुनौती सदृश्य बन गए थे. किन्तु अपनी शर्तों पर जीने वाले सत्यदेव दुबे ने अपने समकक्ष के रंगकर्म की प्रत्येक चुनौती को सहर्ष स्वीकारा था. हिन्दी नाट्य मंडलियों की इस प्रतिस्पर्धी चुनौती में उनका रंगकर्म अलग अंदाज का था. कम किन्तु अच्छी प्रस्तुति उनका ध्येय होता था. वे व्यावसायिकता की अंधी रंग दौड़ में धावक बनना नहीं चाहते थे. उनका दर्शक वर्ग तय था. वह उनकी बेबाक और कलात्मक प्रस्तुति की प्रतीक्षा करता रहता था. लगन, जोश और जुनून उनकी रंग कार्य शैली के प्रमुख घटक थे. सत्यदेव दुबे ने अपनी नाट्य संस्था "संवर्धन" (पुराना नाम- थियेटर यूनिट) के संचालक और निर्देशक का दोहरा प्रभार बखूबी सम्हाला था. पृथ्वी थियेटर में नाटक "एजुकेटिंग रीता", "गांठ" और "स्ट्रिपटीजन पुलिस" के अनूठे मंचन से उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई थी. पृथ्वी थियेटर से ही इनकी दोस्ती अभिनेता अमरीश पुरी, कुलभूषण खरबंदा, नसीरूद्दीन शाह , ओमपुरी, इला अरूण , स्मिता पाटिल, शबाना आजमी, निर्देशक श्याम बेनेगल और सिनेमेटोग्राफर, निर्देशक गोविन्द निहलानी से हुई थी. आगे चलकर ये हस्तिया सिने सफ़र में भी इनके साथ रहीं. सत्यदेव दुबे पृथ्वी थियेटर के बाहरी खुले परिसर में होने वाले निःशुल्क प्लेटफार्म प्ले के नवोदित कलाकारों और उनके निर्देशकों को प्रोत्साहित भी किया करते थे, ताकि पूरी ऊर्जा के साथ वे परिमार्जित होकर भविष्य में पृथ्वी थियेटर के भीतरी व्यावसायिक मंच पर अपनी प्रतिभा प्रस्तुत कर सकें. उनसे पहली बार जो भी काम मांगने या सहयोग लेने के मद्देनजर मिलता, तो सर्वप्रथम वे उसकी बाडी लेग्वेज पर गौर फरमाते. फिर बातचीत के दौरान उसकी भाषा शैली और कार्य लक्ष्य परखते. अगर सामने वाला कहीं से भी कमजोर दिखता तो वे उसकी वहीं क्लास ले लेते थे. वह आगंतुक चाहे उनका रिश्तेदार ही क्यों न हो, उनके बेबाक, अक्खड़, गुस्सैल व्यवहार से ऐसे लोग काँप उठते थे. लेकिन वे दिल के बेहद साफ़ इंसान थे. उनके भीतर का एक मददगार इंसान किसी को बिना परखे बाहर आसानी से नहीं आता था. इसीलिये वे लोग उनको समझने में भूल करते थे. दरअसल, उनकी मंशा होती थी संघर्ष करने आया व्यक्ति कोई भी "शार्ट कट" मार्ग न अपनाए. अन्यथा सपनों की नगरी मुंबई में उसका कोई वजूद न रहेगा. सत्यदेव दुबे ने अपने भतीजे संकल्प दुबे (राजा बाबू दुबे के द्वितीय पुत्र), जो वर्ष १९७९ में बिलासपुर से मुंबई एक्टर बनने गए थे, को भी यही नसीहत दी थी. उन्होंने उसे कहा था- "अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाओ. किसी की सिफारिश के बजाय अपनी प्रतिभा के बूते आगे बढ़ो". भतीजा संकल्प दुबे भी स्वाभिमानी था. उसने कक्का के आदेशमाय सुझाव का सम्मान करते हुए अपनी अलग राह चुनी. उसने विभिन्न निर्देशकों के साथ बीस नाटकों में अभिनय किया था. सईद अख्तर मिर्जा के टीवी सीरियल "नुक्कड़" में चाय वाले तंबी का किरदार निभाया था. फिल्म "चक्र", "अपमान", "सारांश", "मोहन जोशी हाजिर हो" और "आघात" में भी इसने संक्षिप्त भूमिका अदा की थी. फिर सत्यदेव दुबे ने अपने भाई राजा बाबू के तीसरी पीढी के अभिनेता पोते और सुतीक्ष्ण दुबे के पुत्र सत्यजीत दुबे (शाहरूख खान की फिल्म "आलवेज कभी कभी" के नायक और टीवी सीरियल "झांसी की रानी" के नाना साहेब) को भी खुद अपना मुकाम बनाने की सलाह दी थी. सत्यजीत ने ऐसा किया भी. सत्यदेव दुबे के अंतिम दिनों का सत्यजीत साक्षी और सेवक भी है.                                              
सत्यदेव दुबे के सृजन जीवन में कर्म और पुरस्कार दोनों के मायने अलग अलग थे. रंगकर्म के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने के फलस्वरूप सत्यदेव दुबे को सबसे पहले मध्प्रदेश शासन की तरफ से शिखर सम्मान से विभूषित किया गया था. वर्ष १९७१ में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से इन्हें सम्मानित किया गया था. पुरस्कार और सम्मान पाने के लिए उन्होंने कभी भी कोई जुगत और न ही कोई लाबिंग की. यह उनकी प्राथमिकता में शामिल भी नहीं था. उन्होंने पुरस्कार और सम्मान पाने की अपेक्षा कभी नहीं की. स्वयं अपनी जन्मभूमि बिलासपुर और अपने राज्य छतीसगढ़ की सरकार से भी नहीं. छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य है उनका कोई नाटक राज्य में कहीं भी मंचित न हो सका. वर्ष २००१ में जब वे अपने व्यक्तिगत प्रवास पर बिलासपुर आये थे तब उन्हें लाल बहादुर शास्त्री शाला परिसर में लगे पुस्तक मेले में बुलाकर सम्मान की औपचारिकता निभाई गई थी. वे गीता दर्शन में भरोसा रखते थे. "कर्म करो, फल की चिंता मत करो" यह सूत्र वाक्य उन्होंने मुंबई जाते ही अपना लिया था. लेकिन इज्जत के साथ मिले राष्ट्रीय पुरस्कारों को ग्रहण कर उन्होंने उनका सम्मान जरूर बढाया. वर्ष १९७८ में इन्हें श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म "भूमिका" की उत्कृष्ट पटकथा लेखन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. जबकि वर्ष १९८० में फिल्म "जुनून" में बेहतर संवाद लेखन के लिए फिल्म फेयर अवार्ड मिला था. वर्ष २०११ में इन्हें पद्मभूषण सम्मान से नवाजा गया था. ( जारी )          

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(चित्र : गूगल से साभार)                                   
    
                                                                                                         

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

शेखर-कल्याण सेन से साक्षात्कार

( दिनेश ठक्कर )
गायन प्रयोग नहीं अभियान है: "हिन्दी साहित्य का भंडार अथाह है.मध्ययुगीन तथा रीतिकालीन रचनाएँ आज भी ग्रंथालयों तथा पाठ्य पुस्तकों तक ही सीमित हैं. रहीम, रसखान, नरोत्तम दास, बिहारी, देव, आलम, गोविन्द, मीरा और भूषण की रचनाओं का किसी भी संगीतज्ञ द्वारा इस्तेमाल नहीं किया गया था, यद्दपि शास्त्रीय संगीत काफी प्राचीन है, इसीलिये हमनें मध्ययुगीन और रीतिकालीन कवि, रचनाकारों की रचनाओं को अपने सुगम शास्त्रीय संगीत में पिरोया है. यह प्रयास मात्र प्रयोग नहीं वरन एक अभियान है." उक्ताशय के विचार प्रसिद्ध भजन-गजल गायक शेखर सेन ने "नवभारत" को दी गई विशेष भेंट में व्यक्त किये. अपनी बात को आगे बढाते हुए उन्होंने यह स्वीकार किया "उक्त रचनाकारों की रचनाएँ शास्त्रीय गायन पर आधारित होते हुए भी हम इसे सुगम तरीके से गाते हैं, ताकि श्रोताओं में यह ग्राह्य हो सके."
उल्लेखनीय है रायपुर में जन्मे शेखर सेन ने अपने जयेष्ठ भ्राता कल्याण सेन के साथ जोड़ी बना कर भक्ति काल और रीति काल के कवि-रचनाकारों के छंद, पद, कवित्त, दोहे, सवैये, चौपाई तथा सोरठा को सुगम संगीत के दायरे में सुर ताल में आबद्ध कर संगीत के क्षेत्र में एक अभिनय कार्य किया है. एक ओर जहां वे पद्य काव्य को अपनी स्वर लहरियों से श्रोताओं को अभिभूत कर देते हैं, वहीं दूसरी ओर वे नामी शायरों की गजलों को भी कुछ इस तरह गायकी में ढाल कर पेश करते हैं श्रोताओं में एक अनूठी सांगीतिक चेतना स्वतः जागृत हो उठती है. इन्होने पाकिस्तान में लिखे हिन्दी गीतों को भी खूबसूरत अंदाज के साथ सुर ताल में संजोया है.
यूं तो शेखर-कल्याण का समूचा परिवार बरसों से संगीत साधना में जुटा हुआ है, बावजूद इसके शेखर-कल्याण ने एक नव सांगीतिक सुरभि पैदा कर अपनी मौलिकता का परिचय दिया है. निष्णात गायिका और कमला देवी संगीत महाविद्यालय रायपुर की प्राचार्य डा. अनिता सेन और पिताश्री डा. अरूण कुमार सेन (पूर्व कुलपति खैरागढ़ विश्वविद्यालय) के सुपुत्र शेखर सेन ने रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर से बी.काम., खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय से संगीत विद और बी. म्यूजिक की उपाधि प्राप्त की है. जबकि कल्याण सेन कंठ संगीत में स्नातकोत्तर हैं, वे तबला वादन में संगीत विद की उपाधि से विभूषित हो चुके हैं. इन्होने मैहर के बाबा अलाउद्दीन खान, रहमत अली खान और हीरा लाल त्रिपाठी के सानिध्य में रह कर तबला वादन के कौशल में श्रीवृद्धि की. गायन की शिक्षा ग्वालियर घराने के बाला साहब पूंछवाले, श्रीमती कमल कलाकार और अमरेश चन्द्र चौबे से प्राप्त की.
इसी तरह शेखर सेन ने भी माता पिताश्री के अतिरिक्त श्रीमती कलाकार की शिष्यता में गायन में महारथ हासिल की. यही वजह है शेखर-कल्याण की गायन शैली में ग्वालियर घराने की स्पष्ट छाप है. लखनऊ,बनारस, गया की ठुमरी के अलग अलग भेद गाने से सेन बंधू अपनी मातुश्री की तरह दक्ष हैं. सेन बंधू पिछले छः वर्षों से बम्बई में रह कर संगीत साधना कर रहे हैं.
शेखर-कल्याण से यह पूछे जाने पर "मध्ययुगीन काव्य को गायन शैली में आत्मसात करने के पीछे कौन सी प्रेरणा रही?" तो जवाब में उन्होंने कहा- "जब भविष्य की ओर देखना होता है तो हम अतीत की ओर भी देखें. इस युग की रचनाओं को यदि आम लोगों के सामने लायेंगे नहीं तो एक समय बाद यह लुप्त हो जायेगी. यही आशंका मेरे लिए प्रेरणा बनी. मैंने उसमें गायिकी की संभावना को खोजा और सफल भी हुआ."
गायन में किये जाने वाले नित नए प्रयोगों से आप कहाँ तक सहमत हैं? इस सवाल के जवाब में कल्याण सेन बोल उठे- "प्रयोग होना चाहिए, लेकिन शास्त्रीयता के दायरे में." इसे विस्तार देते हुए शेखर सेन ने कहा- "हम स्वयं प्रत्येक वर्ष हिन्दी दिवस पर एक नया प्रयोग करते हैं. सन १९८४ में हमने सबसे पहले दुष्यंत की गजलों को उठाया.पिछले वर्ष मध्ययुगीन काव्य तथा इस वर्ष पाकिस्तान के हिन्दी काव्य को हमने गायन के लिए चुना. निगार सहबाई, जेहरा निगाह, सहबा अख्तर, जमीलुद्दीन अली तथा इब्ने इंसा के नाम इनमें प्रमुख हैं."
गजल-भजन गायन के भविष्य को सेन बंधुओं ने बेहतर बताया. भजन गायकों की महत्ता प्रतिपादित करते हुए उन्होंने बेबाक तौर पर कहा- "भजन सुनाने से यदि मोक्ष मिल जाता तो श्रोता हमें सुनने के बजाय मंदिर में जाना बेहतर समझते. दरअसल श्रोता तो भजन के प्रस्तुतिकरण को देखने सुनने आते हैं." भजन और गजल के क्रमवार गायन से गायन संतुलन में कोई विपरीत असर तो नहीं पड़ता? इस प्रश्न पर उनका जवाब था- "गायन से पूर्व मानसिक तैयारी जरूरी होती है. श्रोताओं का रूख देख कर हम तय कर लेते है हमें उसका कितना प्रतिशत रखना है. बावजूद इसके दुराग्रह की स्थिति में श्रोताओं की फरमाइशें थोड़ी बहुत उलझन अवश्य पैदा करती है. यद्दपि इनका एक छोटा सा ही वर्ग होता है."
पक्का गायन तथा सुगम शास्त्रीय गायन इन दोनों में से आप किसे प्राथमिकता देते हैं अपने गायन के दौरान? उनका जवाब था- "जगह देख कर गायन में हम शास्त्रीयता का उपयोग करते हैं." क्या आपने स्वयं कोई गीत रच कर उसे स्वरबद्ध किया है? शेखर बोले- "फिलहाल तो नहीं, लेकिन पिताश्री के लिखे गीत रामायण,गीत नानक गीत महावीर जिन्हें माताजी ने स्वरबद्ध किया है, उन्हें अवश्य गाता हूँ."
देश में गजल का विकल्प आप किसे मानते हैं? शेखर कहते हैं- "हिन्दुस्तान में कोई भी चीज नहीं मरती है,यहाँ हर चीज शास्वत है.गजल तो उसके माधुर्यपूर्ण मेलोडी के कारण सुनी जाती है.इसलिए उसका कोई विकल्प नहीं हो सकता." गजल गायन के दौरान आपने आम श्रोताओं के मनोविज्ञान को कहाँ तक परखा है? उनकी सपाट बयानी थी- "गजल सुनते वक्त आम श्रोताओं की आतंरिक विकृतियाँ उभर कर सामने आ जाती हैं, ख़ास कर रूमानी नज्मों पर.उसकी अधिक दाद इसका सबूत है. कुछ ऐसे काम जो श्रोता अपनी निजी जिन्दगी में नहीं कर पाते वह अगर किसी शायर की बात में होता देखते हैं तो आत्म विभोर हो उठते हैं."
(नवभारत बिलासपुर में २ जनवरी १९८७ को प्रकाशित )                                         

रविवार, 4 दिसंबर 2011

देव आनंद : अदाएं अब भी जवान हैं (२)


वरिष्ठ संगीतकार नौशाद का मानना है "देव को मैंने हमेशा जवान ही देखा है. दिलीप कुमार के जमाने के यह सीनियर हीरो हैं. आज भी वे गुजरे जमाने की तरह दिखते हैं. वे जिन्दगी के उसूलों के रहबर हैं. जिन्दगी का रखरखाव और उसूल लोगों को ग्रहण करना चाहिए. पहले की तरह वे आज भी खुश रहकर व्यस्त रहते हैं. वे अच्छे फनकार तो हैं साथ ही अच्छे इंसान भी हैं. हालांकि देव के साथ संगीतकार बतौर जुड़ने का इत्तेफाक नहीं हुआ लेकिन आपसी प्रेम हमेशा बना रहा. वैसे उनकी फिल्मों में सचिनदेव बर्मन और जयदेव का संगीत उम्दा था. वे बड़े गुनी लोग थे.वह हमारा ही संगीत लगता है. देव की फिल्मों के संगीत में हिंदुस्तानीपन था. गाइड के गाने तो आज भी लोगों की जुबान पर हैं." जुबली कुमार माने जाने वाले राजेन्द्र कुमार का कहना है "देव जी ने जो अभिनय किया है, जिन्दगी में जो कुछ किया है, उसे कम लोग ही कर पाते हैं. सही अर्थों में वे कर्मयोगी हैं. वे हमेशा व्यस्त रहते है. युवा पीढी के वे आदर्श बन गए हैं. उनके अभिनय में विविधता है. उनका अभिनय और व्यक्तित्व प्रेरणादायक है." इम्पा के अध्यक्ष और फिल्म "अंदाज अपना अपना" के निर्माता विनय सिन्हा का कहना "देव आनंद का हर अंदाज अनूठा है. चाहे उनके बात करने का हो या काम का. उनकी शैली में देव आनंद छाया रहता है. जब मैं "देश परदेस" और "लूटमार" के समय अमजद खान का सचिव था, तब देव साहब के काफी संपर्क में रहा. उस समय और आज उनके व्यवहार में कोई बदलाव नहीं देखा. उसी फुर्ती और ऊर्जा के साथ वे काम कर रहे हैं. उनके जैसी लगन आज लोगों में कम है. वे आज भी २५ साल के युवक लगते हैं. मेरी कामना है अंत तक जवान बने रहे."
वरिष्ठ लेखक और बीआई टीवी के अधिकारी कमलेश पाण्डेय का मानना है "आज के हीरो का का फ़िल्मी जीवन चंद बरसों का होता है. लेकिन देव आनंद के पचास वर्ष भी कम लगते हैं. उनका जादू अब भी कायम है. इंडस्ट्री में देव आनंद की तरह आदमकद लोग नहीं रहे. केवल छः फुट की उंचाई होने से वह आदमकद नहीं हो सकता. वह देव आनंद की उंचाई कभी नहीं पा सकता. देव साहब ने दरअसल एक नया स्कूल शुरू किया है. दिलीप कुमार, राजकपूर और देव साहब ने दर्शकों की जरूरतें अलग अलग ढंग से पूरी की हैं. दिलीप कुमार ने कुंठाएं, भावनाएं और असफल प्रेम की अभिव्यक्ति युवा पीढी को परोसी है. राजकपूर ने सामाजिक और आर्थिक परिवेश में अभिनय को अभिव्यक्ति दी. जबकि देव साहब ने अभिनय को अलग मोड़ दिया. चाल, ढाल, सबका अंदाज मस्ती भरा था. फिर भी वह हिन्दुस्तानी था. देव साहब, दिलीप कुमार और राजकपूर के बीच की आवश्यकता बन गए थे. वही व्यक्तितत्व आगे चल कर शम्मी कपूर के रूप में निखर कर सामने आया. शम्मी कपूर ने उसे अंतिम उंचाई तक पहुंचाया. हालांकि देव साहब ने अपने आपको एक ढाँचे में सीमित कर लिया है. उनकी शैली पूरी तरह विकसित नहीं हो सकी. उनके मशहूर होने में शैली एक जंजीर बन गई. इसके बावजूद देव आनंद सदाबहार हैं."
निर्देशक रमेश सिप्पी ने कहा- "देव साहब शुरू से उर्जावान रहे हैं. वे दिलचस्प और प्यारे हीरो हैं. उस जमाने में उन पर जिस तरह लड़कियां मरती थी, आज ऐसे हीरो कम ही हैं. उनका काम अनुशासित होता है. दिलीप कुमार और राज कपूर की तरह वे भी इंडस्ट्री के सशक्त स्तम्भ हैं. भारतीय सिनेमा में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता." ( दिनेश ठक्कर )
( जनसत्ता, मुंबई में २८ जुलाई १९९५ को प्रकाशित )                 

देव आनंद : अदाएं अब भी जवान हैं

( दिनेश ठक्कर )
देव आनंद सदाबहार अभिनेता के पर्याय हो गए हैं. सत्तर वसंत देख लेने के बाद भी उनके जीवन पर पतझड़ कभी हावी न हो सका है. बहारों ने हमेशा फूल बरसायें हैं. राह में कभी कभार आये कांटें खुद-बा खुद फूल बन गए. उनकी अदाएं अब भी जवान हैं. मानो वृद्धावस्था ने स्वयं पर विराम लगा दिया हो. न केवल मन से बल्कि तन से भी वे आज तरोताजा हैं. उम्र की ढलान पर भी उनके फुर्तीले कदम बहके नहीं हैं. उनमें आज भी पहले जैसा दमखम है. जवान दिलों की धड़कन देव आनंद ने १९ जुलाई १९९५ को अपने अभिनय यात्रा के पचास साल के पड़ाव कामयाबी के साथ पूरे कर लिए हैं. अपने जीवन की आधी सदी उन्होंने फिल्म जगत को समर्पित कर दी है. वे इस मायानगरी में मील के पत्थर साबित हुए हैं. बालीवुड के लिए वे दन्त कथा बन चुके हैं, यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. सी.आई.डी ., काला पानी, हम दोनों, हम नौजवान, ज्वेल थीफ, तेरे घर के सामने, मंजिल, जानी मेरा नाम, हरे राम हरे कृष्ण, लूटमार, देश परदेस समेत उनकी यादगार फिल्मों की लम्बी फेहरिस्त है, जिसमें देव आनंद ने एक नयी शैली पेश की. एक नया अंदाज दिया फिल्म इंडस्ट्रीज को. गाइड जैसी फिल्म में जहां उन्होंने गंभीर भूमिका सहजता के साथ निभाई, वहीं उन्होंने अन्य फिल्मों में रोमांटिक हीरो की छवि को विशिष्ट तरीके से पेश किया. अभिनय सम्राट दिलीप कुमार के दौर वाले इस अभिनेता ने भी अलग इमेज बनाई जो आज तक बरकरार है. दिलीप कुमार ट्रेजडी किंग रहे हैं तो देव आनंद ने मस्त मौला रोमांस किंग बतौर अपना अलहदा स्थान बनाया. राजकपूर ने सामाजिक परिदृश्य में नायकत्व का झंडा फहराए रखा तो देव आनंद ने मस्त मौला नायक का ध्वज खुशनुमा परिवेश में लहराया. उनमें उमंग की बयार सदा ही प्रवाहित रही.
खासकर युवा पीढी ने देव आनंद की भूमिकाओं में अपनी असल जिन्दगी के अक्स देखे. उनमें अपनी भावनाओं का प्रतिबिम्ब देखा. इनके चाल, ढाल, बाल, वेशभूषा, बोलने का अंदाज न सिर्फ कई दर्शकों ने अपनाया बल्कि इंडस्ट्री के नवोदित नायकों ने भी आत्मसात कर उनकी नक़ल की. कईयों के लिए उनका अभिनय आदर्श बन गया है. शक्ल और अक्ल से नक़ल करने का क्रम आज भी जारी है. देव आनंद के कैरियर की गोल्डन जुबली से जितना आन्दित उनका दर्शक वर्ग है, उतना बालीवुड भी है. "जनसत्ता" से बातचीत में फिल्म जगत की हस्तियों की आम राय थी देव आनद के ये पचास साल स्वर्णिम हैं. इन पर समूचे फिल्म जगत को गौरव है. फिल्म "गैंगस्टर" और "रिटर्न आफ ज्वेल थीफ" से भी लोगों को उम्मीद है उसमें देव आनंद का पुराना अंदाज हावी रहेगा.
देव आनंद के भाई और अभिनेता-निर्देशक विजय आनंद का मानना है "देव आनंद पर हम सबको नाज होना चाहिए. वे एक बेहतर फिल्मकार अभिनेता तो हैं साथ ही एक अच्छे व्यक्ति के गुण भी हैं उनमें. उनकी सोच परिपक्व है. उनमें सदा ही सकारात्मक सोच पाई है. वे हर भूमिका में अपने आप को तह तक ले जाते हैं. तब वे देव आनंद न होकर एक पात्र हो जाते हैं. "गाइड" में उनका अभिनय बेमिसाल था. लम्बे अरसे तक वह पात्र उनसे संलग्न रहा. बाकी की फिल्मों में भी कहीं भी दोयम दर्जे के नहीं रहे. उनमें श्रेष्ठतम होने की ललक हमेशा कायम रही. उनके निर्देशन और निर्माण का तरीका दूसरे लोगों से हमेशा अलग रहा. इसके बावजूद तनाव उन पर हावी न सका. चाहे सेट पर हो या घर पर, मुस्कान उनकी खासियत रही है."
देव आनंद की नायिका रह चुकी स्वप्न सुन्दरी हेमामालिनी की बेबाक बयानी है "देव साहब परदे और परदे के बाहर हीरो ही रहे है.उनका रोमांटिक अंदाज निराला है. उनके साथ काम करते हुए पता ही नहीं लगता किसी फिल्म में अभिनय कर रहे हैं. फिल्म "जानी मेरा नाम" इसका एक उदाहरण है. अपने साथी कलाकारों की वे जिस तरह हौसला अफजाई करते हैं वह तारीफ़ के काबिल है. जूनियर आर्टिस्ट से लेकर स्पोट बॉय भी उनसे खुश रहता है. सबको सम्मान देने की भावना रहती है." फिल्म "हरे राम हरे कृष्ण" में नायिका रह चुकी जीनत की भी यही राय थी. वे कहती हैं "उनके साथ काम करने का रोमांच ही कुछ अलग है. फिल्म कब पूरी हो जाती है पता ही नहीं लगता. सब कुछ आसान तरीके से होता है. उनके व्यवहार से हमें काफी कुछ सीखने को मिलता है. वे हर किसी की तरक्की चाहते हैं." ( जारी .... )
( जनसत्ता, मुंबई में २८ जुलाई १९९५ को प्रकाशित )                                          

देव आनंद पर जनसत्ता में यादगार आलेख



यंग रोमांटिक, स्टाइल किंग सिनेमा गाइड माने जाने वाले ८८ बरस के देव आनंद का निधन ३ दिसंबर २०११ को लन्दन में दिल का दौरा पड़ने से हो गया. अंतिम समय उनके पास पुत्र सुनील मौजूद था. वे भले इस दुनिया में अब नहीं रहे, लेकिन मेरे सहित हजारों लोगों के दिलों में वे सदा बसे रहेंगे. उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है. वर्ष १९९३ से १९९९ तक जब मैं मुंबई में पत्रकारिता कर रहा था, तब सौभाग्यवश देव साहब से नवकेतन और उनके बंगले में कुछ यादगार बातचीत वाली मुलाकातें हुई थी. उनकी अभिनय यात्रा के पचास साल के पड़ाव कामयाबी के साथ पूरे होने पर जनसत्ता, मुंबई के २८ जुलाई १९९५ के अंक में जब उन पर अभिमत वाला मेरा लेख "अदाएं अब भी जवान हैं ..." प्रकाशित हुआ था, तब देव साहब ने प्रसन्न होकर मुझे मेरे पेजर पर धन्यवाद दिया था, जिसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ. उनकी भेंटवार्ता अब यादों के झरोखे में शेष रह गई हैं. अखबार में छपे लेख की यह कतरन मेरे लिए अब धरोहर स्वरुप है.
मालूम हो देव आनंद का जन्म २६ सितम्बर १९२३ को गुरदासपुर ,पंजाब (पाकिस्तान )में हुआ था. उन्होंने वर्ष १९४६ में अपने फ़िल्मी कैरियर की शुरूआत की थी. उनकी पहली फिल्म "हम एक है" थी. उन्होंने सौ से ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया था. उन्होंने ३५ फ़िल्में बनाई थी. १९४८ में हिट फिल्म "जिद्दी" से उनकी पहचान बनी. १९५१ में फिल्म "बाजी" सुपर हिट हुई थी. १९५४ में उन्होंने  कल्पना कार्तिक से विवाह किया था. १९५८ में फिल्म "काला पानी" और १९६६ में "गाइड" के लिए उन्हें फिल्म फेयर पुरस्कार मिला था. जबकि लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड  १९९३ में मिला था. १९५० में  उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी  "नवकेतन फिल्म्स" की शुरूआत की थी. इनकी अंतिम फिल्म "चार्जशीट "थी. २००१ में उन्हें पद्मभूषण सम्मान और २००२ में दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया था.     

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

सुनील मुखर्जी के "अखाड़े के नगाड़े"

वरिष्ठ नाट्य अभिनेता-निर्देशक सुनील मुखर्जी द्वारा निर्देशित नाटक "अखाड़े के नगाड़े" का मंचन ३१ दिसंबर, १९८३ को बिलासपुर के देवकीनंदन दीक्षित हाल में हुआ था. इसमें सुनील दादा ने भी अभिनय किया था. उन्होंने वैद्य का पात्र निभाया था. जबकि बिलासपुर के पूर्व मेयर राजेश पाण्डेय ने छिन्न मस्ता का चेला "काल भैरव" पात्र को बखूबी जीवंत किया था ( काली पेंट पहने बेंच में बैठा मुच्छड़) . राजेश दुबे ने ब्राह्मण की भूमिका निभाई थी. फोटो में बाएं तरफ सुनील दादा धोती कमीज पहने दृष्टिगोचर    

स्मृति शेष : रंगकर्म के "दादा" सुनील मुखर्जी

 बिलासपुर (छत्तीसगढ़ )के वरिष्ठ नाट्य निर्देशक-अभिनेता ६९ वर्षीय सुनील मुखर्जी "दादा" का निधन मंगलवार, २९ नवम्बर, २०११ को हो गया. वे कुछ दिनों से बीमार थे. इनका अंतिम संस्कार बुधवार, ३० नवम्बर को दोपहर १२ बजे सरकंडा, बिलासपुर स्थित मुक्तिधाम में किया गया. सुनील दादा के पुत्र सिद्धार्थ ने मुखाग्नि दी. इनकी एक पुत्री भी है. स्टेट बैंक आफ इंडिया के पूर्व कर्मी सुनील दादा को रंग कर्मी होने का गर्व था. बिलासपुर में नाट्य गतिविधियों को बढ़ावा देने में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही. रंग शिविर के जरिये नए कलाकारों को परिमार्जित कर उन्हें सार्थक मंच प्रदान किया था. इस क्रम में बिलासपुर के पूर्व मेयर राजेश पाण्डेय, दीपक ठाकुर, राम माधव गुप्ता, राजेश मिश्रा, दिलीप मुखर्जी, असगर अली, राजेश दुबे आदि के अभिनय को सुनील दादा ने अपने निर्देशन कौशल से संवारा था. फुरसत के पलों में इनका पसंदीदा स्थान गोलबाजार था. दोपहर के वक़्त वे रज्जन पाण्डेय के रेस्टोरेंट "पाण्डेय स्वीट्स" में बैठकर अपने मित्रों से यादें ताजा किया करते थे. इनमें मैं स्वयं, पत्रकार सरजू मिश्रा, सतीश जायसवाल, पूर्व सहकर्मी मुरारी पस्तोर, मिश्राजी, रज्जन पाण्डेय , राजेश पाण्डेय आदि प्रमुख हैं. भोपाल के शारदा जी, माताचरण मिश्र के भी वे करीबी थे.
मुझे सुनील दादा का पड़ोसी होने का सौभाग्य बचपन में मिला था. तब वे जगमल ब्लाक में रहते थे. इसी मुहल्ले के गणेश और सरस्वती पूजा उत्सव से उन्होंने अपनी शौकिया रंग यात्रा शुरू की थी. बाद में वे पड़ोस के मुहल्ले दयालबंद में रहने चले गए थे. अंतिम समय वे अरपा पार कालोनी सोंगंगा में निवासरत थे. मालूम हो २० दिसंबर १९४१ को जन्मे सुनील दादा ने बिलासपुर के रंग परिदृश्य को नव आयाम दिया था.उन्होंने ३० से ज्यादा नाटकों का सफल मंचन किया था. जिसमें डाक्टर धर्मवीर भारती के "अंधायुग"के अलावा सिहासन खाली है, भस्मासुर अभी ज़िंदा है, गवर्नमेंट इन्स्पेक्टर, रानी नागफनी की कहानी, इतिहास चक्र, अखाड़े के नगाड़े आदि उल्लेखनीय हैं. सुनील दादा ने १९५८ में पहली बार बड़े मंच पर नाटक "और इंसान बदल गया" में अभिनय किया था. यह नाटक उनके बड़े भाई राजकुमार अनिल ( ग्वालियर ) के निर्देशन में बिलासपुर के छेदीलाल सभा भवन में खेला गया था. सुनील दादा का निर्देशक बतौर पहला नाटक "फिंगर प्रिंट" ( १९६४ ) था. सुनील दादा को नाट्य क्षेत्र में में कई पुरस्कार मिले थे. बिलासपुर में राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव शुरू कराने में इनकी महती भूमिका थी. दादा को मेरी ओर से विनम्र श्रद्धांजलि ...                        

रंगकर्म की अलख जगाई है सुनील मुखर्जी ने

( दिनेश ठक्कर )
सुनील मुखर्जी एक ऐसी सख्शियत का नाम है, जिसने बिलासपुर के सार्थक "रंग-आन्दोलन" का सक्षम नेतृत्व किया है. ये अपनी सक्रियता से सृजनात्मक कला-कर्म जागृत करने में सफल रहे हैं. इनके महती योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता. आज नगर के रंग परिदृश्य में थोड़ा बदलाव आया है.यहाँ का रंगकर्म सक्रियता और नवीनता की दिशा की ओर अग्रसर हुआ है. प्रतिकूल संख्या, सोच और जुड़ाव में कमोवेश वृद्धि ही हुई है. इन सब उपलब्धियों में बिलासपुर के युवा रंग कर्मी सुनील मुखर्जी का अनेकामुखी रंग प्रयत्न महत्वपूर्ण और सराहनीय है. सुनील ने अपने रंगकर्म प्रयोग से एक स्थायी प्रभाव छोड़ा है. रंगकर्म की पूर्व विश्लेषित अवधारणा के अलावा अनुभव का सम्मिश्रण इनकी खासियत है.
सुनील मुखर्जी ने अपनी अभिनय क्षमता को विविध रूपों में प्रदर्शित करने में सदैव सफलता पाई है. नाटक के दौरान वे अपने पात्र के हर पहलुओं को बखूबी संप्रेषित करते हैं. साथ ही अपने पात्र की मनोभावनाओं को सजीवता से मंच पर रूपायित भी करते हैं. संवाद अदायगी और आवाज के उतार-चढ़ाव में ये काफी कुशल हैं. वाक् अनुशासन का वे पूरा ध्यान रखते हैं. अभिनय के अलावा वे अपनी निर्देशन प्रतिभा के माध्यम से सजीव रंग अनुभव भी प्रकट करते रहे हैं. रूप सज्जा और मंच तकनीक में में भी ये दक्ष हैं. वहीं दूसरी तरफ प्रकाश नियोजन तथा ध्वनी संकेत का भी इन्हें समग्र ज्ञान है. जिसका उपयोग वे अपनी हर प्रस्तुति में करते हैं. इनकी संस्था "नाट्य चक्र" गंभीर और तल  स्पर्शी रंग प्रदर्शनों के लिए प्रदेश में चर्चित रही हैं. विभिन्न कथोपकथन के नाटकों के जरिये रंग चेतना को सार्थक विस्तार देने में यह संस्था सदैव आगे रही है.
सुनील मुखर्जी की अगुवाई में रंग शिविरों का आयोजन भी होता रहा है. शहर के रंगकर्म को सक्रिय आन्दोलन में तब्दील करने हेतु इन्होंने अनेक स्थानीय युवकों को प्रशिक्षित कर उनमें नाट्य रुचि की अलख जगाई है. यूं तो सुनील मुखर्जी ने तीस से ज्यादा नाटकों का सफल मंचन किया है. लेकिन नाटक अंधा युग, सिहांसन खाली है, भस्मासुर अभी ज़िंदा है,गवर्नमेंट इन्स्पेक्टर का प्रदर्शन बहुप्रसंशिता रहा है.नाटक ढोंग, उलझन, ज़माना, नेफा की एक शाम, पैसा बोलता है, अर्थम् सत्य, मान्मई गर्ल्स स्कूल, खून की आवाज, चिराग जल उठा, शहीदों की बस्ती, जरूरत है श्रीमती की, मौत के साए में, सरहद, दामाद, रास्ते मोड़ और पगदंडी,कुत्ते, शादीशुदा ब्रम्हचारी, सिंहासन खाली है, गवर्नमेंट इन्स्पेक्टर, घर का मोर्चा, विभाव, इतिहास चक्र, रानी नागफनी की कहानी, खेल जारी है, बाप रे बाप, अखाड़े के नगाड़े, रन दुन्दुभी (बँगला), रात्रिशेष (बँगला) में इनके जीवंत अभिनय को लोग आज भी विस्मृत नहीं कर पाए हैं.
इसी प्रकार सुनील मुखर्जी ने नाटकों में अपनी निर्देशन क्षमता का जौहर भी दिखाया है.नाटक फिंगर प्रिंट, लौट के बुद्धू घर को आये, ज़माना, घर का मोर्चा, पैसा बोलता है, उलझन, जरूरत है श्रीमती की, रास्ते मोड़ और पगडंडी, अंधा युग, आकाश झुक गया, कुत्ते, सिंहासन खाली है, भस्मासुर अभी ज़िंदा है, गवर्नमेंट इन्स्पेक्टर, इतिहास चक्र आदि में इनका निर्देशन तारीफे काबिल रहा है.
सुनील मुखर्जी का जन्म २० दिसंबर १९४१ को तुमसर रोड (महाराष्ट्र) में हुआ था. नवभारत को दी गयी विशेष भेंट में वे कहते हैं- "मैंने हमेशा अपना जन्म  दिन  नाट्य मंचन के दौरान ही मनाया है. संयोग देखिये इस साल भी मैं अपना जन्म दिन शास्त्री शाला के होने वाले वार्षिकोत्सव के अंतर्गत दो नाटकों के मंचन के समय मनाऊँगा". आपने रंग यात्रा की शुरूआत कब से की. इस सवाल के जवाब में उन्होंने बताया "सन १९५८ में राजकुमार अनिल ( भाई ) के निर्देशन में नाटक "और इंसान बदल गया" छेदीलाल सभा भवन में मंचित हुआ था. यही मेरे जीवन का पहला नाटक था, जिसमें मैंने अभिनय किया था. इस समय मैं कक्षा दसवीं का छात्र था. इसके बाद से मैं अपने मोहल्ले जगमल ब्लाक के सरस्वती पूजा उत्सव, गणेश उत्सव में नाट्य गतिविधियों में भाग लेता रहा. मुझे पिताश्री वासुदेव मुखर्जी तथा बड़े भाई विनय मुखर्जी से प्रोत्साहन हमेशा मिलता रहा". अपने नाट्य निर्देशन के बारे में उन्होंने बताया- "जब नव नाट्यम नामक स्थानीय संस्था से जुड़ा रहा तब मैंने "फिंगर प्रिंट" नाटक से निर्देशन के क्षेत्र में कदम रखा. यह बात सन १९६४ की है".
आपने नाट्य विधा की विभिन्न तकनीक भी क्यों आत्मसात की? प्रत्युत्तर में सुनील मुखर्जी ने कहा- "नाटकों के मंचन के समय हुए कडवे अनुभव से मजबूर होकर मैंने मंच सज्जा, रूप सज्जा, वेशभूषा आदि का कार्य भी सम्हाल लिया. आज मुझे इसके लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता. रूप सज्जा का ज्ञान मैंने अपने भाई विनय मुखर्जी तथा डाक्टर बी सी मित्रा से सीखा. जबकि मंच तकनीक बड़े भाई से. प्रकाश व्यवस्था अपने अनुभव से सीखी".
बिलासपुर की नाट्य गतिविधियों के सन्दर्भ में उन्होंने जानकारी दी- "पहले बिलासपुर में कुछ लोग तथा इक्का दुक्का संस्थाएं ही नाटक किया करती थीं. वैसे यहाँ चालीस वर्षों से नाटक होते रहे हैं.इसमें मिलन मंदिर के दुर्गोत्सव के नाटकों का उल्लेख करना जरूरी होगा". चार दशक के दौरान अभिनय तथा मंच सज्जा में आये परिवर्तन का जिक्र करते हुए सुनील ने कहा- "पहले के नाटकों में अभिनय में कलाकार पात्र की सजीवता पर मेहनत करते थे. आज उतनी मेहनत नहीं होती है. पहले के कलाकार भावाभिव्यक्ति पर जोर देते थे. सिक्वेंस के अनुसार काम करते थे. संवाद अदायगी में पारसी थियेटर की शैली और नाटकीयता का ज्यादा ध्यान रखा जाता था. पहले स्त्री पात्र का नितांत अभाव रहता था. लड़के ही उनकी जगह लेते थे. उस समय विनय मुखर्जी, एस पी दत्ता ( बँगला नाटक ), डेविड शाह तथा सायमन जान ( हिन्दी नाटक ) स्त्री पात्र के अभिनय में चर्चित थे. जहां तक दृश्य बंध का मामला है तो पहले वह प्रभावशाली ढंग से तैयार किये जाते थे. प्रसिद्द बंगला नाटक "मेघे ढाका तारा" जिसका मंचन नार्थ इस्ट इन्सी. में हुआ था. उससे प्रेरित होकर सन १९६७ में मैंने हिन्दी नाटक "मौत का साया" में पहली बार दुमंजिला सेट लगाया था. नगर यह पहला प्रयोग था"
विगत २६ वर्षों से नाट्य क्रियाकलापों में सक्रिय सुनील मुखर्जी समय समय पर विभिन्न संस्थाओं से सम्मानित होते रहे हैं. ४ अप्रैल १९६५ को पहली बार नव नाट्य संस्था ने इन्हें श्रेष्ठ अभिनय तथा निर्देशन का पुरस्कार देकर सम्मानित किया था. नाटक "अंधा युग" और "आकाश झुक गया" के सफल मंचन पर ६ अप्रैल १९७५ को भारतेंदु साहित्य समिति बिलासपुर द्वारा तथा १९८२ में बिलासपुर जेसीस द्वारा उत्कृष्ट युवा प्रतिभा सम्मान के तहत इन्हें सम्मानित किया गया था. सन १९८१ नाट्य दिशा रायगढ़ द्वारा आयोजित छत्तीसगढ़ स्तरीय नाट्य स्पर्धा में नाटक "सिंहासन खाली है" को द्वितीय पुरस्कार प्राप्त हुआ था. यही नहीं वरन सुनील मुखर्जी की क़द्र भोपाल के रंग परिक्षेत्र में भी हुई थी.सन १९७६ में मध्यप्रदेश कला परिषद् भोपाल द्वारा रविन्द्र भवन में आयोजित मध्यप्रदेश नाट्य समारोह में इनके द्वारा मंचित कराया गया नाटक "सखाराम .....  की प्रसंशा हुई थी. सन १९८१ में मध्यप्रदेश कला परिषद् द्वारा आयोजित प्रदेश के सात प्रमुख रंग निर्देशकों पर केन्द्रित मध्यप्रदेश नाट्य समारोह ( रंग सप्तक ) में नाटक "इतिहास चक्र" बेहद सराहा गया था.
नगर में नाट्य गतिविधियाँ अपेक्षाकृत तेज न होने बाबत सुनील मुखर्जी का अभिमत है- "यहाँ नयी सस्थाएं और निर्देशक बनने के पीछे एक विचित्र मनोविज्ञान काम कर रहा है. किसी कलाकार ने एक दो नाटक में काम किया नहीं बस निर्देशक बन गया. यह बात उसके दिमाग में घूमने लगती है और अपनी इच्छा को पूरी करने के लिए एक नयी संस्था बना लेता है. अभी तक तो मैंने देखा है इस तरह के लोग और संस्थाएं बमुश्किल एकाध मंचन ही कर सकी हैं. इस कारण वह न तो पूरी तरह कलाकार ही बनता है और न ही अन्य कुछ करता है.इस भावना से परे होकर यदि यहाँ के लोग काम करते रहते तो मेरा दावा है नगर में सशक्त कलाकारों का नाट्य दल होता".
शैक्षणिक संस्थाओं में रंग प्रक्रिया सुसुप्तावस्था में होने पर इनकी टिप्पणी थी- "मैंने देखा है स्कूल, कालेज में नाटकों पर सही ध्यान नहीं जाता है, जहां तक हो सके यहाँ शासन और विश्वविद्यालय को विशेष रुचि दिखानी चाहिए. जिससे आगे चलकर प्रदेश का सांस्कृतिक मंच देश में में अपना विशेष स्थान बना सके. वहीं प्रत्येक वर्ष अभिनय शिविर की भी व्यवस्था होनी चाहिए".
आप हिन्दी नाटकों के बजाय अनुदित नाटकों को ही प्राथमिकता क्यों देते हैं? इसके जवाब में उनका कथन था-
"हिन्दी में नाटक तो बहुत लिखे गए हैं परन्तु उनमें मंच तकनीक की कमी है. इसलिए हम बँगला, मराठी तथा
इंग्लिश के अनुदित तथा रूपांतरित नाटकों को मंचित करने बाध्य होते हैं". अपनी भावी योजना पर प्रकाश डालते हुए सुनील मुखर्जी ने बताया- "हमारी संस्था नाट्य चक्र ने वर्ष में दो बड़े कार्यक्रम के आयोजन का निर्णय लिया है.
मई में प्रदेश स्तरीय हिन्दी एकांकी स्पर्धा तथा दिसंबर में राष्ट्र स्तरीय सात दिवसीय नाट्य महोत्सव आयोजित किया जाएगा. इस समय हम अपनी संस्था के वार्षिकोत्सव में होने वाले राजनीतिक नाटक "महासम्मेलन" के मंचन की तैयारी में व्यस्त हैं. यह नाटक जनवरी के प्रथम सप्ताह में खेला जाएगा. इसके अलावा हम अपने कुछ नाटकों का वीडियो फिल्मांकन भी करेंगे. प्रथम कड़ी के रूप में हमने व्यंग नाटक "सिंहासन खाली है" का वीडियो फिल्मांकन कर लिया है. इसके अलावा मैं अभी दूरदर्शन के लिए एक टीवी फिल्म की पटकथा के काम में लगा हूँ. यह मेरे बड़े भाई राजकुमार अनिल ( ग्वालियर ) के एक हिन्दी नाटक पर आधारित है. इसका छायांकन हम निकट भविष्य में कर देंगे".
( नवभारत, बिलासपुर के ६ दिसंबर १९८८ के अंक में प्रकाशित )    
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