(दिनेश ठक्कर)
ताला गाँव वर्तमान में अपने विशिष्ट मूर्ति शिल्प के कारण न केवल देश में बल्कि पूरे विश्व में विख्यात हो चुका है. बिलासपुर से तीस किलोमीटर दूर स्थित पुरातात्विक स्थल पर जनवरी, १९८८ के दूसरे पखवाड़े में एक अद्वितीय उर्धरेतन प्रस्तर प्रतिमा खुदाई के दौरान प्राप्त हुई है. यह देवरानी मंदिर के मुख्य द्वार के समीप सोपान की दीवार से तीन फुट दूर, ६ फुट की गहराई में मिली. लगभग १५०० वर्ष पुरानी यह प्रतिमा ९ फुट एवं ५ टन वजनी है. शिव के रौद्र रूप को दर्शाने वाली यह प्रतिमा विलक्षण और द्वैत व्यंजना से परिपूर्ण है, जो विश्व मूर्ति कला के इतिहास में भी अनूठी है.
पुरातत्व विभाग के पूर्व संचालक के.के. चक्रवर्ती के उत्खनन निर्देशन में स्थानीय पुरातत्व अधिकारी जी. एल. रायकवार एवं राहुल कुमार सिंह द्वारा देवरानी मंदिर के बाह्य भाग में ईट की बंधान देकर क्षेतिजीय खनन करवाया गया था. ११ जनवरी १९८८ से इस मंदिर के तीन तरफ ट्रेंच लेकर खुदाई शुरू की गई थी. खुदाई के दौरान प्राप्त प्रतिमा दक्षिण पूर्व की दिशा में मुंह के बल लेटी हुई थी. लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग से चैन पुली की मदद लेकर इसे बाहर निकाल कर मंदिर के समीप खडा कर दिया गया है.
उल्लेखनीय है लेमेटा स्टोन (फर्शी पत्थर) से निर्मित इस प्रतिमा के अंग प्रत्यंग जलचर, नभचर और थलचर प्राणियों जैसे बने हैं. प्रतिमा के शिरो भाग पर पगड़ीनुमा सर्प सज्जित प्रभामंडल है, जबकि कान मयूराकृति के हैं. आँखें दानव आकार की हैं. भौंह तथा नाक छिपकिली सी बनी है. मूंछ मछली से बनाई गई है, तो ठुड्डी केकड़े से. प्रतिमा की भुजाओं हेतु मगर का चयन किया गया है. हाथ के नख सर्पाकार हैं. वक्ष स्थल पर दानव मुख उत्कीर्ण है. उदर के लिए मूर्तिकार ने गण-मुख का प्रयोग किया है. उर्ध्वाकार लिंग कच्छप मुख के सदृश्य है. जंघाओं पर चार सौम्य भाव वाली मुखाकृति भी बनाई गई है.
पुरातत्व विभाग द्वारा इस प्रतिमा का काल निर्धारण मुख्यतः मूर्ति शिल्प और केश सज्जा को दृष्टिगत रखते हुए किया गया है. यह प्रतिमा गुप्त काल के तुरंत बाद की है, अर्थात छठवीं सदी के शुरूआत की. इस प्रतिमा में गुप्तकालीन शिल्प कला का प्रभाव ज्यादा प्रतीत होता है. प्रतिमा पर उत्कीर्ण केश, केश सज्जा, वेशभूषा तथा आकार-प्रकार पूरी तरह गुप्तकालीन है. (जारी)