अभिव्यक्ति की अनुभूति / शब्दों की व्यंजना / अक्षरों का अंकन / वाक्यों का विन्यास / रचना की सार्थकता / होगी सफल जब कभी / हम झांकेंगे अपने भीतर

सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

आम आदमी और बजट

विपक्ष में थे जब वे
बजट खराब लगता था
आम आदमी के लिए
बजट नकारा लगता था
बनाने लगे अब बजट वे
विपक्ष खराब लगता है
और बजट के लिए
आम आदमी नकारा लगता है

सत्ता पर जब आँखें गड़ी थी
आम आदमी तब उनके लिए
आँखों का तारा लगने लगा
सत्ता में आते ही आम आदमी
आँखों को काँटे सा चुभने लगा
खास आदमी
आँखों को फूल सा सुहाने लगा
बजट बनने लगा
खास आदमी के फायदे के लिए
आम आदमी घाटे में रहने लगा
बजट पेश करने से पहले ही वे
मिल बाँट कर खा लेते हैं हलवा
और बजट की कड़वाहट
छोड़ जाते हैं आम आदमी के लिए

बजट को विकासपरक बता कर वे
आम आदमी को सपने दिखाते हैं
खास आदमी के सपने साकार करते हैं
आम आदमी के हिस्से की धूप वे
खास आदमी के सुपुर्द कर देते है
अच्छे दिन केवल अपने लिए लाते है वे
और बजट प्रावधानों के बोझ तले
जीते जी मरता रहता है आम आदमी

सत्ता हाथ से निकलते देख कर वे
बजट बनाते हैं आम आदमी के लिए
अगला आम चुनाव सम्पन्न होने तक
आँखों का तारा फिर से बन जाता है
आम आदमी !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

भड़क उठी है स्वार्थ की ज्वाला

बहुत गुस्से में हैं इन दिनों वे
उतार रहे हैं गुस्सा दूसरों पर
पीछे रह जाने का भ्रम हैं उन्हें
रौंद कर आगे बढ़ना चाहते हैं वे
उनके सीने में भड़क उठी है
स्वार्थ की ज्वाला फिर इस बार
व्यवस्था के प्रति आगबबूला हैं वे
स्वार्थ की आग से उबल रहे हैं वे
इसलिए सरे राह लगा रहे हैं आग
सब कुछ राख कर देना चाहते हैं वे
देश जलता रहे, परवाह नहीं है उन्हें
हाथों में हिंसा का झंडा डंडा लेकर
पशुता का प्रदर्शन बेख़ौफ़ कर रहे हैं वे
हैवानियत की सभी सीमा लांघ रहे हैं वे
लोकतंत्र की सड़कों को अवरूद्ध कर
भीड़तंत्र को अपना हथियार बना कर
संपत्ति अस्मत खुले आम लूट रहे हैं वे
अपने जीवन की गाड़ी दौड़ाने खातिर
दूसरों की जिंदगी बेपटरी कर रहे हैं वे
योग्य लोगों की लकीरों को मिटा कर
अपनी लकीर बढ़ाना चाहते हैं वे
पात्र जनों का हक जबरिया छीन कर
खुद अधिकार संपन्न बनना चाहते हैं वे
क्या ये दबंग अग्निपुरुष नहीं जानते
कि स्वार्थ और ईर्ष्या की इस आग से
स्वयं भी झुलस जाएंगे एक दिन वे !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

अब तो हल्ला बोल

तुम अन्याय के खिलाफ
खड़े होते क्यों नहीं
हल्ला बोलते क्यों नहीं
भुखमरी, शोषण के विरुद्ध
आवाज उठाते क्यों नहीं
आखिर कब तक दुबके रहोगे
आँखें कब खुलेंगी सोए जमीर की ?

कड़वा सच है यह
सब देख, सुन, जान, सह कर भी
मौन रहने वाला
होता है मुर्दे की मानिंद
इसलिए समय रहते
जमीर के साथ स्वयं को भी जगाओ
अपने अधिकार, कर्तव्य को समझो
आवाज दबाने वालों से सतर्क रहो
उनका मुखौटा उतारना होगा
हल्ला बोलने और हल्ला मचाने वालों में
अंतर समझना होगा
पहचान जरूरी है अपने और परायों की
वक्त का तकाजा है इस विषम स्थितिं में
अब तो हल्ला बोल !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

हम चुप क्यों हैं

हम चुप क्यों हैं
किस भय से सहमे हुए हैं हम
सम्पूर्ण ज्ञानार्जन, समझदारी
सत्यवादी और राष्ट्रवादी होते हुए भी ?

हम चुप क्यों हैं
मात्र इस आशंकावश
कि कहीं मुखर हुए
और सच बोले तो
आधे अधूरे ज्ञानी, राष्ट्रद्रोही, उग्रवादी
सदा के लिए कहीं चुप न करा दें हमें !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)