अभिव्यक्ति की अनुभूति / शब्दों की व्यंजना / अक्षरों का अंकन / वाक्यों का विन्यास / रचना की सार्थकता / होगी सफल जब कभी / हम झांकेंगे अपने भीतर

गुरुवार, 30 मार्च 2017

टेढ़ा है पर हमारा है

टेढ़े मेढ़े
आड़े तिरछे
रंग विहीन
नकारात्मक
विचार भर जाते हैं
जब भीतर अपने
तब
मस्तिष्क के अतिरिक्त
सौम्य अंतःकरण भी
हो जाता है विकृत

क्षण प्रति क्षण
छटपटाती रहती हैं
नकारात्मक सोच
कुलांचे मारती है
उत्पन्न विकृतियां
कसमसाते रहते हैं
कलुषित विचार
भीतर से बाहर आने
मारक शब्द बन कर
जब आते हैं वे बाहर
तब लड़खड़ा देते हैं
स्वयं अपनी जुबान को  
लड़ाभिड़ा देते औरों को
भलीभांति वे जानते हैं
कि लड़ंत भिड़ंत होगी
कहां प्रारंभ कहां समाप्त
विकृत विचार सोचते कुछ
दिखावा करते हैं कुछ और

फिर एक दिन
भीतर की समस्त विकृतियां
झलकने लगती है चेहरे पर
वैचारिक कुरूपता छिपाने
सभी जुमलों को पिरो कर
दूसरों को सुनाती बताती है
मिर्च मसालेदार मनगढ़ंत
स्वयं की अनकही कथाएं
प्रशंसा की लत लगने पर
चारों ओर अपने पैर पसारने
प्रसार प्रचार के हथकंडों संग
मरणासन्न सी विकृतियां
शब्दों की चासनी चुपड़ कर
गढ़ने सुनाने बताने लगती है
दूसरों की भी बेबुनियाद झूठी
अनसुनी अनकही कहानियां
ताकि
विकृत हुआ चेहरा सुधर सके
अपनों के अलावा दूसरे भी
गर्व के साथ यह बोल सकें
टेढ़ा है पर हमारा है !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)


 

 


मंगलवार, 28 मार्च 2017

काँटे

काँटा
निकालता है काँटे को
अपनी तीव्र चुभन से
दर्द देते हैं दोनों ही
कँटकित शाखा को
छोड़ देने के बाद भी
चुभना नहीं छोड़ते
और
रास्ते का रोड़ा
बने रहते हैं
काँटे

जमीन
एक न एक दिन
मिला देती है
मिट्टी में काँटे को
चुपचाप कर देती है
जमींदोज़ काँटे को
माटी बना देती है
चुभने वालों को
जमीन !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार) 

सोमवार, 27 मार्च 2017

उस समय

उस समय
वादों के विरूद्ध
भड़केगा आक्रोश
अन्याय के विरूद्ध न्याय
असत्य के विरूद्ध सत्य
रेवड़ियों के विरूद्ध हाथ
चरवाहे के विरूद्ध रेवड़
मुआवजे के विरूद्ध मेंड़
बेजा चिमनियों के विरूद्ध
भड़केगी भीतर की आग

दिखाए गए अंगूठे के विरूद्ध
दिखाएगी ताकत उंगलियां
गुस्से से निकलेगा जनादेश
झेले गए समस्त दुख दर्द से
जनतंत्र की संकरी गलियां
होगी साफ सुथरी अच्छे से
उड़ने वालों के पैरों तले
जाएगी खिसक जमीन
वादों की तरह
रुलाएगा जनता का निर्णय
दिखाए गए सपनों की तरह
सुलाएगी काँटों पर सच्चाई
आएगी पीड़ा समझ सबकी
उस समय !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)  



  

शुक्रवार, 24 मार्च 2017

जीतना किसी भी तरह

जीतना
यह बाजी
सब कुछ दांव पर लगा कर
हर दांवपेंच आजमा कर
सभी मोहरे इस्तेमाल कर
लेकिन
जीतना जरूर
यदि संभव न हो तो भी
जीतना

जीतना
यदि किसी को है हराना
किसी को न हरा सको
तो भी हार न मानना
और
किसी भी तरह
यह बाजी
जीतना

जीतना
इस खेल में
नहीं बहना
खेल भावना में
खिलाड़ी हो पुराने
बखूबी सब जानते हो
अपना भला कैसे हो
प्रतिद्वंदी को हर हाल में
हराना
मंजे खिलाड़ी सिद्ध होने
मजे मौज करने कराने
अपना संकल्प पूरा करने
अपनी जिम्मेदारी बढ़ाने
अपनी जयजयकार कराने
आवश्यक है यह बाजी
जीतना

जीतना
यह बाजी
शतरंजी दिमाग दौड़ा कर
झोंक कर पूरी ताकत
सभी हथकंडे अपना कर
धन बाहु बल का साथ लेकर  
चित्त कर प्यादे घोड़े हाथी
राजा रानी को हरा कर
जीतना
जरूरी नहीं है होना नैतिक
क्योंकि
यह खेल है शुद्ध राजनैतिक
और तो और
इस चुनावी मौसम में
हवा भी है पक्ष में
चहुँ ओर चल रही है लहर
विकास की चालों के कारण
सबका साथ
फिर न मिलेगा कभी इतना
इसलिए भी
आवश्यक है यह बाजी
जीतना
किसी भी तरह !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)
 

बुधवार, 22 मार्च 2017

अपने अपने सपने

ऐसा वे कहते हैं गर्व से
कि
मुक्ति मिली बुरे दिनों से
बीत चुकी है काली रात
हुआ उम्मीदों का सवेरा
अब चैन की नींद लीजिए
क्योंकि
तुम्हें देखने हैं सपने
बहुत सारे
अच्छे भले दिनों के
अगर
कोई कामकाज न हो
तो खुली आंखों से भी
देख सकते हैं दिन में
अच्छी रातों के सपने

तुम्हें देखने हैं दिन रात
छोटे बड़े ढेरों सपने
क्योंकि
वादों की जो घुट्टी तुम्हें
खूब पिलाई गई है वह
नींद की गोलियों से भी
अधिक असरकारक है
पलक झपकते ही तुम्हें
देखने मिलेंगे कई सपने
मुफ्त सैर कराई जाएगी
सपनों के देश प्रदेश में
भूला देंगे भूख प्यास भी
दिखा कर स्वर्ग के सपने

तुम्हें वे होने न देंगे कभी
सहज शांत और स्थिर
अपने वश में वे कर लेंगे
तुम्हारा दिल और दिमाग
संवेदनाएं काबू में न रहेगी
हकीकत जैसे लगेंगे सपने
नियंत्रण से परे होगी मति
तुमने भी तो दी है सहमति
कि देख सको अच्छे सपने
सबके हैं अपने अपने सपने
जैसे चाहोगे वैसे होंगे सपने
वे तो जानते हैं हर तकनीक
सपनों को पंख लगा देने की    

तुम्हें वे कभी नहीं जगाएंगे
क्योंकि
बद से बदतर हुए हालात
देख कर दुखी हो जाओगे
बढ़ती भूख प्यास के मारे
जिंदा लाश बन जाओगे
सद्भावना का रिसता रक्त
इंसानियत के बहते अश्रु
बर्दाश्त नहीं कर पाओगे
घुट घुट कर मर जाओगे
हड्डियों के जीर्ण ढाँचे में
सांसें चलती रहे इसलिए
झूठी हमदर्दी के साथ
तुम कर दिए जाओगे
लंबी गहरी नींद के सुपुर्द !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)
 

   




 

मंगलवार, 21 मार्च 2017

मशाल बनती कविता

आसपास के घटनाक्रम
कुलबुलाहट मय माहौल
कसमसाती अनुभूति
छटपटाती अभिव्यक्ति
अपने भीतर मचे द्वन्द
मन मस्तिष्क के विचार
जब कोरे कागज़ पर
सार्थक सोद्देश्य शब्द बन कर
निकलते हैं किसी कलम से
तब आकार लेती है कविता
यदि कोई करता है उस पर
चिंतन मनन खुले दिमाग से
तो जीवंत हो जाती है कविता

मुर्दों में भी हलचल सी मचा देती    
श्मशान सी खामोशी ख़त्म होती
किन्तु
ज़िंदा लोगों की मुट्ठियों में जब  
कस कर तन जाती यह कविता
तब मशाल बन कर
प्रज्वलित होती है यह कविता !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)  

रविवार, 19 मार्च 2017

राजयोगी

एक हाथ में माला
अपने सिद्ध मनकों से
बटोर रही हैं शक्तियां
दूसरे हाथ में भाला
धारदार नुकीलेपन से
उत्पन्न कर रहा है भय
आस्था के सिर
हिल रहे हैं
पूरी सहमति के साथ
और अनास्था के हाथ
अपना सिर पीट रहे हैं  
असहमति के कारण

आस्तिक हैं आनंदित
नास्तिक हैं भयभीत
सपने दिखा रही है भक्ति
आंखें मूंदे हुए हैं भक्तगण
सपने भंग कर रही अधर्मिता
आंखें दिखा रहे हैं अधर्मीजन 

डर के मारे एकता अखण्डता   
दुबक कर बैठ गई है कोने में
निरंकुश साम्प्रदायिकता 
बौखलाए शब्दों के बाणों से
छलनी कर रही हैं
सद्भावना का सीना
फिर भी
तटस्थ हैं ध्यानस्थ योगी
मौन हैं मुखर प्रखर योगी
क्योंकि
योगी हो गए हैं राजयोगी
राजयोग भोगने के लिए
आवश्यक मानी  
तटस्थता और मौन की युति
चखना भी तो है
अपना स्वर्णिम भविष्य फल

संयोगवश नहीं बना राजयोग
गुरू की अच्छी महादशा वश
केंद्र में युति से बना राजयोग
योगी को बना दिया राजयोगी
ग्रहों की अनुकूल दृष्टि भी रही 
सुधर गई इनकी जन्म कुंडली
विरोधियों को लगी साढ़े साती
सिर से पांव तक तकलीफ देती   
जनता भविष्य के सपने देखती 

सबका साथ पाकर विकसित
महा राजयोगी और राजयोगी
साथ चल पड़े हैं नई डगर पर
साथ मिल कर कर रहे तैयार 
नए मठों के साथ नए भक्त भी    
बुन रहे हैं अब नया तानाबाना
स्व भविष्य कर रहे सुरक्षित !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)
 
       





शनिवार, 18 मार्च 2017

बहुमत कभी भी सर्वमत नहीं होता


बहुमत कभी भी सर्वमत नहीं होता
मतान्तर से उपजा यह विरोधाभास
होने नहीं देता गलतियों का आभास
बहुमत पर बहुत सारे सवाल करता
यांत्रिक षडयंत्र का परिणाम बताता
विरोधाभास भी इतना अधिक होता
कि
बहुमत कभी भी सर्वमत नहीं होता

उत्पन्न हुए विरोधाभास को केवल
मतान्तर का परिणाम न माना जाए
अपेक्षाओं के अतिरेक से आंका जाए
यह आंकलन भी करना है आवश्यक
कि
उपेक्षाओं की अधिकता है आत्मघाती  
जनाधार को सतह पर स्वयं ले आती
जनहित में भी है यह अति आवश्यक
बहुमत को सर्वमत भी होने दिया जाए

यह भी मतान्तर का ही है दुष्परिणाम
कि
अल्पमत अतीत में कभी नहीं झांकता
पराजय में छल लगता अल्पमत को
जनादेश को शिरोधार्य भी नहीं करता
सर्वमत होने के आकांक्षी बहुमत को
लोकतंत्र की विजय होना नहीं मानता
सही ठहराता हैं स्वार्थ के गठबंधन को
बढ़ जाती है नकारात्मक मानसिकता
अल्पमत बढ़ाता विरोध की गांठों को
सत्ता के लालच में महागठबंधन होता  
और
बहुमत कभी भी सर्वमत नहीं होता

सर्वमत होने बहुमत का कर्तव्य होता
कि
संविधान अनुसार स्वयं भी कार्य करे
लोकतंत्र को लोकहित में मजबूत करे
सिंहासन पर सन्यासी बैठे या गृहस्थ
सरकार संचालित योगी करे या भोगी
मुखिया के हाथ में कमंडल हो या मंडल
पहने हुए वस्त्रों का रंग चाहे जैसा भी हो
जनता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता
फर्क पड़ता जब जनता का अहित होता
असर पड़ता है जब सद्भाव समाप्त होता
मतान्तर की तरह भेदभाव भी बढ़ता
तब
बहुमत कभी भी सर्वमत नहीं होता !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)
 
     
 
 
 


   



मंगलवार, 14 मार्च 2017

फागुन में धुलते भी हैं रंग बदलते चेहरे

मदमस्त फागुन विचरता है जब वन में
दहक उठता सेमल और पलाश का रंग
लालिमा छा जाती झड़ते हुए जंगल में
झड़ी पत्तियों के ढेर में गिरा सेमल टेसू
पोछता नजर आता है विरह के आँसू

मतवाला मौसम लेता है जब अंगड़ाई
फागुनी रंगों से सराबोर आसमानी बूंदे
झकझोर देती है झड़ते हुए जंगल को
फैल जाती है मादकता भरी सौंधी सुगंध
इंद्रियों को मोहित कर देता इंद्रधनुषी रंग
द्रुत लय में आबद्ध हो जाता फाग का राग
जम कर थिरकने लग जाता अंग प्रत्यंग

जब रंगे तन मन को व्याकुल करती उमस
तब
प्रकृति के विधान के अनुसार आसमानी बूंदे
चुन लेती है रंग बदलने वाले सभी चेहरों को
और
धोकर अनावृत्त करती असली मुख मण्डल
दिखा देती है उनका नकली आभा मण्डल

इस सत्य से अवगत कराती आसमानी बूंदे
कि
मादकता उत्तेजना नहीं टिकती है देर तक
जैसा चढ़ता वैसा उतरता है फागुन का रंग
फागुन में धुलते भी हैं रंग बदलते हर चेहरे !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)



       
   
   
 
   

रविवार, 12 मार्च 2017

मिला उत्तर, प्रदेश अब हमारा है

प्रश्नों के सतत प्रहारों से मिला यह उत्तर
प्रदेश अब हमारा है
अपेक्षा से अधिक आया है यह परिणाम
परंतु
प्रश्नों को यद्दपि अपेक्षित रहेगा यह उत्तर
प्रदेश अब हम सबका है

हमने स्वयं से नहीं किए इस प्रकार प्रश्न
कि हम दे सकें कोई उत्तर
प्रदेश पर क्या जता सकेंगे कुछ अधिकार
कि उनको ही रहेगा भेदभाव करने का हक़
क्या वे सबको सपने पृथक दिखाते रहेंगे
अवसर देने में अवसरवादी तो नहीं बनेंगे  
या हाशिए पर रह कर मांगेंगे इसका उत्तर
प्रदेश क्या हम सबका है
अथवा तुष्टिकरण के कारण
हमें भी कर सकेगा संतुष्ट कभी यह उत्तर
प्रदेश अब हम सबका है

हम चाहेंगे बहुमत अब सर्वमत बन जाए
अप्रत्याशित परिणाम से प्रमाणिकता बढ़े
गलत इरादे से कोई काम नहीं होना चाहिए
कल तक जो सामने थे अब वे साथ हो जाएं
सबके साथ होना ही चाहिए सबका विकास
हमें मिलेंगे क्या समस्त प्रश्नों के सही उत्तर
कि प्रदेश में फैलेगा नहीं विद्वेष का कीचड़
आपसी भाईचारा होगा तो नहीं धुंआ धुंआ
साम्प्रदायिक बोल भड़काएंगे तो नहीं आग
अपेक्षा है प्रश्नों को खारिज करेगा यह उत्तर
प्रदेश अब हम सबका है


हमारे प्रतिप्रश्नों पर मिलता रहेगा यह उत्तर
प्रदेश अब हम सबका है
क्योंकि
आगे सुनाया जाना भी तो शेष है यह उत्तर
प्रदेश सभी अब हमारे हैं
तब फिर खड़े हो जाएंगे बहुत सारे प्रश्न
और
नए हिंदुस्तान में उत्तर पाने की उम्मीद में
हम केवल उनका मुंह ताकते रह जाएंगे !

@ दिनेश ठक्कर बापा
 (चित्र गूगल से साभार)

     
 
   
     



गुरुवार, 9 मार्च 2017

आसान नहीं सियासी सफ़र


सियासत में मुख़ालफ़त भी खूब होगी मुकाबला जो कर सको तो करो
जुम्हूरियत की क़द्र करना बेहद ज़रुरी है जो कर सको तो करो


मज़लिस में मुख़ासमत जताने बद ज़ुबान से होती है मज़म्मत
मतानत के साथ मीठी ज़ुबान से मुबाहसा जो कर सको तो करो


अक्स न चमके इसलिए मुख़ालिफ़ तो अक्सर उछालेंगे कीचड़
मुकद्दस होकर दामन अपना अगर पाक साफ जो कर सको तो करो


सियासत के सफ़र में फूल बिछे रास्तों की उम्मीद करना बेमानी है
अपने नेक क़दमों से मुश्किल राह को आसान जो कर सको तो करो


माकूल मक़ाम तक पहुँचने की खातिर खानी पड़ती हैं कई ठोकरें
रास्ते के पत्थरों को भी तराशने का काम तुम जो कर सको तो करो


इस सियासी सफ़र में अपने भी टाँग खींचते हैं हम क़दम बन कर
ख़ुदगरज़ सँगे राह को पहचान कर दरकिनार जो कर सको तो करो


मुआरिज़ को गिरा कर हर सियासतदाँ चाहता है ख़ुद ऊपर उठना
गिरे दबे कुचले बेबसों की मदद कर उसे खड़ा जो कर सको तो करो


सिंहासन का असली हक़दार बताने की जाती है ताकत की नुमाइश
खरीदी गई जमाअत के बिना अपनों को एकजुट जो कर सको तो करो  


मोमिन का चोला पहन मुलहिद भी टेकते हैं इबादतगाहों में मत्था
मफ़लूकों की दहलीज़ पर भी सजदा कर इबादत जो कर सको तो करो


सियासी हँजार में हमेशा नहीं मिलता है आफ़ताब माहताब का उजाला
जुगनुओं की रौशनी में तुम मनचाही मँज़िल हासिल जो कर सको तो करो


सिंहासन पर कब्जा करने की जुगत में जुटा रहता है हर मुदब्बिर
अवाम के दिल पर भी हुुकूमत करने की कोशिश जो कर सको तो करो





काँटों से भरा रहता है तख़्त-ए-ताज इसका दर्द सह सको तो पहनो
मुल्क को महफ़ूज रखने की खातिर जान कुर्बान जो कर सको तो करो

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)

     
 










बुधवार, 8 मार्च 2017

शक्ति सौंदर्य

कुत्सित लालसावश    
विभिन्न उपमाओं से
देह को अलंकृत कर
नारी का मूल सौन्दर्य
देख नहीं सकते कभी
निहारी है तुमने कभी
नारी की निर्मल प्रकृति
समझी है पवित्र प्रवृत्ति
देखे है पावन चटख रंग
     
अगर सोच है नकारात्मक
तो व्यर्थ है दैहिक व्याख्या
नहीं कर सकते तुम कभी
वास्तविक रूप परिभाषित
खाने सोने के उपक्रम से परे
नारी शक्ति का सच्चा सौंदर्य
देख पाओगे क्या तुम कभी ?  

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)




 






   
  

रविवार, 5 मार्च 2017

बयानी वक़्ते बद


चंद सूराख़ क्या हुए हमारी जेब में
रिश्ते सरक गए सिक्के से ज्यादा

आँखें फेर लेते हैं लोग मुफ़लिसी में
पलकों पर वे पहले बैठाते थे ज्यादा

यार रिश्तेदार दुत्कारते हैं कंगाली में
मालामाल रहे तो पुचकारते थे ज्यादा


जहर उगलते हैं अपने ही तंगहाली में
मीठा बोलते थे पहले दूसरों से ज्यादा

ख़ुशामद करते थे हमारी ख़ुशहाली में
इफ़्लास में अल्फ़ाज़ कड़वे हुए ज्यादा

इकराम करते थे लोग जेब भरी रहने में
इकराह करते हैं वे खाली जेब में ज्यादा

हर शाम सुहानी होती थी एहतिशाम में
हिस्से में है अब अंधेरा उजालों से ज्यादा

चंद झुर्रियां क्या झलकी हमारे बदन में
मोटी चमड़ी के हुए अपने गैरों से ज्यादा


उम्र क्या ढली हमारी जो इस वक़्ते बद में
कीमत नहीं रही फ़ुजूल सामान से ज्यादा

सजाया था घर का कोना कोना जवानी में
बेवजूद हुए कोने में ज़िंदा लाश से ज्यादा !
   
@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)  


 




 


शुक्रवार, 3 मार्च 2017

राजनीति की पाठशाला


अलगाववादी नारों से रंगी दीवारें
राजनीति प्रेरित पाठशालाओं की
बरगला रही हैं बौद्धिकता उनकी
परिसर बन गया सियासी अखाड़ा
दांव पेंच में उलझ गया है भविष्य  
मोहरे बना दिए गए विद्यार्थी यहां  
पसर चुका यहां देश द्रोह का जहर
मारक है विखंडता का धीमा विष
सभाओं में विलुप्त हो गया सद्भाव
बागी हो गई है आजाद अभिव्यक्ति
बदल रहे हैं अब आजादी के मायने
हथौड़ा मार रहे है ये देश भक्ति पर
हंसिए से काट रहे है ये राष्ट्रवाद को
हाशिए पर लाने तुले हैं देशप्रेम को  
पढ़ाई और ज्ञानार्जन के बदले यहां
पढ़ाया जा रहा है पाठ राजनीति का
तैयार कर रहे हैं ये दलीय कार्यकर्त्ता
गुम हो गया है लक्ष्य विद्यार्थियों का
बज गई है खतरे की घंटी अब यहां
हो गई छुट्टी एकता अखण्डता की !    

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)