अभिव्यक्ति की अनुभूति / शब्दों की व्यंजना / अक्षरों का अंकन / वाक्यों का विन्यास / रचना की सार्थकता / होगी सफल जब कभी / हम झांकेंगे अपने भीतर

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

रहस्य के आवरण में रूद्र-शिव की प्रतिमा - (३)

साधारणतः शिव मंदिर पूर्वाभिमुख रहता है, लेकिन जेठानी मंदिर  दक्षिणामुखी है, जो कि अशुभ देवताओं के साथ संलग्न होता है. वैसे जेठानी मंदिर के वास्तु शिल्प को नए सिरे से आंकलित करने के बाद ही यह निश्चित हो पायेगा कि प्रतिमा किस मंदिर की है. बहरहाल, खुदाई के द्वितीय चरण में इस प्रतिमा के खंडित हिस्से जैसे हाथ के नाखून, ऊपर का सर्प, एवं पैर के पास का सर्प मिला है, जिसे एरलडाईट आदि से जोड़ दिया गया है. रसायन विशेषज्ञों के एक दल ने इस मूर्ति का परीक्षण कर उसमें आवश्यक संरक्षात्मक रसायन लगाए हैं. तालागांव की महत्ता को देखते हुए अब इस प्रतिमा को इस स्थान पर सुरक्षित रखने का प्रबंध जरूरी हो गया है. (समाप्त)

-दिनेश ठक्कर
(पत्रिका धर्मयुग, मुंबई के २५ सितम्बर १९८८ के अंक में प्रकाशित)                       

रहस्य के आवरण में रूद्र-शिव की प्रतिमा - (२)

नामकरण की असमर्थता : जहाँ तक प्रतिमा के प्रमाणिक नामकरण का सवाल है, तो इस मसले पर स्वयं पुरातत्व अधिकारियों ने असमर्थता जाहिर की है. केवल अनुमान के आधार पर इस प्रतिमा का नामकरण कर दिया गया है. उत्खनन निर्देशक के.के. चक्रवर्ती ने प्रतिमा का तादात्म्य शिव के रूद्र स्वरुप से स्थापित करते हुए लकुलीश मत के साथ संबद्ध होने की संभावना व्यक्त की है. हावर्ड विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डा. प्रमोद चन्द्र ने भी इसे रूद्र शिव की प्रतिमा होने का आंकलन किया है. कुछ पुरातत्वविदों ने इसे पशुपति की मूर्ति बताया है. परन्तु इसमें भी विरोधाभास है. धर्मशास्त्रों के अनुसार, पशुओं को भी जीवात्मा के रूप में मानते हैं, जबकि पति को परमात्मा कहा गया है. पशुपति की मूर्ति में इसका मिलन है. पशुपति की मूर्ति में पशु साथ में दिखते हैं, न कि शरीर पर उत्कीर्ण रहते हैं. लेकिन तालागांव की इस चर्चित प्रतिमा में पशु शरीर पर दिखाए गए हैं. सम सामयिक प्रामाणिक जानकारी अनुपलब्ध होने से इस मूर्ति का रहस्य अनावृत्त नहीं हो पा रहा है. साधारणतः शिव के सौम्य भाव वाली मूर्तियाँ पाई जाती हैं, परन्तु रौद्र भाव की प्रतिमाएं बहुत ही कम मिली हैं. राज्य के विभिन्न स्थलों में अब तक गजारी, त्रिपुरांतर, काल भैरव, बटुक भैरव, उन्मत्त भैरव, वीरभद्र, कंकाल एवं अघोर जैसी रौद्र स्वरुप वाली मूर्तियाँ मिल चुकी हैं. लेकिन तालागांव में में प्राप्त मूर्ति का रौद्र स्वरुप अति विकट है. इसके समकक्ष की अन्य कोई प्रतिमा भी अब तक कहीं नहीं मिली है. प्रतिमा के अंग-प्रत्यंग भयावह होने के साथ साथ रौद्रता को भी उजागर करते हैं. यों शिव को भूतेश भी कहा गया है. अतः प्रतिमा पर फन फैलाए नाग सर्प तथा शरीर पर अंकित गण का होना स्वाभाविक है. इस प्रतिमा को देख कर स्पष्ट होता है कि शिव के चरित्र में संहारमूलक और सृजनमूलक व्यवहार का एक साथ संजोग है. आकार प्रकार की दृष्टि से भी यह प्रतिमा निराली है. यद्दपि करीब १४ फुट ऊँची एक विशाल मूर्ति विदिशा के पास नदी के अन्दर से मिल चुकी है, लेकिन वह यक्ष प्रतिमा है.
शास्त्र के आधार पर निर्मित : तालागांव में मिली प्रतिमा के पुरातात्विक विश्लेषण से ज्ञात होता है कि इसके निर्माण में केवल उर्वरा कल्पना शक्ति का ही सहारा नहीं लिया गया है, बल्कि मूर्तिकार द्वारा किसी शास्त्र को ध्यान में रखते हुए मूर्ति बनाई गई है. साथ ही इसके द्वारा स्वयं के शिल्प कौशल का बखूबी इस्तेमाल किया गया है. अनुमान है कि उस समय आसपास तांत्रिक साधना का जोर रहा होगा, जिससे प्रेरित होकर मूर्तिकार ने उपासना के लिए सौम्य रूप के बजाय रौद्र रूप वाली प्रतिमा तराशी होगी. यह प्रतिमा तालागांव के देवरानी मंदिर की है अथवा जेठानी मंदिर की, यह प्रश्न भी अनुत्तरित है. प्रतिमा की स्थिति और उसके सुरक्षित रखे जाने की पूर्व  हालत को मद्देनजर रखते हुए पुरातत्व अधिकारी यह बता पाने में सक्षम नहीं हैं कि प्रतिमा किस मंदिर में प्रतिष्ठित और पूजित रही होगी. उत्खनन निर्देशक के अनुसार, आम तौर पर मूर्ति मंदिर के पास ही रखी जाती है. यद्दपि इस आकार की कोई दूसरी मूर्ति देवरानी मंदिर में नहीं मिली है, पर जेठानी मंदिर में ज्यादा मिली है. हालांकि रूद्र रूप शिव के गण देवरानी मंदिर की खुदाई में मिले हैं, परन्तु प्राप्त प्रतिमा इस मंदिर की मुख्य मूर्ति नहीं हो सकती है. (जारी)                     

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

रहस्य के आवरण में रूद्र-शिव की प्रतिमा

(दिनेश ठक्कर)
ताला गाँव वर्तमान में अपने विशिष्ट मूर्ति शिल्प के कारण न केवल देश में बल्कि पूरे विश्व में विख्यात हो चुका है. बिलासपुर से तीस किलोमीटर दूर स्थित पुरातात्विक स्थल पर जनवरी, १९८८ के दूसरे पखवाड़े में एक अद्वितीय उर्धरेतन प्रस्तर प्रतिमा खुदाई के दौरान प्राप्त हुई है. यह देवरानी मंदिर के मुख्य द्वार के समीप सोपान की दीवार से तीन फुट दूर, ६ फुट की गहराई में मिली. लगभग १५०० वर्ष पुरानी यह प्रतिमा ९ फुट एवं ५ टन वजनी है. शिव के रौद्र रूप को दर्शाने वाली यह प्रतिमा विलक्षण और द्वैत व्यंजना से परिपूर्ण है, जो विश्व मूर्ति कला के इतिहास में भी अनूठी है.
पुरातत्व विभाग के पूर्व संचालक के.के. चक्रवर्ती के उत्खनन निर्देशन में स्थानीय पुरातत्व अधिकारी जी. एल. रायकवार एवं राहुल कुमार सिंह द्वारा देवरानी मंदिर के बाह्य भाग में ईट की बंधान देकर क्षेतिजीय खनन करवाया गया था. ११ जनवरी १९८८ से इस मंदिर के तीन तरफ ट्रेंच लेकर खुदाई शुरू की गई थी. खुदाई के दौरान प्राप्त प्रतिमा दक्षिण पूर्व की दिशा में मुंह के बल लेटी हुई थी. लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग से चैन पुली की मदद लेकर इसे बाहर निकाल कर मंदिर के समीप खडा कर दिया गया है.
उल्लेखनीय है लेमेटा स्टोन (फर्शी पत्थर) से निर्मित इस प्रतिमा के अंग प्रत्यंग जलचर, नभचर और थलचर प्राणियों जैसे बने हैं. प्रतिमा के शिरो भाग पर पगड़ीनुमा सर्प सज्जित प्रभामंडल है, जबकि कान मयूराकृति के हैं. आँखें दानव आकार की हैं. भौंह तथा नाक छिपकिली सी बनी है. मूंछ मछली से बनाई गई है, तो ठुड्डी केकड़े से. प्रतिमा की भुजाओं हेतु मगर का चयन किया गया है. हाथ के नख सर्पाकार हैं. वक्ष स्थल पर दानव मुख उत्कीर्ण है. उदर के लिए मूर्तिकार ने गण-मुख का प्रयोग किया है. उर्ध्वाकार लिंग कच्छप मुख के सदृश्य है. जंघाओं पर चार सौम्य भाव वाली मुखाकृति भी बनाई गई है.
पुरातत्व विभाग द्वारा इस प्रतिमा का काल निर्धारण मुख्यतः मूर्ति शिल्प और केश सज्जा को दृष्टिगत रखते हुए किया गया है. यह प्रतिमा गुप्त काल के तुरंत बाद की है, अर्थात छठवीं सदी के शुरूआत की. इस प्रतिमा में गुप्तकालीन शिल्प कला का प्रभाव ज्यादा प्रतीत होता है. प्रतिमा पर उत्कीर्ण केश, केश सज्जा, वेशभूषा तथा आकार-प्रकार पूरी तरह गुप्तकालीन है. (जारी)
                                              

धर्मयुग में रूद्र शिव की प्रतिमा पर आलेख

बिलासपुर (छत्तीसगढ़) से तीस किलोमीटर दूर स्थित ताला गाँव में देवरानी मंदिर के मुख्य द्वार के समीप वर्ष १९८८ के जनवरी माह के दूसरे पखवाड़े में खुदाई के दौरान प्राप्त रूद्र शिव की प्रतिमा पर राष्ट्रीय स्तर पर सर्वप्रथम मेरी विशेष रपट पत्रिका धर्मयुग के २५ सितंबर, १९८८ के अंक में प्रकाशित हुई थी. उसकी फोटो कॉपी यहाँ प्रस्तुत है.      

ताला में रूद्र शिव की प्रतिमा के संग

रूद्र शिव की यह अद्वितीय उर्धरेतन प्रस्तर प्रतिमा बिलासपुर (छत्तीसगढ़) से तीस किलोमीटर दूर स्थित ताला गाँव के देवरानी मंदिर के मुख्य द्वार के समीप  वर्ष १९८८ में जनवरी के दूसरे पखवाड़े में खुदाई के दौरान प्राप्त हुई थी. करीब १५०० वर्ष पुरानी यह प्रतिमा ९ फुट ऊंची है.  शिव के रौद्र रूप को दर्शाने वाली यह प्रतिमा विलक्षण और द्वैत व्यंजना से परिपूर्ण है, जो विश्व मूर्तिकला के इतिहास में भी अनूठी है. फर्शी पत्थर से निर्मित इस प्रतिमा के अंग-प्रत्यंग जलचर, नभचर और थलचर प्राणियों जैसे बने हैं. इस प्रतिमा में गुप्तकालीन शिल्प कला का प्रभाव ज्यादा प्रतीत होता है. फरवरी, १९८८ में प्रतिमा का अवलोकन करते हुए मेरे साथ वरिष्ठ पत्रकार मित्र प्राण चड्डा, नथमल शर्मा और सीतेश द्विवेदी.