विकास की वेदी पर
चढ़ती है सदा
वृक्षों की बलि
प्रगति का मंत्रोच्चारण
हरियाली की आहुति
देने पर
भड़क उठती है
विनाश की ज्वाला
तब
हर पत्ता हर टहनी
मांगते हैं
अपनी मौत का हिसाब
यही है प्रकृति का गणित
चलती जब कुल्हाड़ी आरी
वृक्ष की जड़ों पर
तब
वृक्ष के साथ
आदमी भी
अलग होता है
अपने अस्तित्व से
दम तोड़ते हैं दोनों
पहले वृक्ष
फिर आदमी
प्रकृति की मार
पड़ती है सब पर भारी
जड़ों से कट जाने के बाद
मरा वृक्ष
लावारिस शव सदृश्य
लेटा रहता है जमीन पर
सुनाता है मौत की गाथा
फूल फल छांव देने वाला
मरा वृक्ष
तरसता है
श्रद्धांजलि के फूल के लिए
सोचता है
क्यों भोगना पड़ा ये फल
तपती दोपहरी में
धूप का कफ़न ओढ़े
वंचित रहता है
आदर की छांव के लिए
शव बना वृक्ष बांट जोहता हैं
चार मित्र कंधों की
आशा करता है
सम्मान से अर्थी निकलने की
सत्य ही गत्य हैं
राम नाम सत्य है
सरीखे शव यात्रा शब्दार्थों की
लेकिन
दुर्गति ही भाग्य में लिखी है
अब यह विडम्बना है
गति बढ़ गई विकास की
लकड़ियां बची नहीं है
चिता के लिए
चाहे मरा वृक्ष हो या आदमी
अब राख होना होगा
विद्युत शव दाह गृह में
चिंता है सबको प्रगति के लिए
यही सत्य अंतिम संस्कार है
यही वृक्ष संहार का परिणाम है
संकट आएगा सांस लेने का
अभाव होगा छांव हवा का
तब
समझेंगे महत्व वृक्ष का
चिता जलाने वालों को
चिंता होगी वृक्ष की
तब
फिर होगा पौधारोपण
भ्रष्टाचार का
हरियाली की आड़ में
संहारकों की जेब
हो जाएगी हरी
होता रहेगा आक्रमण
वृक्षों पर
क्रम जारी रहेगा वृक्ष संहार का
- दिनेश ठक्कर "बापा"
(पेंटिंग- गूगल से साभार, बाकी फोटो अश्विनी ठाकुर द्वारा)