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गुरुवार, 26 जून 2014

वृक्ष संहार














विकास की वेदी पर
चढ़ती है सदा
वृक्षों की बलि
प्रगति का मंत्रोच्चारण
हरियाली की आहुति
देने पर
भड़क उठती है
विनाश की ज्वाला
तब
हर पत्ता हर टहनी
मांगते हैं
अपनी मौत का हिसाब
यही है प्रकृति का गणित

चलती जब कुल्हाड़ी आरी  
वृक्ष की जड़ों पर
तब
वृक्ष के साथ
आदमी भी
अलग होता है
अपने अस्तित्व से
दम तोड़ते हैं दोनों
पहले वृक्ष
फिर आदमी
प्रकृति की मार
पड़ती है सब पर भारी

जड़ों से कट जाने के बाद
मरा वृक्ष
लावारिस शव सदृश्य
लेटा रहता है जमीन पर
सुनाता है मौत की गाथा
फूल फल छांव देने वाला
मरा वृक्ष
तरसता है
श्रद्धांजलि के फूल के लिए
सोचता है
क्यों भोगना पड़ा ये फल
तपती दोपहरी में
धूप का कफ़न ओढ़े
वंचित रहता है
आदर की छांव के लिए

शव बना वृक्ष बांट जोहता हैं
चार मित्र कंधों की
आशा करता है
सम्मान से अर्थी निकलने की
सत्य ही गत्य हैं
राम नाम सत्य है
सरीखे शव यात्रा शब्दार्थों की
लेकिन
दुर्गति ही भाग्य में लिखी है


अब यह विडम्बना है
गति बढ़ गई विकास की
लकड़ियां बची नहीं है
चिता के लिए
चाहे मरा वृक्ष हो या आदमी
अब राख होना होगा
विद्युत शव दाह गृह में
चिंता है सबको प्रगति के लिए
यही सत्य अंतिम संस्कार है
यही वृक्ष संहार का परिणाम है

संकट आएगा सांस लेने का
अभाव होगा छांव हवा का
तब
समझेंगे महत्व वृक्ष का
चिता जलाने वालों को
चिंता होगी वृक्ष की
तब
फिर होगा पौधारोपण
भ्रष्टाचार का
हरियाली की आड़ में
संहारकों की जेब
हो जाएगी हरी
होता रहेगा आक्रमण
वृक्षों पर
क्रम जारी रहेगा वृक्ष संहार का

- दिनेश ठक्कर "बापा"
   (पेंटिंग- गूगल से साभार, बाकी फोटो अश्विनी ठाकुर द्वारा)







सोमवार, 23 जून 2014

अभिव्यक्ति पर आघात












पढ़ाई के बाद कोई काम मिला नहीं
तो कलम थाम ली
मालूम था इतना आसान नहीं
दुर्दिन को कलमना

रखना था स्याही से सरोकार
अंदेशा भी था स्याह होने का
सामने लाना था शब्दों से सच
खतरा था सुर्खियां बनने का

सुधारना था समाज वाक्यों से
जानता था असामाजिक होना
कठिन था सामाजिक व्याकरण
संबल मिला सच्ची पंक्तियों से

गलत व्यक्ति का सही चेहरा
मुखौटे से उसे अनावृत्त करना
प्रलोभन संग व्यक्तिगत होना
यह कार्य है बड़ा जोखिम भरा

आदमी को इंसान बनाना
आसान नहीं है इतना
रगों में इंसानियत का रक्त
चाहता है यह विषम वक्त  

शक्ति की अस्मत लुट जाना
निःशक्त का घर उजड़ जाना
शब्दों का निःशब्द हो जाना
दुखद है कलम का कुंद होना

अभिव्यक्ति पर आघात बढ़ना
फिर भी कलम मुखर रखना
जान हथेली पर लेकर
लिखना होगा निडर होकर

-दिनेश ठक्कर "बापा"
 (चित्र : गूगल से साभार)




 




  

शनिवार, 21 जून 2014

किताबों का क्रंदन















ग्रंथागार केवल गोदाम नहीं
किताबों का
और प्रदर्शन स्थल भी नहीं
चाहे अपना हो या सरकारी
इसे कमतर आंकना नहीं

किताबों से भरी है अलमारी
कुछ जान कर खरीदी
और कुछ आदतन
किसी ने भेंट स्वरूप दी
उपकृत होती रही अलमारी

अपना सच्चा मित्र बताया
किताबों को
और स्वयं को भरमाया
कुछ पन्ने पढ़ कर
अलमारी का भार बढ़ाया

सबके बीच बौद्धिक बनाया
किताबों ने
लिखने बोलने योग्य बनाया
पुरस्कार सम्मान दिलाया
फिर भी इनको श्रेय न दिया

समय संग धूल चढ़ती रही
किताबों पर
दीमकों की फौज बढ़ती रही
चूहों का आहार बनती रही
उपेक्षा का दंश झेलती रही

सहेजने की जरूरत न समझी
किताबों को
त्यौहार आए तो सफाई सूझी
ग्रंथागार की
फिर भी ये समस्या न सुलझी

छत से टपकता रहता है पानी
बरसात का
भीग कर किताबों के निकलते
आंसू देख
क्यों नहीं होती हैं ये आंखे नम

बापा रहे ना रहे अस्तित्व रहेगा
किताबों का
अगली पीढ़ी को जरूर मिलेगा
ज्ञान का खजाना
ग्रंथालय उन्हें इंसान बनाएगा

-दिनेश ठक्कर "बापा"
  (चित्र : गूगल से साभार)



  

रविवार, 15 जून 2014

बापूजी का बनाया घर









बापूजी का बनाया घर
मेरा ही हक़ नहीं इस पर
यदा कदा सांप आ जाते
रहने का हक़ जता जाते  
आस्तिन में हैं सांप रहते
इसलिए नहीं लगता भय

रहते यहां मेंढक निर्भय
बढ़ रहा उनका परिवार
वे नहीं हैं बरसाती मेंढक
उनका व्यवहार है पृथक
टर्राना उनको न सुहाता
वे भी नहीं बनना चाहते
मेरी तरह कुएं के मेंढक
पसंद नहीं है उछलना
जमीन पर रहना भाता
   
बिल्लियों का आशियाना
मौक़ा पाते दूध पी जाना
ठंड में रजाई में दुबकना
फिर भी मनुष्यों से कम
अपनी चालाकी दिखाना
कभी अपनापन जताना
ये घर नहीं लगता बेगाना

कभी चूहे देख मुंह फेरना
अचंभित करता है याराना
चूहे बिल्ली का साथ रहना
शत्रु भाव को भी परे रखना
मनुष्यों को है शिक्षा लेना
 
बढ़ती जा रही छिपकली
दीवारें बनी ठौर ठिकाना
टंगी दीवार घड़ी की तरह
हर वक्त की याद दिलाती
कीड़े मकोड़ों को दबोचना
दबंगों सा अहसास कराती
शिकार पर नजरें गड़ाना
मौका मिलते लील जाना
दुष्टों जैसी बन गई प्रवृत्ति  
सतर्क रहने की सीख देती

ये दिन भी शेष था देखना
अब मीठा बोलने पर भी
निकल आतीं हैं चीटियां
नमक अदा करने पर भी
उमड़ पड़ती हैं चीटियां
अच्छे दिन आने पर भी
चीटियों के पर निकलना
पैदा करती कई भ्रांतियां
नियति है इनके बीच रहना
अपनी जमीन से जुड़े रहना

नहीं आसान ये दुख भुलाना
सड़क चौड़ीकरण का बहाना
घर के सामने पेड़ का कटना
चिड़ियों का बसेरा उजड़ना
न सुनना उनका चहचहाना
वे थी आनंददायक पड़ोसी
आंगन में भी होता था आना
दुखद है स्मृति शेष हो जाना

-दिनेश ठक्कर "बापा"
  (चित्र : गूगल से साभार) 

बुधवार, 11 जून 2014

हम हैं उम्मीदों के रखवाले

हम हैं उम्मीदों के रखवाले
सुनेंगे सबके दर्द भरे नाले
विकास करेंगे हम मतवाले
देश को हैं आगे बढ़ाने वाले

इधर बैठे या फिर बैठे उधर
हम चलेंगे सामूहिकता पर
हमें भरोसा नहीं संख्या पर
सबका भला करेंगे मिल कर
हम हैं उम्मीदों के रखवाले....

आशाओं को है पूरा करना
कसौटी पर है खरा उतरना
सिर ऊंचा कर आगे बढ़ना
सीना तान कर है चलना
हम हैं उम्मीदों के रखवाले....

अब हर हाथ को काम मिले
गरीबों का चूल्हा जरूर जले
लाचारों को भी शिक्षा मिले
आओ गांवों का जीवन बदलें
हम हैं उम्मीदों के रखवाले....

मजदूर किसान का हो भला
आंसू पोंछने का मौका मिला
आलोचना से है संबल मिला
मिट्टी का कर्ज चुकाने चला
हम हैं उम्मीदों के रखवाले....

अच्छाई के पथ पर हम चलें
बुराइयों को किनारे कर लें
भाईचारे के साथ गले मिले
हम हैं उम्मीदों के रखवाले....

-दिनेश ठक्कर "बापा"
  (चित्र : गूगल से साभार)