चंद सूराख़ क्या हुए हमारी जेब में
रिश्ते सरक गए सिक्के से ज्यादा
आँखें फेर लेते हैं लोग मुफ़लिसी में
पलकों पर वे पहले बैठाते थे ज्यादा
यार रिश्तेदार दुत्कारते हैं कंगाली में
मालामाल रहे तो पुचकारते थे ज्यादा
जहर उगलते हैं अपने ही तंगहाली में
मीठा बोलते थे पहले दूसरों से ज्यादा
ख़ुशामद करते थे हमारी ख़ुशहाली में
इफ़्लास में अल्फ़ाज़ कड़वे हुए ज्यादा
इकराम करते थे लोग जेब भरी रहने में
इकराह करते हैं वे खाली जेब में ज्यादा
हर शाम सुहानी होती थी एहतिशाम में
हिस्से में है अब अंधेरा उजालों से ज्यादा
चंद झुर्रियां क्या झलकी हमारे बदन में
मोटी चमड़ी के हुए अपने गैरों से ज्यादा
उम्र क्या ढली हमारी जो इस वक़्ते बद में
कीमत नहीं रही फ़ुजूल सामान से ज्यादा
सजाया था घर का कोना कोना जवानी में
बेवजूद हुए कोने में ज़िंदा लाश से ज्यादा !
@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें