अभिव्यक्ति की अनुभूति / शब्दों की व्यंजना / अक्षरों का अंकन / वाक्यों का विन्यास / रचना की सार्थकता / होगी सफल जब कभी / हम झांकेंगे अपने भीतर

मंगलवार, 29 मार्च 2016

पतझड़ में झड़ते हुए पत्ते

झड़ रहे हैं सूखे पत्ते
बारी बारी
इस पेड़ के
उस पेड़ के
शाखाओं से बिछड़ कर
जड़ों में समा रहे हैं झड़े पत्ते

पतझड़ के इस निष्ठुर मौसम में
मैं सुन रहा हूं सूखे पत्तों का रूदन
मैं सुन रहा हूं गर्म हवा की हंसी
वह इन दिनों उखाड़ रही हैं सांसें
कब्र सजा रही है गिराए पत्तों की
अश्रुपूरित हैं आंखें
इस पेड़ की
उस पेड़ की
और
गा रहे हैं वे रोते हुए विरह के गीत

उग रहे हैं अब नए सिरे से नए पत्ते
बारी बारी
इस पेड़ पर
उस पेड़ पर
सज्जित, हर्षित हो रही हैं शाखाएं
छा रही है हरियाली
पेड़ों के सिर से लेकर पांव तक
फल फूल रहा है
जड़ों का आशीर्वाद

मैं सुन रहा हूं
बरसने वाले बादलों का वादन    
मैं सुन रहा हूं
बारिश में भीगी हवा का गायन
राग वर्षा में आबद्ध
सुरीले सुर ताल से
झूम उठे हैं हरिया कर
हर पत्ते
जवां हो रहे हैं नए पत्ते
इस पेड़ के
उस पेड़ के
और
गा रहे हैं वे झूमते हुए खुशी के गीत

इधर
हौले हौले
आ रहा है बुढ़ापा
इस पेड़ पर
उस पेड़ पर
आ रही है झुर्रियां
तने हुए तनों पर
सूख रही हैं शाखाएं
अब पत्तों के साथ




उधर
गर्म हवा
और
तेज धूप
गरम कर रही है उनका लोहा
वार के लिए तैयार है कुल्हाड़ी
इस पेड़ को
उस पेड़ को
काट दिया जाएगा प्रहार से
अलग कर दिया जाएगा    
उनको उनकी ही जड़ों से
बारी बारी !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)

         






         




सोमवार, 28 मार्च 2016

आहत भावनाएं

इस संवेदनशील समय में
दुखी हैं गुरुघंटाल
क्योंकि
कुछ दिनों से
हो गए हैं मजाकिए गंभीर
हो गए है वे सचेत
अपने से बड़े मसखरों के प्रति
नकल में अकल लगाना
अब सुहाता नहीं है उन्हें
खतरे से खाली नहीं है यह
हास्य व्यंग्य को रोते देखना
समझदारी लगती नहीं उन्हें

मजाकियों की सजगता से
आहत हुई है भावनाएं
गुरूघंटालों की
हो गई है उन्हें असहनीय
मजाकियों की सहनशीलता
इसमें भी लग रही है साज़िश
प्रबल विरोधियों की उन्हें

उधर
सब देख-सह रहा है ऊपर वाला
लीलाबाज गुरूघटालों को
सशंकित है वह
कहीं उस पर भी न लग जाय
असहिष्णु होने का आरोप
इसीलिए
भौंडी नकल उतारने वाले गुरुघंटाल
खुद बन गए हैं बहुत बड़े कलाकार
बाहुबली हो गए हैं स्वयंभू अवतार
कुर्सी पर बैठाने हो गए हैं मददगार !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)


नया साल, पुराने जख़्म

नया साल
आता है
हर बार
फिर
बीत जाता है
यूं ही
छीन लेता है
पुरानी तारीखें
और
दे जाता है
नई तारीखें
भूख मिटाने के लिए

नया साल
आते ही
धनी छतों पर
रोशनी बढ़ जाती है
पिछली तारीखें भी
यहां जश्न मनाती हैं
नया कैलेण्डर भी
पुराने कैलेण्डर संग
हमप्याला हो जाता है
और
नई तारीखें
सिखा देती हैं
शोषण के नए तरीके

नया साल
आते ही
हमेशा की तरह
निर्धन छतों पर
अंधेरा गहरा जाता है
पिछली तारीखों के
पुराने जख्मों पर
नई तारीखें
नमक छिड़क देती है
पुराने कैलेण्डर की मानिंद
नया कैलेण्डर भी
भूख प्यास की मियाद
और बढ़ा देता है
बेबस आंखों में
बेरहम समय
छलकते रहता है
आंसू बन कर
साल भर !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)

गुरुवार, 10 मार्च 2016

वतन की खातिर बोल सको तो बोलो

गुस्से से लाल हैं वतन के दुश्मन
दहशतगर्द आकाओं की मौत पर
जिंदा हैं अब भी उनकी हैवानियत
इसे बेख़ौफ़ मिटा सको तो बोलो

मुल्क का बहुत गरम है माहौल
बगावती जुबां उगल रही है आग
झुलस रहा है अवाम का अमन चैन
इस आग को बुझा सको तो बोलो

सच बोलने से तकलीफ तो होगी
इसके बावजूद बोल सको तो बोलो
वे लोग आमादा हैं जुबां काटने पर
अपना मुंह खोल सकते हो तो बोलो

दुश्मनों के कई हैं कच्चे झूठे चिट्ठे
इसे सच्चाई से खोल सको तो बोलो
उनके चाहने से बदलेगी नहीं हकीकत
भीतरी आवाज सुन सकते हो तो बोलो

यहां हैं जितने गुस्से से हुए लाल मुंह
उतनी हो रही हैं इन दिनों दोगली बातें
सच्चाई बयां करता मेरा मुंह बंद करा कर
सिर उठा कर सच बोल सकते हो तो बोलो

चौतरफा मचा हुआ है यहां कुतर्कों का शोर
गद्दारों की इस भीड़ में खुद को बुलंद कर
तर्कों के साथ आवाज उठा सको तो बोलो
दुश्मनों को मुंहतोड़ जवाब दे सको तो बोलो

खरीद फ़रोख्त के इस सियासी बाजार में
हर कोई चाहता बोलना फायदे मुताबिक़
नफा नुकसान की सोच से ऊपर उठ कर
वतन की खातिर बोल सकते हो तो बोलो !

@ दिनेश ठक्कर बापा  
(चित्र गूगल से साभार)




 
 
 


सोमवार, 7 मार्च 2016

आस्तीन के सांप


देश और समाज के कंटकों, दुश्मनों,
आतंकियों को शक्तिशााली बनानेे वाले
उनको अपना मोहरा बनाने वाले
स्वार्थ के लिए उनकी सहायता करने वाले
उनकी दुर्गति और मौत का मातम मनाने वाले
असल में हैं वे आस्तीन के सांप

वे डंसते हैं
देश और समाज की एकता, अखंडता, सौहार्द को
वे लगातार उगलते हैं
जहर अलगाव और आतंक का
वे महसूस करने लगे हैं
कि, वे हो गए हैं महा विषधर
बढ़ गई है उनकी महत्वाकांक्षा
बौरा गया है तन-मन झूठा सम्मान पाकर
अब वे होना चाहते हैं सर्वत्र पूजित
स्वार्थी आकाओं के गले का हार बन कर
वे चाहते हैं अमृत पीना
अपने भीतर का विष उगल कर
वे चाहते हैं समृद्ध होना
कृत्रिम जन आस्था से लिपट कर
लेकिन यह सब उनका मुगालता है

सच तो यह है
कि, जब वे
सियासी सपेरों के कब्जे में होंगे
तब तोड़ दिए जाएंगे
निर्ममता से उनके विषैले दांत
वे कैद कर दिए जाएंगे
गुलामी के पिटारे में
वे बना दिए जाएंगे
पालतू जीव जन प्रदर्शन के
तब वे केवल
स्वार्थ की बीन के आगे
फन उठा कर
फूंफकार कर
अपना सर्प-धर्म निभाएंगे
और
अपने स्वार्थी आकाओं की भूख मिटाएंगे !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)

शनिवार, 5 मार्च 2016

तवा गरम है सेंक लो रोटी


कुर्सी के भूखे आपस में जुट गए
स्वार्थ का चूल्हा जलाने के लिए
गिले शिकवे भूल गले मिल गए  
दुश्मनी छोड़ कर हाथ मिला लिए
आग लगाने हथकंडे अपना लिए
देशद्रोह की कुल्हाड़ी हाथों में लिए      
भविष्य का हरा पेड़ काटने लग गए
आजादी का चमन उजाड़ने लग गए
बली बनाने लगे बकरा बलि के लिए
आग लगाई तवा गरम करने के लिए

बदली में लाल सूरज की राह देखने लगे
धुंध में भी धूप की उम्मीद करने लगे  
काली घटाओं से सूरज जब बाहर आया
परछाई में कद लम्बा देख भ्रम हो गया
खुद को खलनायक से नायक बना पाया
तिरंगा लेकर देशभक्ति का नारा लगाया
बोलवचनों से आम आदमी को भरमाया
सियासी जमीं में नियोजित कदम बढ़ाया
चुनावी फसल काटने हेतु हंसिया उठाया
कुर्सी की भूख मिटाने ईंधन अन्न जुटाया

स्वार्थ के चूल्हे में अब भड़क उठी है आग
चूल्हे के लिए जुबां भी उगलने लगी आग
तवा गरम है सेंक लो रोटी
बलि के बकरे की खा लो बोटी बोटी
कुर्सी की भूख मिटा लो तोंद है मोटी
लोकतंत्र की तंग गलियां हैं बहुत छोटी
ज्यादा नहीं चल पाओगे तुम चालें खोटी
हिसाब चुकता करेगी मेरे देश की माटी !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)



 



 





 



 

 

गुरुवार, 3 मार्च 2016

मध्यम वर्ग की दुर्दशा

सत्ताधारियों की बदनीयत से
मध्यम वर्ग की नियति है 
त्रिशंकु बने रहने की
अर्थ रक्त पिपासु टोपीबाजों का
आसान शिकार बन गया है
अशक्त निहत्था मध्यम वर्ग
टैक्स महंगाई का बोझ ढोते ढोते
टूट गई है कमर उसकी
अब वह न घर का रहा न घाट का

सत्ता के भूखे सेंक लेते हैं अपनी रोटी
उसके गरम तवे पर
बैठते ही कुर्सी पर
निर्ममता से फेर देते हैं पानी
उसके चूल्हे और उम्मीदों पर
चला देते हैं सरकारी कैंची
उसकी जुबाँ और जेब पर
विकास के नाम पर करने भरपाई
भ्रामक जुमलों से देकर दुहाई
छीन ली जाती जोड़ी हुई पाई पाई
फिर गृहस्थी की दरकी दीवार पर
कील में टँगी रह जाती है
राहत और सुख चैन की अपेक्षाएं

मध्यम वर्ग पर मार चौतरफा है
महंगाई का दुरूह मार्ग पार करने
अर्थव्यवस्था के अंधे खूनी मोड़ पर
छोड़ दिया जाता उसे बेबस अकेला
प्रावधानों और कटौती के अवरोधक
धीमी कर देते हैं गति जीवन यात्रा की
यदि वह गंतव्य तक पहुँच गया
तो अपनी पीठ थपथपा लेते हैं सत्ताधारी
अन्यथा उसके सिर फोड़ देते हैं ठीकरा

मध्यम वर्ग की दुर्दशा है
कि उसकी सुनने वाला कोई नहीं
सियासी दांवपेंच में फंस गया है वह
सत्ताधारियों से निरंतर होती उपेक्षाओं से
लोकतंत्र के हाशिए में चला गया है वह
कड़वे अनुभव से हो रही है समाप्त
उसके गृहस्थ जीवन की मिठास

मध्यम वर्ग की विसंगति है
कि उसका बुढ़ापा आने पर
लग गई है नजर शातिर गिद्धों की
उसके भविष्य की निधि पर
उसके ताउम्र बचत के निवाले पर
तैयारी है झुण्ड में झपट कर नोंच खाने की
फिर यही गिद्ध आम चुनाव के वक्त
शांति के कबूतर बन कर
चुगेंगे दाना उसकी मंझोली मुँडेर पर
पेट भर जाने पर
बहुमत मिल जाने पर
उड़ जाएंगे ये कुनबे के साथ
और
आशियाना बना लेंगे
ऊँची आलीशान मुंडेर पर !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)