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शनिवार, 11 मई 2013

रामनामियों की रामनवमी

रामनवमी को ग्राम ओड़काकन की हर धड़कन हरिजन रामनामियों के नाम हो जाती है। रामनामी गुरू-गोसाइयों और भक्तों के अंग-प्रत्यंग पर सुई से किया हुआ राम नाम का अंकन, सिर पर सज्जित मोर पंखी बांस मुकुट, बदन पर लिपटा राम-राम लिखित सूती शाल, पैरों में बंधे घुंघरूओं की खनक, घुंघरू मंडित काष्ठ चौकों की ध्वनि और राम-राम के कर्णप्रिय लयात्मक उच्चारण से समूचा वातावरण राममय हो जाता है। एक तरफ मेला, तो दूसरी तरफ रामनामियों का संत- समागम। दोनों ही छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति और आस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं। रायपुर जिले का सीमावर्ती और महानदी का तटवर्ती गांव है- ओड़काकन। भटगांव विधानसभा क्षेत्र के तहत यह गांव आता है। इनमें रामनामी पंथ के रामनामियों की संख्या यद्यपि तीन सौ से ज्यादा नहीं है, लेकिन चैत्र मास की रामनवमी को यहां न केवल रायपुर बल्कि बिलासपुर और रायगढ़ जिले के भी सैकड़ों रामनामी इकट्ठे होते हैं।
महानदी के किनारे स्थित रामनामी मंदिर के सामने सन् 1948 से मेला भर रहा है। इसे सीपत के कृषक-गौटिया स्व. पहारू राम ने शुरू करवाया था। इसके पीछे रामनामियों की अंतर्धारणा भी अलग है। ओड़काकन को अयोध्या और महानदी को सरयू नदी का दर्जा देकर रामनामी मेला शुरू किया गया था। बाद में यह गांव, गढ़कापन कहलाता था। इस गांव को रामनामियों का आदि-शिष्य मान लिए जाने से हर साल चैत्र माह की रामनवमी को संत- समागम तथा छोटे भजन (मेला) का आयोजन होता है। मेले में सिनेमा, सर्कस आदि  मनोरंजन साधनों के लिए अनुमति जरूर रहती है। असामाजिक और अनैतिक कामों पर सजा भी दी जाती है।
रामनवमी के दिन रामनामियों और राम-राम बड़े भजन (वार्षिक सम्मेलन) की मांग के लिए आवेदन पत्र भी दिए जाते हैं। पौष शुक्ल एकादशी से त्रयोदशी तक तीन दिनों का यह वार्षिक सम्मेलन अंत में ओड़काकन में ही विसर्जित होता है। राम-राम बड़े भजन के सदृश्य रामनवमी को संत समागम छत्तीसगढ़ में बहुचर्चित हो गया है।
रामनामी मंदिर के पीछे वाद्यरहित भजन-बैठक होती है। इसमें अनेक रामनामी सपरिवार शामिल होते हैं। रामनामी विधवाएं भी राम-नाम में लीन होने आती हैं। रामनामी महासभा के अध्यक्ष गुरू गोसाई इस भजन बैठक को संचालित करते हैं। तीन - चार रामनामी क्रमवार आकर थिरकते हैं, शेष बैठे रामनामी पुरुष और महिलाएं रामधुन में अपना सुर मिलाते हैं। हर भजन बैठक के बाद प्रसाद बांटा जाता है। शाम ढलने के बाद की बैठक चरमोत्कर्ष पर होती है। राम-राम का विभिन्न लय में आरोह-अवरोह बेमिसाल रहता है। रामनामी पंथ के टीकाकार द्वारा पारी-पारी रामचरितमानस का पाठ भी अनूठा रहता है।
यहां के रामनामी मंदिर की खासियत है कि उसमें राम की प्रतिमा नहीं है, दीवारों में केवल राम नाम की लिखावट है। रौशनी भी नहीं रहती है। रात को मात्र दीपक टिमटिमाता है। मंदिर के शिखर पर रामांकित श्वेत ध्वज हमेशा फहराता है। संत समागम के दिन पुजारी और दो रामनामी भक्त मंदिर में बैठकर रामचरितमानस का पाठ करते हैं। रामनामी और अन्य वर्ग के ग्रामीणजन इस पोथी की पूजा-अर्चना कर यथाशक्ति चढ़ावा अर्पित करते हैं। सन् 1948 में यह मंदिर रमतिन बाई के सहयोग से बना था, जबकि बोधराम गोविंदराम बंजारे ने जमीन दान में दी थी।
जब से यह रामनामी मंदिर बना है, तब से इसमें बिना दहेज के सामूहिक विवाह की अनोखी परंपरा भी शुरू हुई है। विवाह के पहले वर वधु को रामनामी महासभा के निर्धारत शर्तों वाले प्रपत्र को भर कर (हस्ताक्षर सहित) पंजीयन करवाना पड़ता है। बाद में उस प्रपत्र को महासभा के अध्यक्ष मुहर लगाकर हस्ताक्षर कर स्वीकृत करते हैं। मसौदे के तहत पति-पत्नी परित्याग निषेध रहता है। शुरुआती कार्यवाही के बाद दोनों पक्ष से पुजारी द्वारा मात्र एक-एक नारियल लिया जाता है। दांपत्य जीवन में दाखिल होने के प्रमाण स्वरूप वर और वधु के माथे पर राम नाम का गोदनांकन किया जाता है। फिर रामचरितमानस को साक्षी मानकर उसे बीच में रखकर सात फेरे लिए जाते हैं। इस दौरान अभिभावक और अन्य लोग राम-नाम उच्चारित करते हैं। रस्म पूरी होने के बाद वर-वधु के लोग रामचरितमानस पर पच्चीस-पच्चीस रुपए वैवाहिक दक्षिणा बतौर चढ़ाते हैं। रामनामी पंथ में चैत्र मास की रामनवमी को विवाह होना अति शुभ माना जाता है। वैसे वार्षिक सम्मेलन में भी इसी तरह के आदर्श विवाह की प्रथा है। तब रामनाम लिखित जयस्तंभ (चबूतरा) क्षेत्र में विवाह रस्म पूरी होती है। यदि विवाह के बाद कन्या विधवा हो जाती है तो इसका पुनर्विवाह चूड़ी प्रथा द्वारा होता है, तब विवाह करने वाले व्यक्ति को रामनामी समाज को भांति (भोजन) देना पड़ता है। 
अभिभावक, पति, पत्नी और संतान की मृत्यु होने पर उसकी अस्थियां गंगा नदी के बजाय महानदी में ही विर्सजित की जाती है। शिवरीनारायण में माघ पूर्णिमा को सामूहिक रूप से स्नान करने की परंपरा भी है। 
- लेख और चित्र : दिनेश ठक्कर
(17 अप्रैल 1994, रविवार को जनसत्ता, दिल्ली में प्रकाशित)

शुक्रवार, 10 मई 2013

यादें : जनसत्ता दिल्ली में रामनामियों पर आलेख

महानदी के तटवर्ती ग्राम ओड़काकन में आयोजित होने वाला रामनामियों का मेला और संत समागम छत्तीसगढ़ की विशिष्ट लोक संस्कृति और आस्था का प्रतिनिधित्व करता है। इसी विषय पर आधारित मेरा आलेख १७ अप्रैल १९९४ को जनसत्ता, दिल्ली के रविवारीय परिशिष्ट में प्रमुखता से शामिल किया गया था। इसकी कतरन मेरे संग्रह में सुरक्षित है। इसकी छाया प्रति सुधि पाठक मित्रों के लिये सादर प्रस्तुत है। जनसत्ता के कोलकाता संस्करण के प्रारंभ काल में उप संपादक और फिर उसके बाद मुम्बई संस्करण में अनुबंधित संवाददाता-लेखक बतौर कार्य करने का अवसर प्रधान संपादक श्रद्धेय प्रभाष जोशी के स्नेहमयी आशीर्वाद के फलस्वरूप ही मिला था। उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित है। .