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सोमवार, 1 जुलाई 2013

सरगुजा के उपेक्षित पुरातात्विक स्थल

 इतिहास पर जमती उपेक्षा की परतें 
पुरा- संपदा की दृष्टि से आदिवासी जिला सरगुजा अत्यंत संपन्न है, लेकिन इसकी सुधि लेने वाला कोई नहीं हैं। सैकड़ों वर्ष पुरानी पाषाण- प्रतिमाएं यत्र-तत्र उपेक्षित पड़ी हैं। कुछ महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थलों का औपचारिक सर्वेक्षण करवा कर शासन ने अपना फर्ज पूरा कर लिया, पर दुर्लभ मूर्तियों के संग्रह- संरक्षण के लिए अब तक कोई कारगर पहल नहीं की गयी है। जिले में महत्वपूर्ण प्रतिमाओं की चोरी और प्रशासन की निष्क्रियता ने मूर्तियों की तस्करी का क्रम बदस्तूर जारी रखा है।
रामगढ़ की प्राचीन रंगशाला, महेशपुर, देवगढ़- सतमहला तथा डीपाडीह की पुरा- संपदाएं देश में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। किंतु घोर उपेक्षा की वजह से ये धीरे- धीरे अपना अस्तित्व खो रहीं हैं। बिलासपुर- अंबिकापुर मार्ग पर स्थित रामगढ़ पहाड़ी पर जोगीमारा सीता बेंगरा गुफाएं हैं। जोगीमारा गुफा में ईसा पूर्व द्वितीय सदी का एक अभिलेख है, जिसमें सूतनका नामक नर्तकी एवं देवदत्त नामक रूपदक्ष के प्रणय- प्रसंग का उल्लेख किया गया है। इस गुफा की छत में रंगीन भित्ति चित्र भी हैं, जिनमें रथ, अश्व, गज और विभिन्न भावभंगिमाओं को प्रदर्शित करते हुए मानव का चित्रण किया गया है।
कहा जाता है कि भारत के ज्ञात ऐतिहासिक काल का यह सर्वाधिक प्राचीन भित्ति चित्र है। वे भित्ति चित्र अजंता, एलोरा के प्रख्यात भित्ति चित्रों से पहले के बने हुए बताये जाते हैं। उल्लेखनीय है कि इन चित्रों के निर्माण में लाल, गेरुआ, कत्थई, हरे एवं नीले रंगों का उपयोग किया गया था। यह जानकारी इन चित्रों के बचे-खुचे अंश से प्राप्त होती है। शासन की लापरवाही का नतीजा यह है कि यहां के चित्र संरक्षण के अभाव में अत्याधिक धूमिल एवं क्षरित हो गये हैं।
हर बार उपेक्षा की मार 
रामगढ़- जोगीमारा में मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण एक अभिलेख से इस क्षेत्र की ऐतिहासिक परंपरा का श्रीगणेश मौर्यकाल से हो जाता है। धार्मिक किंवदंतियों में रामगढ़ को रामायणकालीन प्रसंगों से जोड़ा जाता है। ऐसी मान्यता है कि राम ने अपने वनवास की अवधि में इसी स्थल पर निवास किया था। इसके पश्चात उन्होंने दक्षिण दिशा में प्रस्थान किया। दूसरी ओर रामगढ़ की भौगोलिक स्थिति कालिदास द्वारा रचित मेघदूत के अनेक संदर्भों से भी मेल खाती है। पुरातात्विक दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण स्थान होने के बावजूद राज्य सरकार रामगढ़ की नाट्यशाला में औपचारिक तौर पर 365 दिन में एकाध कार्यक्रम आयोजित कर इसके महत्व का अहसास कराती है, जबकि इसके संरक्षण तथा विकास की दिशा में पहल नगण्य है।
रामगढ़ की पहाड़ियों की तलहटी में तथा रेण नदी के तट पर स्थित महेशपुर भी इस समय उपेक्षा की मार सह रहा है। इस गांव में आठवीं-नवीं शताब्दी के 10 मंदिरों के भग्नावशेष हैं। इन ध्वंसावशेषों में शिवलिंग, विष्णु, त्रिविक्रम, नृसिंह, गणेश, दिग्पाल, नदी देवी गंगा- यमुना, अलंकृत स्थापत्य खंड एवं द्वार- शाखा के अवशेष प्रमुख हैं। तत्कालीन राजवंशियों (त्रिपुरी कलचुरी) के द्वारा रेण नदी के तट पर अनेक महत्वपूर्ण मंदिरों का निर्माण करवाया गया था। वैसे आठवीं शताब्दी के मंदिरों (भग्नावशेष) से संबंधित पर्याप्त साक्ष्य प्राप्त नहीं होने से मंदिर के कर्ताधर्ता राजवंशों के बारे में निश्चित रूप से कोई राय नहीं बन पायी है। लगभग तीन हजार की आबादी वाले इस आदिवासी बाहुल्य ग्राम में अधिकांश मंदिरों के भग्नावशेषों तथा स्थिति से ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में यह तीर्थ स्थल के रूप में विख्यात तो रहा होगा, साथ ही एक प्रमुख नगर भी रहा होगा। यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि यहां विभिन्न धर्मों के अनुयायी निवास करते रहे होंगे।
शेष बचे अवशेष
भौगोलिक स्थिति से यह भी स्पष्ट होता है कि उत्तर एवं पूर्वी भारत से आने वाले तीर्थ यात्री रेण नदी से होते हुए सोन नदी के तट और अमरकंटक आते रहे होंगे। महेशपुर में दो शिव मंदिरों के खंडहर तथा ऐतिहासिक महत्व के दस टीलों को इन दिनों सर्वाधिक संरक्षण की आवश्यकता है। समीपस्थ स्थल लक्ष्मणगढ़ भी उपेक्षा का अभिशाप भोग रहा है। जबकि यहां एक शिल्प पट्ट में कृष्ण लीला से संबंधित दृश्यों का अंकन मिलता है, जो अपने आप में महत्वपूर्ण हैं। इस पट्टे में विशेषकर कृष्ण जन्म एवं पूतना वध प्रसंग अत्याधिक स्पष्ट है।
पुरातत्वीय महत्ता के हिसाब से देवगढ़- सतमहला भी मुख्य स्थल है। उदयपुर-सूरजपुर मार्ग तथा रेण नदी के तट पर स्थित यह प्राचीन मंदिरों का एक समूह है। देवगढ़ में शिव मंदिर के अवशेष हैं, जिनमें एकमुखी लिंग उल्लेखनीय है। प्राचीन मंदिरों में गंगा-यमुना, गणेश, कार्तिकेय मंदिर के अलावा खंडित प्रतिमाएं विशेष महत्व की हैं। कहा जाता है कि सतमहला में पहले मंदिर कुछ ज्यादा थे। उस काल में तत्कालीन नगर भी बसा हुआ था। फिलहाल, यहां पर तीन समूहों में करीब पांच मंदिरों के टीले हैं । इन टीलों में गंगा- यमुना प्रतिमा एवं शिवलिंग आदि रखे हुए हैं। इन मंदिरों के निकट प्राचीन काल की एक बावड़ी भी है। भग्नावशेषों से ऐसा लगता है कि इन मंदिरों का निर्माण सातवीं- आठवीं शताब्दी में हुआ होगा। दुर्भाग्य से इनकी भी देखरेख करने वाला कोई नहीं है।
यही हाल डीपाडीह का भी है। डीपाडीह एक प्राचीन स्थल है, जो अंबिकापुर- कुसमी मार्ग में कन्हर नदी के तट पर स्थित है। यहां भी अनेक मंदिरों के भग्नावशेष हैं। इनमें गंगा- यमुना, शिव, भैरव, नंदी, गणेश, महिषासुरमर्दिंनी आदि की प्रतिमाएं रखी हुई हैं। खास बात यह है कि यहां के टीले आकार में विशाल तथा विस्तृत हैं। यहां के मंदिरों के निर्माण में भी ईंट व प्रस्तरों का साथ-साथ उपयोग किया गया है।
कौन करे पहल?
प्राप्त अवशेषों से मालूम होता है कि यहां के मंदिरों का निर्माण आठवीं- नवीं शताब्दी में करवाया गया होगा। टीलों का उत्खनन, सफाई आदि करवायी जाये, तो मंदिरों की संरचना और काल का सही निर्धारण हो सकता है। ज्ञातव्य है कि एक किलोमीटर के क्षेत्र में छह मंदिरों के भग्नावशेष हैं, लेकिन भारतीय पुरातत्वीय सर्वेक्षण विभाग और राज्य पुरातत्वीय सर्वेक्षण विभाग द्वारा रामगढ़ को छोड़ सरगुजा जिले के मुख्य स्थलों की तरह इसका भी पुरातात्विक सर्वेक्षण आज तक पूर्ण नहीं किया गया है, न ही जिले का गजेटियर प्रकाशित हुआ है।
सरगुजा जिले की भौगोलिक स्थिति, पर्यावरणीय वनस्पति तथा जनजातियों के अध्ययन से इस क्षेत्र की संस्कृति रामायणकालीन घटनाओं से आबद्ध किये जाने की परंपरा में निश्चित ही किसी महत्वपूर्ण सूत्र अथवा घटना का कुछ-न-कुछ अंश सन्निहित होगा, जिस पर अध्येताओं एवं विद्वानों का ध्यान तथा शोध कार्य आवश्यक है ताकि छत्तीसगढ़ की गौरवशाली ऐतिहासिक परंपरा सिर्फ सिरपुर, अड़भार, ताला, खरौद तथा मल्हार या कहें कि केवल महानदी- शिवनाथ नदी के तट तक  सीमित न रह कर रेण-सोन नदी के तट तक भी विस्तृत हो सके। 
 - दिनेश ठक्कर
(31 जनवरी 1988 को पत्रिका धर्मयुग, मुंबई में प्रकाशित)

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