अभिव्यक्ति की अनुभूति / शब्दों की व्यंजना / अक्षरों का अंकन / वाक्यों का विन्यास / रचना की सार्थकता / होगी सफल जब कभी / हम झांकेंगे अपने भीतर

मंगलवार, 30 सितंबर 2014

हम रेशम के कीड़े

स्वार्थ के शहतूती पत्ते खाकर
कब तक बने रहेंगे हम
रेशम के कीड़े
अपनी मन-मज्जा से
कब तक स्वयं के लिए
बुनते रहेंगे आवरण हम
कब तक चलेगी प्रक्रिया
पिल्लू से कोया बनने की
कब तक भीतर फंसे रहेंगे
स्व निर्मित तंतु कोश में
कब छुटकारा पाएंगे हम
मोहक इन्द्रियों की कैद से

क्यों स्वयं को जकड़े हैं हम
मोह माया के मारक रेशे से
क्यों इतने आसक्त हैं हम
इस मायावी आवरण से
क्यों तोड़ देते नहीं हैं हम
झूठे सांसारिक बंधन को
क्यों भूल गए हैं हम
जीवन की उपयोगिता को
क्यों इतने विरक्त है हम
मुक्ति के मार्ग से
क्यों भटक गए हैं हम
जीवन के सत्य पथ से

कहां किसके हाथ है
रेशमी सांसों की डोर      
नहीं जानते हैं
रेशम के कीड़े
कहां तक लिपटते रहना है  
अनभिज्ञ हैं
रेशम के कीड़े
कहां तक मृत्यु को बुनना है
नहीं जानते हैं
रेशम के कीड़े
कहां क्यों कब जैसे प्रश्न जाल से
आबद्ध हैं
रेशम के कीड़े
आत्मघाती प्रश्नों पर अनूत्तर हैं
रेशम के कीड़े  

जीवन की सार्थकता तज कर
मन मज्जा से बनाए गए
कालग्रस्त कोया आवरण में
अपने ही तागों से बुन लेते हैं
स्वयं के लिए रेशमी कफ़न
रेशम के कीड़े
जीवित रहते उसे ओढ़ लेते हैं
और इसी में दम घुट जाता है
अंततः तड़प कर मर जाते हैं
रेशम के कीड़े

दुष्परिणाम से बचना है तो
रेशमी कर्म बंधन को तोड़ कर
बनना होगा तितली हमें
तब उड़ सकेंगे मुक्त होकर
किन्तु समझ नहीं पाते हम
तितली होने के मायने
समय रहते कोश मुक्त होकर
नहीं उड़ेंगे तो
मार दिया जाएगा निर्ममता से
गर्म पानी में डूबा कर
नोंच लिया जाएगा रेशमी तन
रेशम के कीड़े की मानिंद
फिर भी क्या बने रहेंगे हम ऐसे
रेशम के कीड़े

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(चित्र : गूगल से साभार)  
 
 
   

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

परिंदे को आसमां बुलाए

परिंदे को आसमां बुलाए
उड़ जा दरख़्त बेगाने हुए
पत्ता पत्ता भी खुदगर्ज़ हुए
उड़ना होगा आज़ादी के लिए

शाख से साथ छूटता जाए
जड़ों से नाता टूटता जाए
हवा का रूख बदलता जाए
उड़ना होगा आज़ादी के लिए

बुरे वक्त में अपने हुए पराए
पर कतरने पर आमादा हुए
दाना पानी के लिए तरसाए
उड़ना होगा आज़ादी के लिए

देर न कर वक्त बीता जाए
आसमां पुकारे बांहें फैलाए
लंबी उड़ान का हौंसला लिए
उड़ना होगा आज़ादी के लिए

ज़मीं को रूख़सत करते हुए
बेमानी रिश्तों को तोड़ते हुए
बेदर्द जहां से कूच करते हुए
उड़ना होगा आज़ादी के लिए

परिंदे को अब चैन न आए  
जिंदगी के पंख फड़फड़ाए
आसमां की पुकार सताए
उड़ना होगा आज़ादी के लिए

अब वह जा रहा है हंसते हुए
देख रहा जमाने को रोते हुए
उड़ा है वह नई उम्मीदें लिए
आसमां खड़ा है फूल बिछाए

सूरज चांद सितारे भी आए
मिल कर सबने गले लगाए
जन्नत के इंद्रधनुष बनाए
खुश है वह आसमां ओढ़े हुए

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
     (चित्र : गूगल से साभार)

बुधवार, 17 सितंबर 2014

साबरमती आश्रम के अश्रु

साबरमती आश्रम का ह्रदय कुंज
निवास रहा है सत्य अहिंसा का
साक्षी रहा है सत्य के प्रयोग का
स्थल रहा है संबोधन विशेष का
मोहनदास करमचंद गांधी से
महात्मा गांधी बनने की धड़कन
झकझोरती रही ह्रदय कुंज को
स्वराज्य पाने की प्रतिज्ञा
आधार बनी थी दांडी कूच की
सफल वापसी की प्रतिज्ञा
गर्वित करती रही ह्रदय कुंज को
स्वराज्य प्राप्ति के कर्मयोग ने
मिलन केंद्र बनाया ह्रदय कुंज को
सत्य अहिंसा के हाथ से चला था
स्वराज्य का चरखा
किंतु अब मौन है यह चरखा
ह्रदय कुंज की धड़कनें
शांत हो गई हैं बंद कमरे में
आदर्श संदेश और स्मृतियां
शेष रह गई हैं प्रदर्शनी तक
अपनी ही खादी के ताने बाने में
तड़प रही है
महात्मा गांधी की आत्मा
राजनीति के चरखे से
अब काते जा रहे हैं स्वार्थ के सूत
देश का नमक अदा करने में
मारी जा रही है दांडी
सत्य के प्रयोग का पक्षधर
साबरमती आश्रम का ह्रदय
अब द्रवित है झूठी गांधीगिरी से
महात्मा की आत्मा का रूदन देख
अनवरत बह रहे हैं
साबरमती आश्रम के अश्रु

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
     (चित्र : प्रीति ठक्कर)


 















शनिवार, 6 सितंबर 2014

धवल जीवन का ब्लैक बोर्ड

सरस्वती को पूजने वाला शिक्षक
पिस रहा है आज
दो विषम पाटों के बीच
सिद्धांत और स्थितियों के मध्य
घर्षण कर रहा है उसे मर्माहत
भविष्य गढ़ते गढ़ते
वर्तमान होने को है कालातीत
सबके ज्ञान चक्षु खोलते खोलते
बंद होने को आतुर हैं उसकी आंखें
मिट्टी को आकार देने वाले हाथ
अब जीवन से कर रहे हैं दो दो हाथ
गरीबी में भी पाठ पढ़ाते पढ़ाते
अब झुक गई है उसकी कमर
महंगाई की मार झेलते झेलते
अब टूट गई है उसकी कमर

बचपन में माँ से मिले संस्कार
बुढ़ापे में भी बढ़ा रहे हैं हिम्मत  
ईमानदारी है बुढ़ापे की लाठी
प्रेरणादायी है इसकी कद काठी
रगों में संचारित है सेवा का रक्त
शिक्षा मंडी से नहीं रखा सरोकार
ज्ञान के व्यापार का नहीं है पक्षधर
तराजू से स्वयं को रखा है दूर
तुला नहीं इसीलिये अतुलनीय हैं

लक्ष्मी के उल्लू बिना मांगे
आज भी देते रहते हैं उसे सलाह
लक्ष्मी की पूजा करो
और अपना उल्लू सीधा करो
घी निकालना है तो उंगली टेढ़ी करो
छप्पर के मकान में रहने वाले
सरस्वती पूजक शिक्षक
लक्ष्मी की पूजा करो
फिर ऊपर वाला देगा छप्पर फाड़ के
परंतु सिद्धांतवादी शिक्षक
लक्ष्मी के उल्लुओं से है असहमत
धवल जीवन के ब्लैक बोर्ड पर वह
नहीं लिखना चाहता है काला अध्याय
उसे स्वीकार है उसका कोरा रह जाना
मिट्टी को आकार देते हुए
उसे स्वीकार है मिट्टी में मिल जाना
लक्ष्मी की पूजा करते हुए
उसे स्वीकार नहीं है पत्थर बन जाना

जो उसके भीतर है वही बाहर भी है
वह फलों से लदे वृक्ष की मानिंद है
जड़ से उखाड़ दिए जाने के बाद भी
पीढ़ियों को अपनी ताकत दे जाएगा
झंझावतों से सतत जूझने के बाद भी
अनुभवों से सबक लेना सीखा जाएगा
गुरू और गोविंद में फर्क बता जाएगा
साल में एक बार याद करने पर भी
गुरू घंटालों को वह मंच दे जाएगा

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
     (चित्र : गूगल से साभार)