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शनिवार, 13 जुलाई 2013

हिंदी सिनेमा में नृत्य : नाच? कवायद? कसरत? (भाग - 3)

 एक ओर नृत्य निर्देशक शास्त्रीय नृत्यों से कन्नी काटे हुए हैं, तो दूसरी तरफ नई नायिकाएं इसे झमेला मानती हैं। दरअसल फिल्म इंडस्ट्री की नई पौध शास्त्रीय नृत्य के प्रशिक्षण को पर्याप्त महत्व नहीं दे रही हैं। फिल्मी लटके- झटके के मोह जाल में वह उलझी हुई है। सेक्सी काया और चेहरे को देख कर निर्माता- निर्देशक उन्हें साइन कर लेते हैं। यदि उन्हें अभिनय नहीं आता है तो कुछ वक्त के लिए प्रशिक्षक के पास भेज देते हैं। परंतु नृत्य के नाम पर नई नायिकाएं पूरी तरह- डांस- मास्टर पर निर्भर हो जाती हैं। ऐसी परिस्थितियों में वे भी नई पीढ़ी की तरह डांस करवा कर छुट्टी पा लेते हैं।
सितारा देवी का जमाना इसके ठीक विपरीत था। तब निर्देशक पूरे प्रशिक्षण के बाद ही हीरो- हीरोइन पर शास्त्रीय नृत्य और लोक नृत्यों का फिल्मांकन करवाते थे। सितारा देवी स्वयं कथक नृत्य का पर्याय हैं। 77 वर्ष की उम्र होने के बावजूद उनमें सोलह साल वाली नृत्यांगना की नृत्य- चपलता है। आज भी वे लगातार तीन घंटे तक कथक कर दर्शकों को मोह लेती है। फिल्मों में इनकी प्रतिभा हर समय नए अंदाज में सामने आई। उन्होंने कई फिल्म में काम किया। सभी तरह की भूमिकाएं निभा कर उन्होंने लोगों को चकित कर दिया। फिल्म लेख पूरी तरह शास्त्रीय नृत्य पर आधारित थी। इसमें सितारा देवी के अलावा सुरैया और मोतीलाल थे। सितारा देवी के नृत्य इस फिल्म के प्राण थे। के. आसिफ की फिल्म फूल और महूबब खान की फिल्म रोटी में भी उनका यादगार नृत्य रहा। जंगली- नृत्य में उन्होंने विशिष्ट तरीके से शास्त्रीय नृत्य पिरोया था। किशोर साहू की फिल्म बिजली में सितारा देवी ने तो गजब ढाया था। उन्होंने कथक के अलावा भरतनाट्यम, मणिपुरी और सामान्य फिल्मी नृत्य इतने बढिय़ा किए थे कि थिएटर में दर्शक सिक्के की बौछार कर देते थे। वे जिस फिल्म में काम करती थीं, नृत्य निर्देशन उनका ही होता था। मां की भूमिका करने में भी वे माहिर समझी जाती थीं। चेतन आनंद की फिल्म अंजलि में जिस कुशलता से उन्होंने निम्मी की मां का पात्र साकार किया था, वह बेहद सराहनीय था। हलचल उनकी आखिरी फिल्म थी, जिसमें रशियन बैले किया और करवाया था। वे गोपीकृष्ण की मौसी हैं। आज उनके टक्कर की बहुआयामी हीरोइन फिल्म इंडस्ट्री में न होने का अफसोस जरूर होता है। सितारा देवी का घरेलू नाम धन्नो है, लेकिन इंडस्ट्री में आने पर महबूब खान ने उनका नाम सितारा देवी रख दिया।
वैजयंतीमाला ने भी फिल्म इंडस्ट्री में अपने नृत्य और अभिनय के लिए बहुत नाम- दाम कमाया है। हर फिल्म में उनकी कोशिश होती थी कि उनका नृत्य पिछली फिल्म से बेहतर हो। युगल नृत्यों में वे तुलनात्मक रूप से ज्यादा सतर्क रहती थीं। अपने साथी से अच्छा नतीजा देने में वे संपूर्ण ताकत झोंक देती थीं। गोपीकृष्ण जैसे नृत्यकारों के मुकाबले में वे खरी उतरती थीं। जहां भी वे नृत्य की शूटिंग करती थीं, वहां देखने वालों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। चाहे वे स्टुडियों में हों या आउटडोर, जब उनका नृत्य पूरा होता था तो वहां मौजूद लोग तालियां बजा कर उनका सम्मान करते थे। मद्रास में भी ऐसा ही हुआ था, जब वे फिल्म फूलों की सेज की शूटिंग करने गई थीं। उनकी एक और खासियत यह रही कि शूटिंग के समय स्टेपिंग कठिन लगने के बावजूद उसमें किसी तरह का संशोधन करने का आग्रह वे नृत्य निर्देशक से नहीं करती थीं। फिल्म आम्रपाली में कई स्टेपिंग उनकी सीमा से बाहर थे। लेकिन घर में वे घंटों रियाज करती थीं, ताकि शूटिंग के वक्त आसानी हो। इतना ही नहीं, शॉट होने से काफी पहले वे स्टुडियों पहुंच कर रिहर्सल शुरू कर देती थीं। उनकी यह लगन देखकर खुद नृत्य निर्देशक चौंक उठते थे। बिरजू महाराज जैसे नृत्याचार्य उन्हें निर्देशित करने को लालायित रहते थे। कारण कि उस समय वैजयंतीमाला की फिल्म का नृत्य निर्देशक कहलाना गौरव की बात थी, किंतु वैजयंतीमाला से तालमेल बैठाना आसान नहीं था। इसलिए फिल्म छोटी सी मुलाकात से बिरजू महाराज जैसे नृत्य निर्देशक को हटाना पड़ा था। बिरजू महाराज अक्सर अपने घराने के ही पदन्यास और हस्तमुद्राओं का इस्तेमाल करवाते थे। किसी अन्य घराने की शैली को वे पसंद नहीं करते थे। अगर हीरोइन उनके आदेश से हट कर कुछ करती थीं या उसके नृत्यों में दूसरे घराने का प्रभाव दिखता था तो उसे झगड़ा हो जाता था। फिल्म छोटी सी मुलाकात में वैजयंतीमाला से इसीलिए उनकी तू तू - मैं मैं हो गई थी।
नृत्यों में निपुण संध्या ने भी अल्प समयावधि में अपना पृथक स्थान बना लिया था। वी. शांताराम जैसे निर्माता निर्देशक का साथ मिलना उनके लिए सौभाग्य रहा। एक और एक मिल कर ग्यारह हो गए। फिल्म जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली का नृत्य आज भी कला- रसिकों के जेहन में है। ऐसा नृत्य संयोजन भी देखने को नहीं मिलता है। आगे चल कर राजश्री ने अपने स्तर पर इस परंपरा को कायम रखने का प्रयास भी किया। फिल्म गीत गाया पत्थरों ने का नृत्य उनके लिए मील का पत्थर रहा। 
मधुबाला को इंडस्ट्री में उम्दा अभिनय के लिए जाना जाता था। वैसे नृत्य में भी उनकी पकड़ अच्छी थी। चालू नृत्यों में भी वे मधुरता ले आती थीं। शास्त्रीय नृत्यों के प्रति उनका लगाव भी था। वे चाहती थीं कि श्रेष्ठ कथक नृत्यांगना बनें। इसलिए गोपीकृष्ण से गंडा बंधवा कर वे उनकी शिष्या बनी थीं। के. आसिफ की फिल्म मुंगले आजम में उनकी प्रतिभा उजागर हुई थी। इसके नृत्य निर्देशक लच्छू महाराज थे। लेकिन उनके अस्वस्थ होने पर गोपीकृष्ण और सितारा देवी ने "प्यार किया तो डरना क्या ..." और आखिरी गाना "ये रात है ऐसी मतवाली ..." का नृत्य निर्देशन किया था। गोपीकृष्ण ने "प्यार किया तो डरना क्या .." गाने में मधुबाला को खूबसूरती से तो नचाया, साथ ही खुद भी झूमर के नीचे चक्करदार परन लेकर इसमें शास्त्रीयता का पुट दिया था।
पुरानी फिल्मों में कुक्कू का नाम भी शिखर पर था। उनकी अदाओं के कारण परंपरागत फिल्मी नृत्यों में जान आ जाती थी। मीनाकुमारी अभिनय साम्राज्ञी तो थीं ही, उनके नृत्यों में सौम्यता भी रहती थी। कमाल अमरोही की फिल्म पाकीजा में उनके हर मुजरे शास्त्रीयता का भरपूर रंग लिए हुए थे। "ठाड़े रहियो ओ बांके यार..." में प्रस्तुति लाजवाब थी। इसके बाद तो फिल्मों में मुजरा अंग प्रदर्शन करने का बहाना बन गया। हालांकि फिल्म उमराव जान में रेखा इसकी अपवाद रहीं। यदि कहा जाए कि फिल्म पाकीजा के बाद शास्त्रीयता के साथ उमराव जान (मुजफ्फर अली की फिल्म) में मुजरा दिखाया गया तो यह अतिश्योक्तिपूर्ण न होगा।
बेहतर अभिनेत्री होने के अतिरिक्त अच्छी नर्तकी होने का सुफल आशा पारेख को भी मिला। उनकी लगभग हर फिल्म का नृत्य प्रसिद्ध हुआ। कथक में महारत हासिल करके उन्होंने गोपीकृष्ण की शिष्या बनना पसंद किया था। लोक नृत्यों में भी वे पारंगत  रहीं। वे फिल्म की भूमिकाओं के अनुरूप नृत्य करती थीं। नृत्य निर्देशक जैसा कहते थे वे वैसा कर दिखाती थीं। बिरजू महाराज उनकी प्रतिभा के कायल थे। अगर वे मुम्बई में मौजूद होते थे तो वे आशा पारेख के सेट पर जरूर जाते थे, ताकि उनका शास्त्रीय नृत्य देख सकें। पहली बार बिरजू महाराज का उनसे आमना सामना फिल्म जिद्दी के सेट पर हुआ था। आशा पारेख ने इसमें अल्हड़ युवती की भूमिका निभाई थी। "रात का समां झूमे चंद्रमा..." गीत का फिल्मांकन देखने के बाद बिरजू महराज ने गोपीकृष्ण से पूछा था "क्या आशा पारेख यहीं हैं ?"
फिल्मों में शास्त्रीय नृत्य को प्रमुखता दिलाने में स्वप्न सुंदरी हेमा मालिनी का योगदान भी उल्लेखनीय रहा है। दक्षिण भारत से आने वाली हीरोइन में उनका नाम नृत्य में शीर्ष पर है। भरतनाट्यम की वे दक्ष नृत्यांगना हैं। प्रत्येक नृत्य निर्देशक उनकी तारीफ करता है। जब उन्हें पता लगता था कि फिल्म की हीरोइन हेमा हैं तो उनका काम आधा हो जाता था। क्योंकि वे पदन्यास तुरंत सीख लेती थीं। कोई भी स्टेप हेमा मालिनी को जटिल नहीं लगते थे। फिल्म महबूबा में दरबार वाला गीत "गोरी तेरी पैजनिया..." को हेमा मालिनी आज भी बार-बार देखना पसंद करती हैं। इस समय भी वे नृत्य के प्रति समर्पित हैं। दूरदर्शन पर प्रसारित उनका धारावाहिक नुपूर इसका प्रमाण है। जब भी वक्त मिलता है वे नृत्य का स्टेज कार्यक्रम अवश्य देती हैं। विदेश में भी वे कई बार शो कर चुकी हैं।
दक्षिण भारत से 1982 में मुंबई आई श्रीदेवी शास्त्रीय नृत्य का जानना जरूरी मानती हैं। एक दशक में उन्होंने अपनी नृत्य प्रतिभा से सबको मोह लिया है। यश चोपड़ा की फिल्म चांदनी के एक म्यूजिक पीस में उनका शास्त्रीय नृत्य बेहद मनोहारी था। उनकी खासियत है कि सामान्य फिल्मी नृत्य भी इस अंदाज से पेश करती हैं कि उसमे आकर्षण आ जाता है। फिल्म नगीना, मि. इंडिया, रूप की रानी चोरों का राजा इसका उदाहरण हैं। दक्षिण की जयाप्रदा का नाम भी इस सूची में आता है। वह भी भरतनाट्यम की अच्छी नृत्यांगना हैं। फिल्म सरगम से ही उन्होंने सबको अपनी ओर आकर्षित कर लिया था। नृत्य निर्देशकों से वे आग्रह करती हैं कि उनका कोई शास्त्रीय नृत्य फिल्म में डाल दीजिए। चालू डांस में भी वे कुछ स्टेपिंग क्लासिकल से लेती हैं। रागिनी और पद्मिनी ने भी नृत्यों के लिए खासा नाम कमाया था।
मीनाक्षी शेषाद्रि तो भरतनाट्यम की स्टेज डांसर हैं। इसके अलावा वे कई अन्य शास्त्रीय नृत्यों में भी पारंगत हैं। मध्यप्रदेश शासन के गरिमामय नृत्य आयोजन खजुराहो महोत्सव में वे शिरकत कर चुकी हैं। सुभाष घई की फिल्म हीरो में उनकी शास्त्रीय स्टेपिंग देखने लायक थी। माधुरी दीक्षित के नृत्यों में भी कई दफा शास्त्रीयता की झलक मिलती है।
सुदृढ़ आत्मबल के लिए सुधा चंद्रन का नाम इंडस्ट्री में फख्र के साथ लिया जाता है। अपाहिज होने के बावजूद फिल्म नाचे मयूरी में उनका नृत्य बेजोड़ था। यह फिल्म भी नृत्य प्रधान फिल्मों के इतिहास में प्रमुखता से शामिल की जाएगी। इसके नृत्य निर्देशक गोपीकृष्ण फिल्म की कामयाबी का श्रेय सुधा चंद्रन को ही देते हैं। इस फिल्म की शूटिंग के समय एक भी ऐसा स्टेप नहीं था, जिस पर नृत्य करने से सुधा ने मजबूरीवश इंकार किया हो। कठिन से कठिन स्टेप उन्होंने इस ढंग से कर दिखाए कि गोपीकृष्ण भी हैरान रह गए थे। (जारी)
- दिनेश ठक्कर 
(एक्सप्रेस स्क्रीन, मुम्बई के 3 दिसंबर 1993 के अंक में आवरण कथा बतौर प्रकाशित)   

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