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गुरुवार, 15 अगस्त 2013

आज का मणि भवन : अनूठा गांधी संग्रहालय




 मुंबई के लेबरनम रोड, गांवदेवी पर स्थित दो मंजिला मणि भवन आज भी गांधी जी के सत्रह बरसों (वर्ष 1917 से 1934)  के निवास की स्वर्णिम स्मृति संजोए हुए है। गांधी जी के सिद्धांतों, आदर्शों और गतिविधियों को सुरक्षित रखने गांधी स्मारक निधि ने 1955 में इस भवन को खरीद लिया था।
मणि भवन का हर हिस्सा मायने रखता है। दूसरी मंजिल पर जिस कमरे में गांधी जी का निवास था, जहां वे कार्य किया करते थे, उसे जस का तस रखने का पूरा प्रयास किया गया है। गांधी जी के कमरे के पास गुडिय़ों की प्रदर्शनी है। इसके जरिए उनके जीवन के महत्वपूर्ण 28 दृश्य पेश किए गए हैं। इसे सुशीला गोखले-पटेल ने निर्मित किया है।
अन्य एक कमरे में चित्रावली है, जिसमें खास प्रसंगों की झांकियां बनाई गई है। तस्वीरें, पत्रों की नकलें, गांधी जी के और उन पर लिखे लेख भी रखे हुए हैं। गांधी जी की वस्तुओं, पोरबंदर के जन्म स्थल, साबरमती और सेवाग्राम कुटीर की प्रतिकृतियां भी रखी गई हैं। मणि भवन में गांधी जी पर बने दस्तावेजी चलचित्र भी दिखाए जाते हैं। उनके भाषणों के ग्रामोफोन रिकार्ड सुनाने की भी व्यवस्था है।
मणि भवन के प्रवेश द्वार के पास बिक्री केंद्र है। यहां गांधी जी की तस्वीरें, डाक टिकट, चंद्रक और मूर्तियों का विक्रय किया जाता है। हाल के मध्य में गांधी जी की एक कांसे की तख्ती है। इसके नीचे चार शिल्प कृतियां हैं। इसमें वे रचनात्मक प्रवृत्तियां उकेरी गई हैं, जिनसे गांधी जी को लगाव था। पुस्तकालय भी समृद्ध है। एक प्रभाग संदर्भ ग्रंथों का है और दूसरा घर ले जाने वाली किताबों का। इसमें गांधी जी से संबंधित किताबें शामिल हैं। पहली मंजिल पर पुस्तकालय का कुछ हिस्सा और सभागृह है। यहां गांधी जी पर अभ्यास- वर्तुलकी बैठकें, सभाएं, परिसंवाद आदि कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं। मणि भवन की छत भी ऐतिहासिक मायने रखती है। 4 जनवरी 1932 को गांधी जी जिस तंबू (शयन स्थल) से गिरफ्तार किए गए थे, वहां अभी उनकी कांसे की तस्वीर रखी गई है। ये सभी धरोहर प्रेरणा स्त्रोत हैं।
- दिनेश ठक्कर
(10 अगस्त 1997 को जनसत्ता, मुंबई की रविवारीय पत्रिका "सबरंग" में प्रकाशित)

मुंबई, मणि भवन और गांधी जी

 वर्ष 1917, गांधी जी मुंबई आए। गांधी-भक्त रेवाशंकर बहुत खुश थे। उनका घर मणि भवन अब गांधी जी का निवास हो गया। गांधी जी के कदम पड़ते ही मणि भवन की चमक बढ़ गई। यह विशिष्ट स्थान हो गया। अंग्रेजी हुकूमत चौकन्नी हो गई। मुंबईवासी चहक गए। देश-भक्ति का अलख जग रहा था।
"धुनाई करा लो, धुनाई करा लो",  यह आग्रहमयी पुकार रोज गांधी जी सुनते थे। पिंजारा लेकर एक धुनिया प्रतिदिन मणि भवन के समीप से गुजरता था। पिछले नौ बरस में गांधी जी बुनाई के मायने जान गए थे। निर्धनता दूर करने में बुनाई उपयोगी थी। सो एक रोज गांधी जी ने उस बुनिए को बुलवाया। मणि भवन में बुनाई का काम शुरू करवाया। खुद गांधी जी इस काम में आगे रहते। बिस्तर पर रहते तो भी चरखा चलता था। वे सबको बताते- "मेरे कमरे में चरखा आनंद से गुनगुनाता है। मेरी तबियत ठीक रखता है।"
वे सबको स्वदेशी का पाठ पढ़ा रहे थे। अपनी भाषा, वेशभूषा और विचारों पर खूब लिखते और बोलते। वे हमेशा कहा करते- "समान बौद्धिक सामर्थ्य के साथ महिलाएं पुरुष की सहचारी हैं।" वे इस बात पर जोर देते- "सामाजिक सुधार होगा तो सबका सुधार होगा।"
वर्ष 1918, गांधी जी पेचिश की चपेट में आ गए। इलाज न करवाने से तबियत और बिगड़ गई थी। 13 दिसंबर को जब वे माथेरान से मणि भवन आए, तब वे काफी कमजोर दिख रहे थे। दूध नहीं पीने के कारण तबियत बिगड़ते ही जा रही थी। फूंकन पद्धति पर वे विरोध जता रहे थे। थन से दूध की आखरी बूंद निकालना उन्हें गंवारा नहीं था। घृणा हो गई थी। सो, दूध नहीं पीने की कसम खा ली। कस्तूरबा से रहा नहीं गया और कहा- "बकरी का दूध पीना ही पड़ेगा।" गांधी जी विवश हो गए। सत्याग्रह आंदोलन में शामिल होने का उनका जी मचल रहा था।
वर्ष 1919, जनवरी के पहले हफ्ते गांधी जी ने बकरी का दूध पीना शुरू कर दिया। तबियत कुछ सम्हली। 21 जनवरी को आपरेशन कामयाब रहा। वे फिर तंदुरूस्त हो गए। लेकिन ब्रिटिश सरकार बीमार सी हो गई। रौलट एक्ट पारित हो गया। इसे काला कानून कहा गया। रौलट समिति के प्रस्ताव अप्रत्याशित थे। गांधी जी चौंक गए। गुस्से की अग्नि भड़क गई। "मेरे विचार से यह विधेयक हमारे लिए खुली चुनौती है। हमारे खुश रहने का अर्थ होगा कि हमने इसे मंजूर कर लिया है।" गांधी जी के इस आह्वान से समूचा देश जागृत हो गया। जन-आंदोलन का यह पहला पड़ाव था। 24 फरवरी को गांधी जी ने तार में लिखा- "रौलट विधेयक के प्रकाशन के पश्चात् इसके बारे में अपनी स्थिति पर विचार कर रहा हूं। विधेयक में शासक वर्ग की आंतरिक बीमारी के स्पष्ट लक्षण हैं।"
गांधी जी से लोग मिले । विचार विमर्श का दौर चला। विरोध के लिए सत्याग्रह करना तय हुआ। मुंबई में ही सत्याग्रह सभा स्थापित हुई। गांधी जी को अध्यक्ष बनाया गया। मार्च में रौलट विधेयक के खिलाफ पहली सभा हुई। गांधी जी का गुजराती में लिखित भाषण पढ़ा गया- "सत्याग्रह डर नहीं, बल्कि सच्चाई है। यदि हम अपने इरादे पर अडिग रहे तो साम्राज्यवादी ताकतवर सरकार को भी हमारे आगे झुकना पड़ेगा। बुराई का जवाब अच्छाई से देने के लिए प्रयत्न करना हैं।" 'फिर सत्याग्रह की शुरुआत प्रतिबंधित साहित्य "हिंद स्वराज" और "सर्वोदय" की बिक्री की प्रतिज्ञा से हुई।
6 अप्रैल को गांधी जी ने अखिल भारतीय हड़ताल की अपील की।  यह सत्याग्रह अभियान के श्रीगणेश का संकेत था। इस रोज दूरदराज के गांवों और शहरों में हड़ताल सौ फीसदी सफल रही। इसी दिन मुंबई के सत्याग्रह प्रदर्शन पर गांधी जी ने स्पष्ट कहा- "कोई भी देश कभी इस तरह नहीं जागा। कोई भी देश बिना बलिदान के नही बना है।" 7 अप्रैल को गांधी जी ने अपने संपादन में साप्ताहिक "सत्याग्रही" मणि भवन से छापना शुरू कर दिया। इसका पंजीयन भी नहीं कराया गया। मूल्य रखा गया एक पैसा। गांधी जी ने इसमें सत्याग्रह के उद्देश्य लिखे। एक प्रति मुंबई के पुलिस आयुक्त को प्रेषित कर दी। सत्याग्रह की पत्रिकाएं भी रोज छपतीं। उसमें गांधी जी के दस्तखत रहते। इसके जरिए सत्याग्रह की खबरें दी जातीं।
19 अप्रैल को गांधी जी ने एकाएक सत्याग्रह स्थगित कर दिया। उनको लगा कि सविनय कानून भंग के मामले में लोग पूर्णतया अनुशासित नहीं हैं। उन्होंने कहा- "अगर मैं अंग्रेजों और भारतीयों के मध्य कटुता उत्पन्न करने के लिए हिंसा बढ़ाने सत्याग्रह का इस्तेमाल होने देता हूं, तो यह सत्याग्रह की भावना के मुताबिक नहीं होगा।" सत्य, अहिंसा के सिद्धांतों का उपदेश, स्वराज और स्वदेशी का संदेश देने गांधी जी ने 1919 में ही साप्ताहिक "यंग इंडिया" और "नवजीवन" का प्रकाशन मणि भवन निवास के दौरान शुरू किया। गुजराती और अंग्रेजी में छपने वाले ये साप्ताहिक, सत्याग्रह के नए हथियार बने।
वर्ष 1920, खिलाफत और असहयोग आंदोलन का सूत्रपात हुआ। मुसलमानों की सरकारी उपेक्षा ने खिलाफत आंदोलन को जन्म दिया। गांधी जी और उनके निवास मणि भवन ने हिंदू- मुस्लिम एकता के सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार में खासा योगदान दिया। अली भाइयों के फैसलों को गांधी जी ने पूर्ण समर्थन दिया। 22 जून को गांधी जी ने मणि भवन से भारत के वाइसराय लार्ड चेम्सफोर्ड को कड़ा पत्र लिखा - "शांति शर्त और उनकी सुरक्षा के लिए आपके वचन भंग से भारतीय मुसलमानों की संवदेना को खासा धक्का लगा है, जिससे उनके लिए यथास्थिति में आना कठिन होगा। शर्तें शासकीय वचन को भंग ही नहीं करती, बल्कि मुसलमानों की भावनाओं का अपमान भी करती हैं। अगर उनके संकट में मैं साथ नहीं देता हूं, तो मैं भारतमाता का अयोग्य पुत्र ठहरूंगा।"
असहयोग आंदोलन की योजना के क्रियान्वयन के लिए गांधी जी ने 1 अगस्त को वाइसराय को विरोध पत्र में कैसर-ए-हिंद और बोअर युद्ध पदक को लौटाने के फैसले की सूचना दी। पत्र में उन्होंने पंजाब की घटनाओं के मामले में शर्मनाक अनभिज्ञता, हाउस ऑफ लार्ड्स द्वारा उपेक्षा और विश्वासघात की जमकर आलोचना की। 1 अगस्त गांधी जी के लिए आघात का दिन था। इस दिन लोकमान्य तिलक का निधन हो गया। पूरा देश शोक- संतप्त था। गांधी जी के मणि भवन में भी शोक छाया था। यहीं उन्होंने "यंग इंडिया" में श्रद्धांजलि दी- "वे जनता के अभिन्न अंग थे। एक नरकेसरी चला गया। शेर की आवाज शांत हो गई।"
वर्ष 1921, विदेशी कपड़ों के पूर्ण बहिष्कार का गांधीजी का नारा जोर पकड़ लिया। 31 जुलाई को मुंबई में गांधी जी ने विदेशी कपड़ों की होली जलवाई। इसके साथ राजनीति और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं ने कदम रखे। एक अगस्त को चौपाटी की सभा में लोग उमड़ पड़े थे। यहां गांधी जी ने भरोसा दिलाया "कल मुंबई में जो आग की सुंदर ज्योति प्रज्वलित की गई है वह अमर रहेगी।"  फिर इस होली की ज्योति पूरे देश में फैल गई। दो माह की यात्रा के पश्चात अपने जन्म दिन 2 अक्टूबर को गांधी जी पुन: मुंबई आए। उनकी वापसी नए अंदाज में थी। कमर तक कपड़े में गांधी जी को देखने मणि भवन में भीड़ जुटने लगी। इस माह गांधी जी के बुलावे पर विभिन्न राज्यों के नेता मुंबई आए। मौलाना अबुल कलाम आजाद, अजमल खान, मोतीलाल नेहरू , सरोजनी नायडू, लाजपतराय, विट्ठल भाई पटेल, वल्लभ भाई पटेल, अब्बास तय्यबजी, जवाहर लाल नेहरू, सी राजगोपालाचारी, राजेंद्र प्रसाद आदि 50 नेताओं ने गांधी जी के घोषणा पत्र पर दस्तखत कर समर्थन व्यक्त किया। फिर इसे कई जगह पर पढ़ा गया।
17 नवंबर को प्रिंस ऑफ वेल्स भारत का जायजा लेने मुंबई उतरने वाले थे। दोपहर 1 बजे शहर में कई जगह तोडफ़ोड़ और दंगे हो गए। माहौल शांत होने के आसार नजर नहीं आ रहे थे। इसलिए गांधी जी ने 19 नवंबर को भोजन त्याग दिया। उनके इस प्रण को देख कर विभिन्न संप्रदाय के नेता उनसे मिलने पहुंचे। गांधी जी ने शर्त रखी- "यदि वे शहर में शांति स्थापित करने की जिम्मेदारी लेते हैं तो वे उपवास तोड़ देंगे।" शहर शांत होने पर 22 नवंबर को आखिर उन्होंने उपवास तोड़ा।
वर्ष 1922, 10 मार्च को गांधी जी को बंदी बना लिया गया। मुकदमा चलाया गया। राजद्रोही खबर और लेख लिखने के जुर्म में गांधी जी को छह साल के कारावास की सजा सुनाई गई। जेल में उनकी तबीयत खराब हो गई।
वर्ष 1924, गांधी जी का स्वास्थ्य इस बीच जेल में बेहद खराब हो गया था। इसलिए फरवरी में उन्हें छोड़ दिया गया। 28 अगस्त को मुंबई महानगरपालिका की तरफ से विट्ठल भाई की अध्यक्षता में सीजे हाल में बैठक हुई। इसमें गांधी जी के समक्ष नेतृत्व जारी रखने का प्रस्ताव रखा गया। इसी साल गांधी जी कांग्रेस के बेलगांव अधिवेशन की अध्यक्षता करके जब वापस मुंबई आए तो ग्लोब थिएटर में मुस्लिम लीग के सालाना जलसे में उनका भाषण हुआ।
वर्ष 1929, राष्ट्र व्यापी दमन अब बढ़ गया था। 24 मई को मुंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में गांधी जी की प्रतिरोध संबंधी योजना पर गहन विचार-विर्मश हुआ। 11 अगस्त को जब गांधी जी अहमदाबाद से मुंबई लौटे तो मणि भवन में फिर बैठकों का सिलसिला शुरू हो गया। गांधी जी नेहरू रिपोर्ट के बारे में मुसलमानों का अभिप्राय जानना चाहते थे। इसके अलावा वे नेहरू संविधान के बारे में मुसलमानों की मंजूरी के लिए जिन्ना के साथ समझौता करना चाहते थे। शाम को अली भाइयों ने मणि भवन में गांधी जी से एक घंटे से ज्यादा समय बातचीत की। महिलाओं को भी गांधी जी समय समय पर मार्गदर्शन देते रहे। 7 दिसंबर को गांधी जी ने विलेपार्लें में भगिनी सेवा मंडल का शिलान्यास कर जागृति को नव आयाम दिया।
वर्ष1930, गांधी जी स्वापर्ण से पूर्ण स्वराज्य को लेकर सक्रिय थे। 26 जनवरी को गांधी जी ने पूरे देश को स्वतंत्रता दिवस मनाने का आह्वान किया। उन्होंने अपील की "भारत में ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को उनकी आजादी से ही वंचित नहीं किया है, बल्कि वह लोगों के शोषण पर टिकी हुई है। इस सरकार ने आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भारत को तहस-नहस कर डाला है। इसलिए हम ऐसा विचार प्रकट करते हैं कि भारत ब्रिटिश सरकार से अपना संबंध विच्छेद कर ले और  मुकम्मल आजादी या पूर्ण स्वराज प्राप्त करे।"
वर्ष 1931, गांधी जी की दांडी-यात्रा के प्रस्ताव से हलचल मच गई। राष्ट्र स्तर पर सामूहिक सविनय कानून भंग आंदोलन प्रारंभ हो गया। न केवल भारत बल्कि विश्व इससे वैचारिक तौर पर द्रवित हुआ। हालात देख कर 25 जनवरी को वाइसराय लार्ड इरविन ने गांधी जी और कार्यकारिणी सदस्यों को मुक्त कर दिया। इसके बाद गांधी जी ने नमक के अधिकार पर बल दिया।
26 जनवरी,1931 को स्वतंत्रता लेने की घोषणा के एक साल पूरे होने पर और गांधी जी की रिहाई से मुंबई में भी समारोह हुए। सामूहिक सभाएं हुई। इसी समय स्मृति प्रस्ताव भी पारित किया गया। गांधी जी मणि भवन में स्वतंत्रता दिवस मनाने के बाद इलाहाबाद रवाना हो गए। वहां मोतीलाल बेहद अस्वस्थ थे। फिर गांधी जी और इरविन में समझौता हुआ। मार्च के तृतीय सप्ताह गांधी जी मणि भवन में रहे। दो दिन खूब व्यस्त रहे। सोमवार को उनका मौन व्रत रहता था। लेकिन इस रोज शाम को उन्होंने सुभाषचंद्र बोस से खास भेंट के कारण व्रत तोड़ दिया। उस रोज वे 23 घंटे निरंतर व्यस्त रहे।
27 अगस्त को मुंबई के पुलिस आयुक्त को शिमला से तार मिला। जिसमें गांधी जी का पासपोर्ट तैयार करने को कहा गया ताकि वे लंदन के गोलमेज परिषद में कांग्रेस के मुख्य प्रतिनिधि बतौर जा सके। फिर 24 घंटे के भीतर गांधी जी का पासपोर्ट तैयार हो गया लेकिन जन्म तारीख गलत लिख दी गई। 28 दिसंबर को गांधी जी निराश होकर लंदन से मुंबई लौटे। इससे पहले यानी 24 दिसंबर को गफ्फार खां और 26 दिसंबर को जवाहर लाल नेहरू गिरफ्तार हो चुके थे। राष्ट्र की हालत गंभीर थी। हालांकि मुंबई में गांधी जी के आगमन पर भव्य स्वागत हुआ। बेलार्ड पीयर से मणि भवन तक रास्ता सुसज्जित था। लोग उमड़ पड़े थे। मणि भवन पहुंचने पर गांधी जी ने पत्रकारों को लंदन के अनुभव बताए। फिर शाम 5 बजे आजाद मैदान पर गांधी जी की जबरदस्त सभा हुई। 29 दिसंबर को मणि भवन की छत पर प्रार्थना सभा के बाद पचास से ज्यादा पददलित वर्ग के संगठनों ने गांधी जी का सम्मान किया। हालांकि उन्होंने उनसे कहा- "आरक्षण और विशेष प्रतिनिधित्व मिलने पर आप और सवर्ण हिंदुओं के बीच की खाई जारी रहेगी ।"
कांग्रेस के कार्यकारिणी सदस्य गांधी जी से मिलने मणि भवन आए। बंगाल और उत्तर प्रदेश के प्रतिनिधियों से भी बातचीत हुई। गांधी जी ने यूरोप- इंग्लैंड में किए गए काम से वाकिफ कराया। सदस्यों ने अध्यादेशों का सवाल उठाया। सरकार से सही जवाब न मिलने पर 31 दिसंबर की रात को राष्ट्रव्यापी सविनय कानून भंग (असहकार) आंदोलन का एलान किया गया।
वर्ष 1932, दो जनवरी को मणि भवन में गांधी जी को वाइसराय का जवाबी तार मिला। कस्तूरबा और वल्लभ भाई पटेल तब उनके पास बैठे थे। तार पढ़ कर हंसते हुए उन्होंने चुटकी ली - "अब मैं जेल जाने की तैयारी कर रहा हूं।" फिर गांधी जी ने अखबार के जरिए राष्ट्र को संदेश देकर सरकारी चुनौती का जवाब अहिंसा से देने की अपेक्षा की। उधर सरकार मुंबई शासन को गांधी जी की गिरफ्तारी के लिए निर्देश भेज रही थी। गृह मंत्रालय ने गांधी जी को मुंबई में बंदी बनाने की मंजूरी दे दी। राज्यपाल को आदेश दिया गया कि गांधी जी को केंद्रीय यरवदा जेल में बंद कर दिया जाए।
4 जनवरी 1932 को तड़के 3 बजे मणि भवन के सामने पुलिस की दो गाडिय़ां रूकीं। गांधी जी तब छत पर तंबू में अपने बिस्तर पर सो रहे थे। देवदास ने उन्हें जगाया, पुलिस आने की खबर दी। उस रोज उनका मौन व्रत था। वे केवल मुस्कुराए। मीरा बेन ने उनका थैला सम्हाला। उसमें एक छोटा चरखा, एक चटाई, दो हाथ थैले, एक फल की टोकरी, एक जोड़ी चप्पल और दूध की एक बोतल थी। सुबह की प्रार्थना छत पर ही हुई। गांधी जी ने फिर साथियों के लिए विदाई संदेश और निर्देश लिखे। सरदार पटेल के लिए भी पत्र लिखा। तब तक वे सरदार पटेल की गिरफ्तारी से अनभिज्ञ थे। फिर वे देवदास की बांह पकड़ कर नीचे उतरे और पुलिस की गाड़ी तक गए। बगैर विरोध के ही उसमें बैठ गए। तब तक वहां काफी लोग इकट्ठे हो गए थे। नारे लगने शुरू हो गए। 1927 के पचीसवें अधिनियम के तहत गिरफ्तारी की गई थी। गांधी जी को मुंबई से पूना की यरवदा जेल ले जाया गया।
वर्ष 1933, आठ मई को गांधी जी को छोड़ दिया गया। लेकिन 4 अगस्त को फिर गिरफ्तार कर एक साल की सजा दी गई। जेल में हरिजन कार्य की स्वीकृति न मिलने पर गांधी जी ने 16 अगस्त को उपवास शुरू कर दिया। तबीयत बिगडऩे पर उन्हें 23 अगस्त को रिहा कर दिया गया। 19 सितंबर को हरिजन कार्य बाबत गांधी जी मुंबई आए।
वर्ष 1934, कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति ने 12 जून को वर्धा में जो रचनात्मक कार्यक्रम बनाया था, उसे गांधी जी ने मुंबई में भी लागू कराने का प्रयास किया। गांधी जी ने अछूत समस्या के समाधान मसले पर डा. आंबेडकर से बातचीत की। गांधी जी ने मुंबई के विदाई भाषण में सवाल उठाया- "मुंबई सचमुच एक खूबसूरत शहर है। लेकिन इसकी सुंदरता कहां है, मलबार हिल में या महालक्ष्मी की कटरा पट्टी में ? मेरा आप लोगों से निवेदन है कि मुंबई के गंदे क्षेत्रों को देखें और महानगर पालिका में जाकर इस संबंध में उनसे तुरंत कार्रवाई करने के लिए विचार विमर्श करें। एक दिन भी आप मलप्रवाह के पास कैसे रहना पसंद करेंगे? 27 और 28 जून, 1934 को गांधी जी की मौजूदगी में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक हुई जिसमें दलितों के बारे में मुद्दे उठाए गए। मणि भवन में गांधी जी का यह अंतिम निवास था।
प्रस्तुति : दिनेश ठक्कर
(5 अगस्त 1997 मंगलवार को जनसत्ता, मुंबई में प्रकाशित)

यादें : मुंबई, मणि भवन और गांधी जी पर जनसत्ता में प्रकाशित आलेख



मुम्बई के लेबरनम रोड, गांवदेवी पर स्थित मणि भवन आज भी गांधी जी के सत्रह बरसों (वर्ष 1917 से 1934 तक) के निवास अवधि की स्वर्णिम स्मृति संजोए हुए है। मणि भवन दरअसल गांधी भक्त रेवा शंकर का था। यहां गांधी जी के सिद्धांतों, आदर्शों और गतिविधियों को सुरक्षित रखने गांधी स्मारक निधि ने वर्ष 1955 में इस भवन को खरीद लिया था। फिर मणि भवन गांधी जी से संबद्ध स्मृतियों का अनूठा संग्रहालय बन गया। यहां उनकी दुर्लभ तस्वीरें, पत्र, लेख, वस्तुएं, भाषणों के ग्रामोफोन रिकार्ड, पुस्तकालय, प्रदर्शनी और सभागार आकर्षण का केंद्र है। मणि भवन में गांधी जी के व्यतीत सत्रह बरसों के दरम्यान की प्रमुख गतिविधियों को क्रमवार मैंने अपने शोधपरक आलेख "मुम्बई, मणि भवन और गांधी" में दर्शाया था, जो जनसत्ता, मुम्बई में 5 अगस्त 1997 को प्रकाशित हुआ था। इसके अलावा जनसत्ता, मुम्बई की रविवारीय पत्रिका "सबरंग" के 10 अगस्त 1997 के अंक में भी "आज का मणि भवन" शीर्षक से रपट प्रकाशित हुई थी। ये दोनों अंक आज भी मेरे संग्रह में धरोहर तथा यादगार स्वरूप सुरक्षित रखे हैं। इनकी छाया प्रति सुधि पाठक मित्रों के लिए यहां सादर प्रस्तुत है।             

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

रहस्य के आवरण में रूद्र शिव की प्रतिमा

ताला गांव वर्तमान में अपने विशिष्ट मूर्ति शिल्प के कारण न केवल देश में बल्कि पूरे विश्व में विख्यात हो चुका है। बिलासपुर से तीस किलोमीटर दूर स्थित पुरातात्विक स्थल पर जनवरी 1988 के दूसरे पखवाड़े में एक अद्वितीय उर्द्धरेतन प्रस्तर प्रतिमा खुदाई के दौरान प्राप्त हुई है। यह देवरानी मंदिर के मुख्य द्वार के समीप सोपान की दीवार से तीन फुट दूर 6 फुट की गहराई में मिली। लगभग 1500 वर्ष पुरानी यह प्रतिमा 9 फुट ऊंची एवं 5 टन वजनी है। शिव के रौद्र रूप को दर्शाने वाली यह प्रतिमा विलक्षण और द्वैत व्यंजना से परिपूर्ण है, जो विश्व मूर्ति कला के इतिहास में भी अनूठी है। 
पुरातत्व विभाग के पूर्व संचालक के.के. चक्रवर्ती के उत्खनन निर्देशन में पुरातत्व अधिकारी जी.एल. रायकवार एवं राहुल कुमार सिंह द्वारा देवरानी मंदिर के बाह्य भाग में ईंट की बंधान देकर क्षैतिजीय खनन करवाया गया था। 11 जनवरी से इस मंदिर के तीन तरफ ट्रेंच लेकर खुदाई शुरू की गयी थी। खुदाई के दौरान प्राप्त प्रतिमा दक्षिण - पूर्व की दिशा में मुंह के बल लेटी हुई थी। लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग से चैन पुली की मदद लेकर इसे बाहर निकाल कर मंदिर की सीढिय़ों के समीप खड़ा कर दिया गया है।
उल्लेखनीय है कि लेमेटा स्टोन (फर्शी पत्थर) से निर्मित इस प्रतिमा के अंग- प्रत्यंग जलचर, नभचर और थलचर प्राणियों जैसे बने हैं। प्रतिमा के शिरोभाग पर पगड़ीनुमा सर्प सज्जित प्रभामंडल है, जबकि कान मयूराकृति के हैं। आंखें दानव आकार की हैं। भौंह तथा नाक छिपकिली सी बनी हैं। मूंछ मछली से बनायी गयी है, तो ठुड्डी केकड़े से । प्रतिमा की भुजाओं हेतु मगर का चयन किया गया है। हाथ के नख सर्पाकार हैं। वक्ष- स्थल पर दानव मुख उत्कीर्ण है। उदर के लिए मूर्तिकार ने गण- मुख का प्रयोग किया है। उर्द्धवाकार लिंग कच्छप मुख के सदृश्य है। जंघाओं पर चार सौम्य भाव वाली मुखाकृति भी बनायी गयी है।
पुरातत्व विभाग द्वारा इस प्रतिमा का काल निर्धारण मुख्यत: मूर्ति शिल्प और केश-सज्जा को दृष्टिगत रखते हुए किया गया है। यह प्रतिमा गुप्त काल के तुरंत बाद की है, अर्थात छठवीं सदी के शुरुआत की। इस प्रतिमा में गुप्तकालीन शिल्प-कला का प्रभाव ज्यादा प्रतीत होता है। प्रतिमा पर उत्कीर्ण केश, केश-सज्जा, वेशभूषा तथा आकार-प्रकार पूरी तरह गुप्तकालीन है।
नामकरण की असमर्थता
जहां तक प्रतिमा के प्रामाणिक नामकरण का सवाल है, तो इस मसले पर स्वयं पुरातत्व अधिकारियों ने असमर्थता जाहिर की है। केवल अनुमान के आधार पर इस प्रतिमा का नामकरण कर दिया गया है। उत्खनन निर्देशक के.के. चक्रवर्ती ने प्रतिमा का तादात्म्य शिव के रुद्र स्वरूप से स्थापित करते हुए लकुलीश मत के साथ संबद्ध होने की संभावना व्यक्त की है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डा. प्रमोद चंद्र ने भी इसे रुद्र-शिव की प्रतिमा होने का आंकलन किया है। कुछ पुरातत्वविदों ने इसे पशुपति की मूर्ति बताया है। परंतु इसमें भी विरोधाभास है। धर्मशास्त्रों के अनुसार, पशुओं को भी जीवात्मा के रूप में मानते हैं, जबकि पति को परमात्मा कहा गया है। पशुपति की मूर्ति में इसका मिलन है। पशुपति की मूर्ति में पशु साथ में दिखते हैं, न कि शरीर पर उत्कीर्ण रहते हैं, लेकिन ताला गांव की इस चर्चित प्रतिमा में पशु शरीर पर दिखाये गये हैं। समसामयिक प्रामाणिक जानकारी अनुपलब्ध होने से इस मूर्ति का रहस्य अनावृत नहीं हो पा रहा है।
साधारणतः शिव के सौम्य भाव वाली मूर्तियां पायी जाती हैं। परंतु रौद्र भाव की प्रतिमाएं बहुत ही कम मिली हैं। राज्य के विभिन्न स्थलों में अब तक गजारी, त्रिपुरांतर, काल भैरव, बटुक भैरव, उन्मत्त भैरव, वीरभद्र, कंकाल एवं अघोर जैसी रौद्र स्वरूप वाली मूर्तियां मिल चुकी हैं। लेकिन ताला गांव में प्राप्त मूर्ति का रौद्र स्वरूप अति विकट है। इसके समकक्ष की अन्य कोई प्रतिमा भी अब तक कहीं नहीं मिली है। प्रतिमा के अंग- प्रत्यंग भयावह होने के साथ-साथ रौद्रता को भी उजागर करते हैं। यों शिव को भूतेश भी कहा गया है। अतः प्रतिमा पर फन फैलाये नाग सर्प तथा शरीर पर अंकित गण का होना स्वाभाविक है। इस प्रतिमा को देख कर स्पष्ट होता है कि शिव के चरित्र में संहारमूलक और सृजनमूलक व्यवहार का एक साथ संजोग है। 
आकार-प्रकार की दृष्टि से भी यह प्रतिमा निराली है। यद्यपि करीब 14 फुट ऊंची एक विशाल मूर्ति विदिशा के पास नदी के अंदर से मिल चुकी है, लेकिन वह यक्ष-प्रतिमा है। 
शास्त्र के आधार पर निर्मित
ताला गांव में मिली प्रतिमा के पुरातात्विक विश्लेषण से ज्ञात होता है कि इसके निर्माण में केवल उर्वरा कल्पना शक्ति का ही सहारा नहीं लिया गया है, बल्कि मूर्तिकार द्वारा किसी शास्त्र को ध्यान में रखते हुए मूर्ति बनायी गयी है। साथ ही इसके द्वारा स्वयं के शिल्प कौशल का बखूबी इस्तेमाल किया गया है। अनुमान है कि उस समय आसपास तांत्रिक साधना का जोर रहा होगा, जिससे प्रेरित हो कर मूर्तिकार ने उपासना के लिए सौम्य रूप के बजाय रौद्र रूप वाली प्रतिमा तराशी होगी।
यह प्रतिमा ताला गांव के देवरानी मंदिर की है अथवा जेठानी मंदिर की, यह प्रश्न भी अभी अनुत्तरित है। प्रतिमा की स्थिति और उसके सुरक्षित रखे जाने की पूर्व हालत को मद्देनजर रखते हुए पुरातत्व अधिकारी यह बता पाने में सक्षम नहीं है कि प्रतिमा किस मंदिर में प्रतिष्ठित और पूजित रही होगी। उत्खनन निर्देशक के अनुसार, "आम तौर पर मूर्ति मंदिर के पास ही रखी जाती है। यद्यपि इस आकार की कोई दूसरी मूर्ति देवरानी मंदिर में नहीं मिली है, पर जेठानी मंदिर में ज्यादा मिली हैं। हालांकि रुद्र रूप शिव के गण देवरानी मंदिर की खुदाई में मिले हैं, परंतु प्राप्त प्रतिमा इस मंदिर की मुख्य मूर्ति नहीं हो सकती है।" उन्होंने यह भी कहा, "साधारणतः शिव मंदिर पूर्वाभिमुख रहता है। लेकिन जेठानी मंदिर दक्षिणमुखी है, जो कि अशुभ देवताओं के साथ संलग्र होता है। वैसे जेठानी मंदिर के वास्तु शिल्प को नये सिरे से आंकलित करने के बाद ही यह निश्चित हो पायेगा कि प्रतिमा किस मंदिर की है।" 
बहरहाल, खुदाई के द्वितीय चरण में इस प्रतिमा के खंडित हिस्से जैसे हाथ के नाखून, ऊपर का सर्प एवं पैर के पास का सर्प मिला है, जिसे एरलडाइट आदि से जोड़ दिया गया है। रसायन विशेषज्ञों के एक दल ने इस मूर्ति का परीक्षण कर उसमें आवश्यक संरक्षात्मक रसायन लगाये हैं। ताला गांव की महत्ता को देखते हुए अब इस प्रतिमा को इस स्थान पर सुरक्षित रखने का प्रबंध जरूरी हो गया है।
- दिनेश ठक्कर
(पत्रिका "धर्मयुग", मुम्बई के 25 सिंतबर 1988 के अंक में प्रकाशित)

यादें : धर्मयुग में रूद्र शिव की प्रतिमा पर प्रकाशित आलेख

बिलासपुर (छत्तीसगढ़) से करीब तीस कि.मी. दूर स्थित विख्यात पुरातात्विक स्थल ताला गांव के देवरानी मंदिर के मुख्य द्वार के समीप जनवरी के दूसरे पखवाड़े,1988 में खुदाई के दौरान रूद्र शिव की अनूठी प्रतिमा प्राप्त हुई थी। लगभग पंद्रह सौ वर्ष पुरानी यह उर्द्धरेतन प्रस्तर प्रतिमा शिव के रौद्र रूप को दर्शाती है। यह विलक्षण और द्वैत व्यंजना से परिपूर्ण है, जो कि विश्व मूर्ति कला के इतिहास में अद्भुत भी है। इस प्रतिमा पर राष्ट्रीय स्तर पर सर्वप्रथम मेरा विश्लेष्णात्मक आलेख टाइम्स ऑफ इंडिया की लोकप्रिय रही पत्रिका "धर्मयुग", मुम्बई के 25 सितम्बर,1988 के अंक में प्रकाशित हुआ था। उस वक्त "धर्मयुग" के कार्यवाहक संपादक गणेश मंत्री जी थे। यह अंक धरोहर और यादगार स्वरूप आज भी मेरे संग्रह में सुरक्षित रखा है। इसकी छाया प्रति सुधि पाठक मित्रों के लिए यहां सादर प्रस्तुत है।