अभिव्यक्ति की अनुभूति / शब्दों की व्यंजना / अक्षरों का अंकन / वाक्यों का विन्यास / रचना की सार्थकता / होगी सफल जब कभी / हम झांकेंगे अपने भीतर

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

कोणार्क का अकेला घोड़ा















समय के मारक प्रहार से
हो चुका है मरणासन्न  
कोण के अर्क का रथ
धूमिल हो गई है आभा
तेजस्वी सौंदर्य की
ठंडी हो गई है ऊर्जा
अनवरत गमन की
विध्वंसकों की चाबुक से
कालकवलित हो गए
छह घोड़े
साथ छोड़ गया सारथी
अरूण
हो रहा है असमय अस्त
कोणार्क
खंडित रथ के पहियों ने भी
अलग बना ली है पहचान
और अकेला छोड़ दिया है
इकलौते बचे घोड़े को
कोणार्क का अकेला घोड़ा
शोक संतप्त है
अब अपने अकेलेपन से
अपंग होकर जूझ रहा है
स्वयं अपने अस्तित्व से

क्या इसीलिये नरसिंह तुमने
कोण के सूर्य को
पत्थरों से रथारूढ़ कराया था
कि आस्था मोम की तरह
कभी यूं ही पिघल न जाये
किंतु नरसिंह तुम यह भूल गए
कि राज विद्वेष की तपन
आस्था को पिघला देगी
और फिर हुआ भी ऐसा
यदाकदा विद्वेषी मनुष्य
पत्थर दिल बन कर
श्रद्धा मार्ग से करते रहे विमुख
कोणार्क के रथ को
खंड खंड करते रहे आस्था को
व्यथित सदियों ने भी देखा है
विद्वेषी मनुष्य को पत्थर बनते
इसके बाद भी क्या यही कहेंगे
कि कोणार्क के पत्थरों की भाषा
अच्छी है मनुष्यों की भाषा से

कोणार्क का अकेला घोड़ा
नहीं कर सका है विस्मृत
अपने अतीत की गति को
सप्त अश्व युक्त रथ के पहिए
सातों दिवस बारहों मास
सहायक थे गतिशीलता में
उदित मध्यान्ह अस्त सूर्य
ऊर्जित रहते रथारूढ़ होकर
देवदासियों की नर्तन मुद्राएं
प्रेमी युगल की काम क्रियाएं
देव, गंधर्व, जीव की अवस्थाएं
गूढ़ भावार्थ देती रही रथ को
काला पहाड़ की क्रूरताएं
कारण बनी रथ विखंडन की
शिखर छत्र पृथक किए गए  
रथच्युत किया कोणार्क को
आसंदी में रेत पत्थर भरे गए
रथ रक्षार्थ नव ग्रह बेबस हुए
अपनी ही रक्षा में विफल हुए
पूर्ण ग्रहण लगा कोणार्क को
तरस रहा है वह मोक्ष के लिए

कोणार्क का अकेला घोड़ा
अतीत की छाया से है हताश
वर्तमान की उपेक्षा से निराश
भविष्य की दशा से है आक्रांत
बिरंची नारायण बिना टूटा रथ
अब और उसे नहीं देखा जाता
रथ के ध्वंसावशेष की वेदना
अब और उससे नहीं सही जाती
वह जान गया है श्रद्धा का मार्ग
अब कोणार्क के हिस्से में नहीं है
आस्था के फूल अब पत्थर बन गए हैं
वह जान गया है सारथी अरूण
पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर के सिंह द्वार समक्ष
स्पर्शी स्तम्भ पर अनाथ बैठा है
नाथ का संग साथ पाने वह असमर्थ है
वैभव वापसी की स्तुति असफल है
नहीं मिल रहा मोक्ष प्राप्ति का कोई संकेत
वह जान गया है कोण का सूरज
अब कोणार्क लौटना नहीं चाहता है
कोणार्क का अकेला घोड़ा
अपने अकेलेपन से दुःखित है
वह आशंकित है
कि किसी सांझ, सूर्यास्त होते ही
उसका जीवन भी हो जाएगा अस्त !

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
     ( तस्वीरें : दिनेश और प्रीति ठक्कर )



सोमवार, 4 अगस्त 2014

कहीं दूर गगन की छांव में

राग रागिनियों की थी वो बेला  
उनके संग आया सुरों का रेला
पीछे छोड़ गए वे यादों का मेला
ऊपर वाले ने ये कैसा खेल खेला

आए थे वे जमीं पर खुद रोते हुए
चले गए वे जग को हंसाते हुए  
जीवन की उलझन छिपाते हुए
गीत जीवंत वे कर गए गाते हुए

याद आते तो गाती है हर धड़कन
ह्रदय को होता सुरों पर अभिमान
सुन कर स्वस्थ हो जाता तन मन
रगों में प्रवाहित होती सुरीली तान

खिलंदड़ चेहरे ने दर्द खूब छिपाए
हाथ की लकीरों ने कई भेद दबाए
अनकही दास्तां भी साथ छोड़ गए
विधि के विधान को कौन पढ़ पाए

आंसुओं से सींचा खुशी का तराना
सुन कर उसे खुश होता है जमाना
महफिल में झूम उठता है दीवाना
गीतों में चाहता हर कोई खो जाना

कह रहे हैं सिसकते हर साज
तेरे बिना जीना दुश्वार है आज
उखड़ी उखड़ी सी सांसें सुरों की
तान थम सी गई है तरानों की

सरगम की उदास बगिया में
सुगंध नहीं मिलती है फूलों में
भौंरों ने छोड़ दिया है मंडराना
कलियों को न भाता है खिलना

कहीं दूर गगन की छांव में
यादों के साज की संगत में
गा रहे हैं वे अकेले अकेले
सुन रहे हैं चांद तारे अलबेले  

उस आभासी गगन के तले
न गम मिले न आंसू निकले  
उन्हें अब प्यार प्यार ही मिले
सूरज की पहली किरण मिले !

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(चित्र : गूगल से साभार)

शनिवार, 2 अगस्त 2014

मरते नहीं हैं कभी प्रेमचंद

मरते नहीं हैं कभी
प्रेमचंद
जीवित रहते हैं सदा
प्रेमचंद
सच्चे शब्दार्थों में
निःस्वार्थ कलम में
उत्पीड़ित देह में
शोषित पात्रों में
आक्रांत बस्तियों में
सतत जागृत रखना हैं
शब्द साधकों को
प्रेमचंद
अपने सार्थक सृजन में
बोध कराना है अक्षरों में
प्रेमचंद
होने के अपने सही मायने
अभिव्यक्ति की अनुभूति
शब्दों की व्यंजना
अक्षरों का अंकन
वाक्यों का विन्यास
रचना की सार्थकता
होगी सफल जब कभी
हम झांकेंगे अपने भीतर
ह्रदय से होंगे एकाकार
प्रेमचंद की आत्मा से
तब पुनः दिखेंगे सृजन में
प्रेमचंद

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
     (चित्र : गूगल से साभार) 

फिर कब आओगे रफी












अकेले अकेले कहां चले गए
रफी
सुरों को बेसहारा क्यों कर गए
रफी
राग रागिनियों को क्यों रूला गए
रफी
गाते सुनते आंखों में उतर आए
रफी
आंसू बन कर तुम छलक गए
रफी
छलकते आंसू भी मोती बन गए
रफी
यादें अपनी छोड़ गए गाते हुए
रफी
ढूंढ रहा है जमाना तुम्हें रोते हुए
रफी
सुर ताल प्रतीक्षारत हैं पूछते हुए
फिर कब आओगे
रफी
सरगम ने जब तुम्हारे गीत सुनाए
रफी
साज भी जब संग संग गुनगुनाए
रफी
नग़मों में अक्स तुम्हारे उभर आए
रफी
यूं भुला ना पाएंगे वक़्त के पहरुए
रफी

जब भी ख्यालों में तुम आए
रफी
मौसिक़ी में तुम ही नजर आए
रफी
वो समा हम ना भुला पाए
रफी
गायिकी को गुलज़ार कर गए
रफी
ढूंढती ग़मगीन निगाहें बुलाए
रफी
चाहने वालों को बहुत याद आए
रफी
गाने वाले दर्द में डूबे गीत गाए
रफी
साजिंदे सिसकता साज सुनाए
रफी
रोज पुरानी राहों से आवाज दिए
रफी
फिर कब आओगे
रफी

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
     (चित्र : गूगल से साभार)