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रविवार, 21 जुलाई 2013

देवरानी-जेठानी मंदिर : लापरवाही की परत तले दबे सौंदर्य स्मारक


देवरानी-जेठानी मंदिर युगल मंदिर हैं, जो अलग- अलग शिल्प परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये दोनों मंदिर ऐतिहासिक ग्राम तल्हाटी मंडल (ताला गांव) में मिट्टी के टीलों की सफाई और उत्खनन के बाद प्रकाश में आये थे। पर्याप्त संरक्षण एवं समुचित रखरखाव के अभाव में इन मंदिरों के भग्रावशेषों का रहा- सहा शिल्प-सौंदर्य भी नष्ट हो रहा है, जबकि ताला गांव का देवरानी मंदिर तो शासन द्वारा घोषित छत्तीसगढ़ के दस प्रमुख पुरातात्विक संरक्षित स्मारकों में से एक है। 
पुरातत्वविदों के मतानुसार, देवरानी मंदिर छठी शताब्दी के पूर्वार्द्ध तथा जेठानी मंदिर छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में निर्मित हुए हैं। यद्यपि काल- निर्धारण के संदर्भ में अब भी भ्रांतियां व्याप्त हैं। एक पुरातत्व अधिकारी का कहना है कि जेठानी मंदिर, देवरानी मंदिर से पहले बना है। दाहिने पार्श्व पर स्थित देवरानी मंदिर अब शिखर विहीन है, जबकि बायीं ओर का जेठानी मंदिर पूरी तरह ढह गया है।
उत्तराभिमुख देवरानी मंदिर वस्तुतः जयेश्वर शिव का मंदिर हैं। इसकी गणना गुप्त काल के एक दुर्लभ मंदिर के रूप में की जाती है। साथ ही इसे देश के शिव मंदिरों में एक विलक्षण मंदिर की संज्ञा दी गयी है। ईंट पत्थरों के सम्मिश्रित वास्तुशिल्प का यह एक अनूठा उदाहरण है। इस मंदिर के ललाट बिंब में शिव के किरात रूप का उल्लेख मिलता है। यह रूप महाकवि भारवि के संस्कृत काव्य किरातर्जुनीयम् में वर्णित भी है। मंदिर के प्रवेश-द्वार के बायें पार्श्व पर भित्तियों में शिव-पार्वती और कौरव-पांडव का चौपड़ प्रसंग भी उत्कीर्ण है। लेकिन शनैः शनैः अब यह हिस्सा क्षरण का शिकार होता जा रहा है और आकृतियां क्षत-विक्षत हो रही हैं। 
इस मंदिर में छत नहीं होने के कारण हवा-पानी का भी विपरीत असर पड़ रहा है। ऊपर से सरकार की लापरवाही शिल्प- सौंदर्य को मटियामेट करने को आमादा है। आज तक देवरानी मंदिर में शेड की व्यवस्था नहीं की गई है। इसका प्रतिकूल प्रभाव यह है कि मंदिर के आंतरिक भाग की प्रतिमाओं पर काई जम गयी हैं। प्रतिमाओं के कुछ अंग खंडित भी हो गये हैं। प्रतिमाओं पर निरंतर धूल- मिट्टी जमने के कारण उनके स्वरूप बिगड़ते जा रहे हैं। मंदिर के क्षैतिज स्तंभ के अंदर की ओर उत्कीर्ण शतदल कमल भविष्य में सुरक्षित रह पायेगा, इसकी भी उम्मीद कम है। अब तो शतदल कमल की पंखुड़ियों में बनी अभिषेक- नृत्यरत 108 नारी आकृतियां भी क्षरित हो रही हैं। पिछले एक वर्ष के भीतर इस मदिर के प्रमुख द्वार के बायें पार्श्व में उत्कीर्ण शार्दुल मुख क्षरण की चपेट में आ गया है। उसकी नासिका खंडित हो गयी है। दायें पार्श्व में उत्कीर्ण शार्दुल मुख पर भी क्षरण के लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं। 
मंदिर के दायें-बायें स्तंभों के मध्य भाग में उत्कीर्ण गंगा-यमुना की आकृति भी प्रभावित हो रही है, जबकि यह देवरानी मंदिर की मुख्य विशेषताओं में से एक हैं। मंदिर के द्वार एवं पाषाण स्तंभों पर तराशे गये कलात्मक बेलबूटे भी क्षरण नहीं झेल पा रहे हैं। मंदिर के सामने एक पेड़ के नीचे भी कुछ दुर्लभ मूर्तियां यों ही पड़ी हुई हैं। छांव होने के कारण यह जगह मवेशियों की आरामस्थली भी है। यहां गंदगी का आलम भी है।
देवरानी मंदिर के बाहर हुई खुदाई के दौरान दायें सोपान के पार्श्व में गणेश की आसनस्थ प्रतिमा भी मिली है, जो क्षरित हो रही है। साथ ही मंदिर का पीठ भी उत्खनन से दृष्टिगोचर हुआ है, जिसकी सुरक्षा जरूरी है। ध्वस्त जेठानी मंदिर भी कमोवेश उपेक्षा भोग रहा है। दक्षिणमुखी इस मंदिर की नींव का ऊपरी भाग वर्गाकार है। अब भी इस मंदिर का गर्भ गृह स्पष्ट दिखता है। दक्षिण दिशा की सीढ़ियों के दोनों ओर अलंकृत पाषाणों के विशाल स्तंभ टूटे हुए दबे पड़े हैं। निचले भाग में पुरुष आकृतियां उत्कीर्ण हैं। हाथ टेके हुए पुरुष की एक विलक्षण प्रतिमा उपेक्षित पड़ी है। इस मंदिर के सामने नर्तकियों की चार खंडित प्रतिमाएं पत्थरों के टूटे स्तंभों के साथ खुले आसमान तले पड़ी हुई हैं। ये प्रतिमाएं गंदगी से सनी हुई हैं। खुदाई में निकली प्रतिमाएं तथा कलावशेषों का ढेर समीपस्थ निषादराज मंदिर के सामने लगा कर रख दिया गया है। इनके हाल भी बेहाल है।
इन पुरा-संपदाओं को एक स्थल पर सुरक्षित रखने के लिए सरकार द्वारा ताला गांव में संग्रहालय स्थापित किये जाने की कोई पहल नहीं की गयी है। मात्र एक चौकीदार के पद की स्थापना कर दी गयी है। अब तो यहां से ध्वंसावशेष भी चोरी होने लगे हैं। यहां पर्यटन की बेहद संभावनाएं हैं। 
- दिनेश ठक्कर
(टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप की पत्रिका "धर्मयुग", मुंबई के 3 अप्रैल 1988 के अंक में प्रकाशित)

शनिवार, 20 जुलाई 2013

यादें : धर्मयुग में ताला गांव के देवरानी-जेठानी मंदिर पर प्रकाशित आलेख

छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध पुरातात्विक स्थल ताला गांव के देवरानी-जेठानी मंदिर पर आधारित मेरा विश्लेष्णात्मक आलेख टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप की लोकप्रिय रही पत्रिका "धर्मयुग" के 3 अप्रैल 1988 के अंक में प्रकाशित हुआ था। उस वक्त धर्मयुग के कार्यवाहक संपादक श्री गणेश मंत्री थे। यह अंक आज भी मेरे संग्रह में धरोहर और यादगार स्वरूप सुरक्षित रखा है। बहरहाल, इस आलेख में मैंने शिखर विहीन देवरानी मंदिर की प्राचीन शिल्प कला की विशेषताओं, उसके भग्नावशेष और दुर्लभ प्रतिमाओं की उपेक्षापूर्ण हालत तथा ध्वस्त जेठानी मंदिर पर प्रकाश डाला था। कुछ पुरातत्वविदों के मुताबिक़, देवरानी मंदिर छठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध और जेठानी मंदिर छठवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में निर्मित हुआ था। हालांकि इनके काल निर्धारण के सन्दर्भ में आज भी भ्रांतियां व्याप्त है।खंडित देवरानी मंदिर शासन द्वारा प्रमुख संरक्षित पुरातात्विक स्मारकों में से एक है।                          

रविवार, 14 जुलाई 2013

हिंदी सिनेमा में नृत्य : नाच? कवायद? कसरत? (अंतिम)

 ए ग्रेड से लेकर सी ग्रेड की फिल्मों में सोलो डांसर का पहले बेहद महत्व माना जाता था। अच्छा नृत्य जानने वाली डांसर के लिए अलग से उस पर गीत फिल्माएं जाने का चलन भी था, जो अब करीब  करीब खत्म हो गया है। दक्षिण की भरतनाट्यम-कुशल किशोरवय की बहनों साई, सुब्बलक्ष्मी के नृत्य की मांग भी एक समय की खास मांग हुआ करती थी। दर्शकों को फिल्म चोरी चोरी में उनके "मनभावन के घर जाए गोरी ..." और फिल्म आजाद में "अपलम चपलम ...." गीत में उनके नृत्य याद होंगे। 
उसके बाद मधुमती का स्थान अग्रणी समझा जाता है। ठाणे में उन्होंने पांच साल तक कथक और आठ साल तक भरतनाट्यम का प्रशिक्षण लिया। फिर आगे की तालीम गुरु चंद्रशेखर से ली। छोटी उम्र से ही वे स्टेज शो करने लगी थी। इसे देख कर ही निर्माता धीरु भाई देसाई ने उन्हें फिल्म राजा हरिशचंद्र के लिए साइन किया था। इसमें उन्होंने एक अप्सरा का नृत्य किया था। यह 1958-59 की बात है। उन्होंने बताया कि वैजयंतीमाला की नृत्य प्रधान फिल्में देखकर ही मैं इस लाइन में आई थी। हीरालाल, मोहनलाल, गोपीकृष्ण पी.एल. राज मेरे खास गुरुओं में से हैं।  मधुमती ने करीब ग्यारह सौ फिल्मों में नृत्य किया है। वे बताती हैं फिल्म तलाश विदेश फिल्मोत्सव में गई थी। तब वहां "तेरे नयना तलाश करके ..." नृत्य गीत को काफी पसंद किया गया था। फिर इसकी डांस कटिंग को संग्रहालय में रख लिया गया। फिल्म मेरे हुजूर के नृत्य गीत "झनक झनक तोरी बाजे पायलिया..." भी बेहद हिट हुआ था।
मधुमती के पति और निर्माता मनोहर दीपक भी विख्यात लोक नर्तक हैं। वे ही हिंदी फिल्मों में भंगड़ा नृत्य लाए। गौरतलब है कि मधुमती रिटायर होने के बाद भी गोपीकृष्ण की तरह डांस क्लास चला रही हैं। उन्होंने पंद्रह साल पहले सांताक्रुज से जुहू आकर एक्टिंग एंड डांसिंग अकादमी शुरू की। अपने शिष्यों को लेकर उन्होंने जी टीवी के लिए नृत्य प्रधान सीरियल जलवा का निर्माण शुरू किया है। उन्हें यह विश्वास है कि हिंदी फिल्मों में शास्त्रीयता का युग फिर लौटेगा।
मधुमती के दौर की हेलन भी हैं। लेकिन वे पश्चिमी नृत्य के लिए इंडस्ट्री में जानी जाती रहीं। वे ग्रुप डांसर से सोलो डांसर बनीं। फरियाल और बिंदु भी कैबरे और मुजरे तक सिमट कर रह गई। जबकि जयश्री टी. पश्चिमी और शास्त्रीय नृत्य में बराबर दखल रखती हैं। उनके मुताबिक़ दुनिया का ऐसा कोई डांस नहीं है जिसे मैं नहीं जानती हूँ। हर भाषा की फिल्मों में मैंने डांस किया है।बचपन से ही उन्होंने शास्त्रीय नृत्य की तालीम लेनी शुरु कर दी थी। गोपीकृष्ण से दो साल कथक भी सीखा। मराठी फिल्म बायांनो नवरे सांभाळा (1974) में उन्होंने गोपीकृष्ण के साथ अर्जुन- उर्वशी नृत्य नाटिका पेश की थी। हिंदी में उनकी पहली फिल्म अभिलाषा थी। उन्होंने बताया कि वैसे मेरी हिंदी फिल्मों में एंट्री पश्चिमी नृत्य के लिए हुई। क्लासिकल डांस उस वक्त धार्मिक फिल्मों में ज्यादा हुआ करते थे। मैं सभी डांस मास्टर की प्रिय नर्तकी थी। मुझ पर उन्हें मेहनत कम करनी पड़ती थी। हीरालाल के साथ जब मैं फिल्म तेरे मेरे सपने कर रही थी, तब वे मुझसे काफी प्रभावित हुए। मीनाक्षी शेषाद्रि के साथ जब मैंने फिल्म औरत तेरी यही कहानी की तो मेरी स्टेपिंग देख कर कमल मास्टर बहुत खुश हुए थे। पुराने डांस मास्टर की तारीफ करते हुए उन्होंने कहा कि, पुराने डांस मास्टर हमें सुबह पांच बजे रिहर्सल पर बुलाते थे फिर शिफ्ट शुरू होती थी। लेकिन आज किसी के पास मानो टाइम नहीं हैं। जयश्री टी. इस वक्त अपने निर्देशक पति जयप्रकाश कर्नाटकी के साथ मिल कर जी टीवी के लिए धारावाहिक सिने नर्तकी बना रही हैं। यह पुरानी और नई फिल्म अभिनेत्री- नर्तकियों पर आधारित होगा।
कल्पना अय्यर, बिंदु, लक्ष्मीछाया, मीना टी. और सिल्क स्मिता (दक्षिण) का इस्तेमाल इंडस्ट्री ने सेक्सी गीतों में अधिकाधिक किया। उनकी नृत्य- प्रतिभा को सही ढंग से साकार नहीं कराया गया। नृत्य सिर्फ नायिकाओं का क्षेत्र नहीं बल्कि नायक, नर्तक भी काफी नामचीन रहे हैं। इनमें सबसे पहले नाम याद आता है फिल्म झनक झनक पायल बाजे के नर्तक नायक गोपीकृष्ण का। इस फिल्म की कहानी की मांग ही थी नर्तक नायक की! लिहाजा झनक झनक पायल बाजे न बनी होती तो शायद गोपीकृष्ण कभी नायक ही न बने होते। झनक झनक पायल बाजे में वे नायक बने। फिल्म बेहद सफल हुई। मगर बाद में वे किसी और फिल्म के नायक कभी नहीं बने। क्योंकि मूलत: वे सिर्फ नर्तक थे।
बहुत कम लोग जानते होंगे कि गुरुदत्त ने अपने फिल्म जीवन की शुरुआत नृत्य निर्देशन के क्षेत्र से ही की थी। इसी प्रकार बाल कलाकर की हैसियत से फिल्मों में आए कमल हासन भी पहले नृत्य- निर्देशक बने, फिर नायक। कमल हासन की नृत्य निपुणता का लाभ उठाने के लिए तमिल में फिल्म सागर संगमम् बनी थी, जो काफी लोकप्रिय भी रही। कमल हासन के नृत्य का प्रयोग हिंदी में फिल्म एक दूजे के लिए में भी किया गया और थोड़े परिवर्तनों के साथ फिल्म सागर में भी। सागर में ऋषि कपूर ने उनका साथ खूब दिया। क्योंकि ऋषि में भी अपने पिता की ही तरह नृत्य का लोच, अंदाज उतरा है। कमल हासन नर्तक होने के साथ साथ सशक्त अभिनेता भी हैं और ये दोनों तत्व उनके व्यक्तित्व में बराबर एक दूसरे के पूरक बने रहे हैं। इसका बहुत सुंदर प्रयोग सागर संगमम् में देखने को मिलता है। लेकिन अधिकतर नायकों ने नाचने के लिए पश्चिमी शैलियों का ही सहारा लिया। भगवान दादा की अपनी अलग शैली थी, जिसका अनुकरण आज भी किया जा रहा है। फिल्म फर्ज से जीतेंद्र ने नाच की अपनी शैली प्रस्तुत की और इस शैली का अनुकरण फिर कई लोगों ने किया। गोविंदा से लेकर करीब करीब सभी नायकों ने ! जीतेंद्र की शैली ने उन्हें डांसर से ज्यादा जंपिंग जैक बना दिया। नायक- नायिका बाग में एक दूसरे से मुखातिब होने की बजाय कैमरे से मुखातिब होकर जब नाचते हैं तो स्थिति बड़ी ही हास्यास्पद हो जाती है। यह शैली आज तक चली आ रही है और उसकी हास्यास्पदता का खयाल किसी को नहीं आ रहा।
मिठुन चक्रवर्ती का नृत्य अक्सर एक्शन की वेदी पर बलि चढ़ता रहा। सिनेमा हॉल में आगे की सीट पर बैठने वाले युवा दर्शकों में इनके नाच का क्रेज काफी है। किंतु गंभीर दर्शक इसे पचा नहीं पाते हैं। कमर को झटके देकर, कूल्हे हिला कर नाचने में गोविंदा को महारत हासिल है। पश्चिमी शैली वाले नृत्य- निर्देशकों के ये प्रिय पात्र हैं। गोविंदा का इनसे हमेशा आग्रह रहता है कि वे उसे मटकाऊ अंदाज में नचाएं। हिंदी फिल्मों में जब से ब्रेक डांस ने अपनी जगह बनाई, तब से वह फिल्म की खासियत भी बन गया। कोई भी प्रसंग हो उसमें ब्रेक डांस ठूंस दिया जाता है। ब्रेक डांसर का रोल जावेद जाफरी के बिना अधूरा समझा जाने लगा। वे नृत्य निर्देशकों की पहली जरूरत बन गए। फिर प्रसंग मांग करे न करे, हर कोई ब्रेक डांस करने लगा। जहां नृत्य की गुंजाइश न हो वहां भी नायक- नायिका को दिवास्वप्र देखने पर मजबूर किया जाता है और एक समूह नृत्य करवाया जाता है। नृत्य, नृत्य के लिए, नृत्य कला के लिए न होकर ग्लैमर, कथित संगीत के शोर के लिए, अजीबोगरीब कास्ट्यूम्स के प्रदर्शन के लिए ऊटपटांग मगर भव्य सेटों के लिए बड़े बजट से दर्शकों को अंधा बना देने के लिए किया जा रहा है। एम टीवी जैसे चैनल इस ऊटपटांग नाच- कवायद - कसरत को फिल्मी परदे से घरों के अंदर ले आ चुके हैं। दुनिया झूम रही है। इसे देख समझना मुश्किल होता है कि यह नशे में झूम रही है या कथित नृत्य कर रही है? उस शोर में, रंगीन अंधेरों- रंगीन उजालों की आंख मिचौली के बीच नर्तक-नर्तकी- नायक- नायिका की शक्लें पहचानना भी मुश्किल होता जा रहा है।ऐसे में नृत्य कला को ढूंढ़े तो कहां ढूंढ़े? (समाप्त )
- दिनेश ठक्कर
(इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के "एक्सप्रेस स्क्रीन", मुम्बई के 3 दिसंबर 1993 के अंक में आवरण कथा बतौर प्रकाशित)

शनिवार, 13 जुलाई 2013

हिंदी सिनेमा में नृत्य : नाच? कवायद? कसरत? (भाग - 3)

 एक ओर नृत्य निर्देशक शास्त्रीय नृत्यों से कन्नी काटे हुए हैं, तो दूसरी तरफ नई नायिकाएं इसे झमेला मानती हैं। दरअसल फिल्म इंडस्ट्री की नई पौध शास्त्रीय नृत्य के प्रशिक्षण को पर्याप्त महत्व नहीं दे रही हैं। फिल्मी लटके- झटके के मोह जाल में वह उलझी हुई है। सेक्सी काया और चेहरे को देख कर निर्माता- निर्देशक उन्हें साइन कर लेते हैं। यदि उन्हें अभिनय नहीं आता है तो कुछ वक्त के लिए प्रशिक्षक के पास भेज देते हैं। परंतु नृत्य के नाम पर नई नायिकाएं पूरी तरह- डांस- मास्टर पर निर्भर हो जाती हैं। ऐसी परिस्थितियों में वे भी नई पीढ़ी की तरह डांस करवा कर छुट्टी पा लेते हैं।
सितारा देवी का जमाना इसके ठीक विपरीत था। तब निर्देशक पूरे प्रशिक्षण के बाद ही हीरो- हीरोइन पर शास्त्रीय नृत्य और लोक नृत्यों का फिल्मांकन करवाते थे। सितारा देवी स्वयं कथक नृत्य का पर्याय हैं। 77 वर्ष की उम्र होने के बावजूद उनमें सोलह साल वाली नृत्यांगना की नृत्य- चपलता है। आज भी वे लगातार तीन घंटे तक कथक कर दर्शकों को मोह लेती है। फिल्मों में इनकी प्रतिभा हर समय नए अंदाज में सामने आई। उन्होंने कई फिल्म में काम किया। सभी तरह की भूमिकाएं निभा कर उन्होंने लोगों को चकित कर दिया। फिल्म लेख पूरी तरह शास्त्रीय नृत्य पर आधारित थी। इसमें सितारा देवी के अलावा सुरैया और मोतीलाल थे। सितारा देवी के नृत्य इस फिल्म के प्राण थे। के. आसिफ की फिल्म फूल और महूबब खान की फिल्म रोटी में भी उनका यादगार नृत्य रहा। जंगली- नृत्य में उन्होंने विशिष्ट तरीके से शास्त्रीय नृत्य पिरोया था। किशोर साहू की फिल्म बिजली में सितारा देवी ने तो गजब ढाया था। उन्होंने कथक के अलावा भरतनाट्यम, मणिपुरी और सामान्य फिल्मी नृत्य इतने बढिय़ा किए थे कि थिएटर में दर्शक सिक्के की बौछार कर देते थे। वे जिस फिल्म में काम करती थीं, नृत्य निर्देशन उनका ही होता था। मां की भूमिका करने में भी वे माहिर समझी जाती थीं। चेतन आनंद की फिल्म अंजलि में जिस कुशलता से उन्होंने निम्मी की मां का पात्र साकार किया था, वह बेहद सराहनीय था। हलचल उनकी आखिरी फिल्म थी, जिसमें रशियन बैले किया और करवाया था। वे गोपीकृष्ण की मौसी हैं। आज उनके टक्कर की बहुआयामी हीरोइन फिल्म इंडस्ट्री में न होने का अफसोस जरूर होता है। सितारा देवी का घरेलू नाम धन्नो है, लेकिन इंडस्ट्री में आने पर महबूब खान ने उनका नाम सितारा देवी रख दिया।
वैजयंतीमाला ने भी फिल्म इंडस्ट्री में अपने नृत्य और अभिनय के लिए बहुत नाम- दाम कमाया है। हर फिल्म में उनकी कोशिश होती थी कि उनका नृत्य पिछली फिल्म से बेहतर हो। युगल नृत्यों में वे तुलनात्मक रूप से ज्यादा सतर्क रहती थीं। अपने साथी से अच्छा नतीजा देने में वे संपूर्ण ताकत झोंक देती थीं। गोपीकृष्ण जैसे नृत्यकारों के मुकाबले में वे खरी उतरती थीं। जहां भी वे नृत्य की शूटिंग करती थीं, वहां देखने वालों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। चाहे वे स्टुडियों में हों या आउटडोर, जब उनका नृत्य पूरा होता था तो वहां मौजूद लोग तालियां बजा कर उनका सम्मान करते थे। मद्रास में भी ऐसा ही हुआ था, जब वे फिल्म फूलों की सेज की शूटिंग करने गई थीं। उनकी एक और खासियत यह रही कि शूटिंग के समय स्टेपिंग कठिन लगने के बावजूद उसमें किसी तरह का संशोधन करने का आग्रह वे नृत्य निर्देशक से नहीं करती थीं। फिल्म आम्रपाली में कई स्टेपिंग उनकी सीमा से बाहर थे। लेकिन घर में वे घंटों रियाज करती थीं, ताकि शूटिंग के वक्त आसानी हो। इतना ही नहीं, शॉट होने से काफी पहले वे स्टुडियों पहुंच कर रिहर्सल शुरू कर देती थीं। उनकी यह लगन देखकर खुद नृत्य निर्देशक चौंक उठते थे। बिरजू महाराज जैसे नृत्याचार्य उन्हें निर्देशित करने को लालायित रहते थे। कारण कि उस समय वैजयंतीमाला की फिल्म का नृत्य निर्देशक कहलाना गौरव की बात थी, किंतु वैजयंतीमाला से तालमेल बैठाना आसान नहीं था। इसलिए फिल्म छोटी सी मुलाकात से बिरजू महाराज जैसे नृत्य निर्देशक को हटाना पड़ा था। बिरजू महाराज अक्सर अपने घराने के ही पदन्यास और हस्तमुद्राओं का इस्तेमाल करवाते थे। किसी अन्य घराने की शैली को वे पसंद नहीं करते थे। अगर हीरोइन उनके आदेश से हट कर कुछ करती थीं या उसके नृत्यों में दूसरे घराने का प्रभाव दिखता था तो उसे झगड़ा हो जाता था। फिल्म छोटी सी मुलाकात में वैजयंतीमाला से इसीलिए उनकी तू तू - मैं मैं हो गई थी।
नृत्यों में निपुण संध्या ने भी अल्प समयावधि में अपना पृथक स्थान बना लिया था। वी. शांताराम जैसे निर्माता निर्देशक का साथ मिलना उनके लिए सौभाग्य रहा। एक और एक मिल कर ग्यारह हो गए। फिल्म जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली का नृत्य आज भी कला- रसिकों के जेहन में है। ऐसा नृत्य संयोजन भी देखने को नहीं मिलता है। आगे चल कर राजश्री ने अपने स्तर पर इस परंपरा को कायम रखने का प्रयास भी किया। फिल्म गीत गाया पत्थरों ने का नृत्य उनके लिए मील का पत्थर रहा। 
मधुबाला को इंडस्ट्री में उम्दा अभिनय के लिए जाना जाता था। वैसे नृत्य में भी उनकी पकड़ अच्छी थी। चालू नृत्यों में भी वे मधुरता ले आती थीं। शास्त्रीय नृत्यों के प्रति उनका लगाव भी था। वे चाहती थीं कि श्रेष्ठ कथक नृत्यांगना बनें। इसलिए गोपीकृष्ण से गंडा बंधवा कर वे उनकी शिष्या बनी थीं। के. आसिफ की फिल्म मुंगले आजम में उनकी प्रतिभा उजागर हुई थी। इसके नृत्य निर्देशक लच्छू महाराज थे। लेकिन उनके अस्वस्थ होने पर गोपीकृष्ण और सितारा देवी ने "प्यार किया तो डरना क्या ..." और आखिरी गाना "ये रात है ऐसी मतवाली ..." का नृत्य निर्देशन किया था। गोपीकृष्ण ने "प्यार किया तो डरना क्या .." गाने में मधुबाला को खूबसूरती से तो नचाया, साथ ही खुद भी झूमर के नीचे चक्करदार परन लेकर इसमें शास्त्रीयता का पुट दिया था।
पुरानी फिल्मों में कुक्कू का नाम भी शिखर पर था। उनकी अदाओं के कारण परंपरागत फिल्मी नृत्यों में जान आ जाती थी। मीनाकुमारी अभिनय साम्राज्ञी तो थीं ही, उनके नृत्यों में सौम्यता भी रहती थी। कमाल अमरोही की फिल्म पाकीजा में उनके हर मुजरे शास्त्रीयता का भरपूर रंग लिए हुए थे। "ठाड़े रहियो ओ बांके यार..." में प्रस्तुति लाजवाब थी। इसके बाद तो फिल्मों में मुजरा अंग प्रदर्शन करने का बहाना बन गया। हालांकि फिल्म उमराव जान में रेखा इसकी अपवाद रहीं। यदि कहा जाए कि फिल्म पाकीजा के बाद शास्त्रीयता के साथ उमराव जान (मुजफ्फर अली की फिल्म) में मुजरा दिखाया गया तो यह अतिश्योक्तिपूर्ण न होगा।
बेहतर अभिनेत्री होने के अतिरिक्त अच्छी नर्तकी होने का सुफल आशा पारेख को भी मिला। उनकी लगभग हर फिल्म का नृत्य प्रसिद्ध हुआ। कथक में महारत हासिल करके उन्होंने गोपीकृष्ण की शिष्या बनना पसंद किया था। लोक नृत्यों में भी वे पारंगत  रहीं। वे फिल्म की भूमिकाओं के अनुरूप नृत्य करती थीं। नृत्य निर्देशक जैसा कहते थे वे वैसा कर दिखाती थीं। बिरजू महाराज उनकी प्रतिभा के कायल थे। अगर वे मुम्बई में मौजूद होते थे तो वे आशा पारेख के सेट पर जरूर जाते थे, ताकि उनका शास्त्रीय नृत्य देख सकें। पहली बार बिरजू महाराज का उनसे आमना सामना फिल्म जिद्दी के सेट पर हुआ था। आशा पारेख ने इसमें अल्हड़ युवती की भूमिका निभाई थी। "रात का समां झूमे चंद्रमा..." गीत का फिल्मांकन देखने के बाद बिरजू महराज ने गोपीकृष्ण से पूछा था "क्या आशा पारेख यहीं हैं ?"
फिल्मों में शास्त्रीय नृत्य को प्रमुखता दिलाने में स्वप्न सुंदरी हेमा मालिनी का योगदान भी उल्लेखनीय रहा है। दक्षिण भारत से आने वाली हीरोइन में उनका नाम नृत्य में शीर्ष पर है। भरतनाट्यम की वे दक्ष नृत्यांगना हैं। प्रत्येक नृत्य निर्देशक उनकी तारीफ करता है। जब उन्हें पता लगता था कि फिल्म की हीरोइन हेमा हैं तो उनका काम आधा हो जाता था। क्योंकि वे पदन्यास तुरंत सीख लेती थीं। कोई भी स्टेप हेमा मालिनी को जटिल नहीं लगते थे। फिल्म महबूबा में दरबार वाला गीत "गोरी तेरी पैजनिया..." को हेमा मालिनी आज भी बार-बार देखना पसंद करती हैं। इस समय भी वे नृत्य के प्रति समर्पित हैं। दूरदर्शन पर प्रसारित उनका धारावाहिक नुपूर इसका प्रमाण है। जब भी वक्त मिलता है वे नृत्य का स्टेज कार्यक्रम अवश्य देती हैं। विदेश में भी वे कई बार शो कर चुकी हैं।
दक्षिण भारत से 1982 में मुंबई आई श्रीदेवी शास्त्रीय नृत्य का जानना जरूरी मानती हैं। एक दशक में उन्होंने अपनी नृत्य प्रतिभा से सबको मोह लिया है। यश चोपड़ा की फिल्म चांदनी के एक म्यूजिक पीस में उनका शास्त्रीय नृत्य बेहद मनोहारी था। उनकी खासियत है कि सामान्य फिल्मी नृत्य भी इस अंदाज से पेश करती हैं कि उसमे आकर्षण आ जाता है। फिल्म नगीना, मि. इंडिया, रूप की रानी चोरों का राजा इसका उदाहरण हैं। दक्षिण की जयाप्रदा का नाम भी इस सूची में आता है। वह भी भरतनाट्यम की अच्छी नृत्यांगना हैं। फिल्म सरगम से ही उन्होंने सबको अपनी ओर आकर्षित कर लिया था। नृत्य निर्देशकों से वे आग्रह करती हैं कि उनका कोई शास्त्रीय नृत्य फिल्म में डाल दीजिए। चालू डांस में भी वे कुछ स्टेपिंग क्लासिकल से लेती हैं। रागिनी और पद्मिनी ने भी नृत्यों के लिए खासा नाम कमाया था।
मीनाक्षी शेषाद्रि तो भरतनाट्यम की स्टेज डांसर हैं। इसके अलावा वे कई अन्य शास्त्रीय नृत्यों में भी पारंगत हैं। मध्यप्रदेश शासन के गरिमामय नृत्य आयोजन खजुराहो महोत्सव में वे शिरकत कर चुकी हैं। सुभाष घई की फिल्म हीरो में उनकी शास्त्रीय स्टेपिंग देखने लायक थी। माधुरी दीक्षित के नृत्यों में भी कई दफा शास्त्रीयता की झलक मिलती है।
सुदृढ़ आत्मबल के लिए सुधा चंद्रन का नाम इंडस्ट्री में फख्र के साथ लिया जाता है। अपाहिज होने के बावजूद फिल्म नाचे मयूरी में उनका नृत्य बेजोड़ था। यह फिल्म भी नृत्य प्रधान फिल्मों के इतिहास में प्रमुखता से शामिल की जाएगी। इसके नृत्य निर्देशक गोपीकृष्ण फिल्म की कामयाबी का श्रेय सुधा चंद्रन को ही देते हैं। इस फिल्म की शूटिंग के समय एक भी ऐसा स्टेप नहीं था, जिस पर नृत्य करने से सुधा ने मजबूरीवश इंकार किया हो। कठिन से कठिन स्टेप उन्होंने इस ढंग से कर दिखाए कि गोपीकृष्ण भी हैरान रह गए थे। (जारी)
- दिनेश ठक्कर 
(एक्सप्रेस स्क्रीन, मुम्बई के 3 दिसंबर 1993 के अंक में आवरण कथा बतौर प्रकाशित)   

बुधवार, 10 जुलाई 2013

हिंदी सिनेमा में नृत्य : नाच ? कवायद ? कसरत ? ( भाग- 2)

पहले जमाने में हीरोइन बिस्तर पर गाना गाती थी। फिर वह खिड़की के पास आई। उसे खोला और गाना गाया। हीरो ने भी इसी तरह किया। इसके बाद हीरोइन घर से आंगन में आई। फिर हीरो- हीरोइन गार्डन में आए। नजदीक आकर एक दूसरे का हाथ पकड़ा और गाया। जमाना बदला। आंख मिचैली शुरू हुई। झाड़ में छुप गए। पल्लू खींचे। भाग-दौड़ हुई। गाना गाए। फिर समय बदला। हीरो भाग कर आता है। हीरोइन से लिपट जाता है। दोनों गाना गाते हैं। अब हीरोइन खुद हीरो पर चढ़कर गाना गाती है। हीरो को वह हाथ से नहीं, बल्कि वक्ष से मारती है। यह सेक्स और वायलेंस का जमाना है। गानों के फिल्मांकन का यह मजेदार क्रम बताते हुए वरिष्ठ नृत्य- निर्देशक पी. एल. राज खिलखिला पड़ते हैं। पहले वे ग्रुप डांसर थे। निर्देशक नानू भाई वकील ने उन्हें वर्ष 1957 में स्वतंत्र नृत्य- निर्देशन का मौका दिलाया। फिल्म लव मैरिज, जंगली, प्रोफेसर, शिकारी, गुमनाम, तीसरी मंजिल, इंतकाम, प्यार ही प्यार, सीता और गीता, शोले, शान, शक्ति, सागर, सरगम, आंधी तूफान, पाप की दुनिया, शोला और शबनम, सनम बेवफा आदि उनकी चर्चित फिल्में हैं।  नाडियाडवाला की फिल्म चित्रलेखा के लिए उन्हें नेहरू पुरस्कार मिला था।
राज बताते हैं, पहले सोलह बीट का एक शॉट होता था। एक अंतरे का एक शॉट होता था। फिर वह आठ, चार, दो और आज एक हो गया है। फास्ट फुड की तरह गानों का फिल्मांकन होने लगा है। नृत्यों के लिए यह नुकसानकारक है। लेकिन वक्त की घड़ी पर जो चलता है वहीं आगे बढ़ता है। मैं भी इसी राह पर चल रहा हूं। तो आप चोली के पीछे क्या है ... और चढ़ गया कबूतर.. जैसे गीतों की कोरियोग्राफी के पक्षधर हैं? बिलकुल हूं, राज ने बचाव की मुद्रा में कहा, बल्कि गांवों में तो कुछ लोक गीत- नृत्य ऐसे होते हैं जो अश्लील और द्विअर्थी होते हैं। पुरानी फिल्मों में जोबनिया जैसे शब्दों का इस्तेमाल हो चुका है, फिर चोली के पीछे सब क्यों पड़े हैं। 
कल्पनाशील नृत्य- निर्देशकों में कमल मास्टर अव्वल थे। उनकी असमय मौत से इंडस्ट्री को गहरा झटका लगा है। सोहन लाल और पी. एल. राज के बाद उनका क्रम आता है। अपने इन गुरुओं की खूबियों को उन्होंने आत्मसात किया था। फिल्म धरती कहे पुकार के से उन्होंने स्वतंत्र निर्देशन की पुकार लगाई। इसके पश्चात कमल खिलता ही गया। फिल्म डॉन, मुकद्दर का सिकंदर, शराबी, जादूगर, जिंदगी और जुआ, खुदगर्ज, खून भरी मांग उल्लेखनीय रहीं। जय विक्रांत उनकी आने वाली फिल्मों में प्रमुख है। कमल मास्टर अमिताभ बच्चन और रेखा के पसंदीदा नृत्य निर्देशक थे। निर्देशक बनने की तमन्ना ने उन्हें तनाव से ग्रस्त कर दिया था। अधूरी फिल्म दुश्मन दोस्त ने उन्हें आर्थिक रूप से भी तोड़ दिया था। पुराने गीतों पर नए  नायक- नायिकाओं को नचाने के लिए वीडियो फिल्म नया अंदाज भी बनाई। लेकिन अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली। अपने बेटे को हीरो बनाने के चक्कर में उन्होंने फिल्म चाहूंगा मैं तुझे निर्देशित की। फिल्म में साठ फीसदी धन भी लगाया। किंतु फिल्म फ्लॉप हो जाने से कमल मास्टर पर फिर गाज गिरी। तनाव और बढ़ गया। दिमाग की नसें फट गईं और इंडस्ट्री को सदा के लिए अलविदा कह दिया। लेकिन कमल मास्टर की शैली इंडस्ट्री के लिए धरोहर बन चुकी है। 
आज के हीरो- हीरोइन क्लासिकल डांस नहीं करना चाहते, उनकी दिलचस्पी वेस्टर्न में है। विदेश में हमारा धोती- लहंगा अपनाया जा रहा है, शास्त्रीय नृत्य सीखा जा रहा है और हमारे यहां कम कपड़े पहन कर ठुमके लगाए जा रहे हैं। वैसे मुझे भरोसा है फिल्मों में पुराना दौर आएगा। लेकिन कब और किस तरीके से, यह कहा नहीं जा सकता। माधव किशन ने पी.एल. राज के तर्क पर इस तरह अपनी असहमति जाहिर की। इनका दावा है कि, यदि हीरो- हीरोइन क्लासिकल डांस सीख लें तो दूसरे डांस को फॉलो कर सकते हैं। देखा जाए तो वेस्टर्न डांस में भी क्लासिकल टच है। लेकिन वह हमारे यहां सही तरीके से कहां होता है?
माधव किशन ऐसे नृत्य निर्देशक हैं जिन्होंने हमेशा इस बात का ध्यान रखा है नृत्य संयोजन में अश्लीलता न आने पाए। वे गोपीकृष्ण के भाई हैं। गोपीकृष्ण, सोहनलाल और कमल मास्टर के वे सहायक रह चुके हैं। बतौर स्वतंत्र नृत्य निर्देशक इनकी पहली फिल्म पुतली बाई थी। इसके बाद हंसते जख्म, बिंदिया और बंदूक, गीत गाता चल, जानेमन, रजिया सुलतान, हिंदुस्तान  की कसम, गोपाल कृष्ण, प्रतिमा और पायल, मीरा के गिरधर, गेम, तिरंगा और हम हैं राही प्यार के इनकी नामी फिल्में हैं। वे अपने लखनऊ घराने की कथक शैली को अवसर मिलते ही इस्तेमाल करने से नहीं चूकते हैं। तोड़े, टुकड़े और परन उन्हें अच्छे लगते हैं।
अश्लीलता परोसते नृत्य
मौजूदा नए नृत्य निर्देशक हीरो- हीरोइन को मर्यादा के बाहर गानों में आलिंगनबद्ध करवाते हैं। अश्लीलता का पुट अधिक रहता है। इस तथ्य का दूसरा नजरिया रखते हैं चिन्नी प्रकाश। उनका मानना है, आज दर्शकों में फर्क आ गया है। उनके जीवन स्तर में अंतर आ गया है। बाप बेटा दोस्त बन गए हैं। ऐसे में हीरो- हीरोइन को दूर-दूर दिखाएंगे तो कैसे चलेगा? उन्हें एक दूसरे से चिपटना ही पड़ेगा। जहां तक अश्लीलता का प्रश्न है तो इसकी शुरुआत फिल्म दलाल के कबूतर वाले गाने से हमने नहीं की है, बल्कि खलनायक के चोली गाने से हुई है। अब तो यह और भी ज्यादा होगा जब तक दर्शक बोर न हो जाएंगे।
चिन्नी प्रकाश का घरेलू नाम जयप्रकाश है। चिन्नीलाल उनके पिता थे। वे संपत के साथ जोड़ी बनाकर नृत्य निर्देशन करते थे। चिन्नी प्रकाश अपने पिता और चाचा सोहनलाल, हीरालाल और राधेश्याम के सहायक रह चुके हैं। उनका नृत्य संयोजन हीरालाल की शैली में होता है। वे तमिल फिल्मों में अभिनय का शौक भी पूरा कर चुके हैं। लेकिन फ्लॉप होने पर नृत्य निर्देशन को पूरी तरह अपना लिया। वर्ष 1982 में वे तेलुगू फिल्म मि. विजय से स्वतंत्र नृत्य निर्देशक बने। एस. रामानाथन की फिल्म प्यार करके देखो इनकी पहली हिंदी फिल्म थी। गोविंदा उसके हीरो थे। फिल्म महासंग्राम और हत्या गोविंदा ने ही दिलवाई थी। पुलिस ऑफिसर, इज्जत, वक्त हमारा हैं, साजन, खिलाड़ी, हम, रूप की रानी चोरों का राजा आदि फिल्मों में इनका ग्रुप डांस लोकप्रिय हुआ। 
दक्षिण भारत और मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में नृत्य- गीत के फिल्मांकन में खास अंतर बताते हुए उन्होंने कहा, मुम्बई में कभी भी एक शिफ्ट में गाना नहीं फिल्माया जा सकता है, क्योंकि समय की पाबंदी नहीं है। इससे क्वालिटी भी नहीं आ पाती है। जबकि दक्षिण में इसका उलटा है। यदि शेड्यूल टाइम से एक दिन पहले गाने शूट हो जाते हैं तो निर्माता के एक लाख रुपए बच सकते हैं।इन दिनों एक फिल्म के गानों के लिए अलग- अलग नृत्य निर्देशक लेने का चलन बढ़ गया है। इसे आप सही मानते हैं या गलत? चिन्नी प्रकाश ने तरफदारी करते हुए कहा, सही है ! मैं सौ-दो सौ लोगों के साथ फास्ट मूवमेंट करवाता हूं,  इसलिए मुझे लिया जाता है। मेरी पत्नी रेखा को सॉफ्ट डुएट सांग के लिए, तरुण कुमार को लड़कियों के ग्रुप के लिए और सरोज खान को सेक्सी क्लासिकल फोक के लिए यदि एक ही फिल्म में लिया जाता है तो विविधता जरूर आएगी। माइकल जैक्सन के प्रशंसक चिन्नी प्रकाश की महत्वाकांक्षा है कि वह हॉलीवुड की फिल्म में नृत्य निर्देशन करें। उन्हें वक्त का इंतजार है।
चिन्नी प्रकाश की पत्नी रेखा की इच्छा है कि हिंदी फिल्मों में शास्त्रीय नृत्य नए- अंदाज में लौटे, लेकिन उसका मूल आधार शास्त्रीय ही हो। उन्होंने अपने ससुर और गुरु चिन्नी लाल की स्टाइल को अपना कर खुद के मूवमेंट बनाए हैं। वे कहती हैं, एक अच्छे नृत्य निर्देशक में अनुशासन, बड़ों का आदर करने की भावना और काम में लगन का गुण होना अनिवार्य है। यही सब मैंने अपने गुरु से सीखा है। वे सात साल तक चिन्नी लाल की सहायक थीं। अपने पति से पहले उन्हें नृत्य निर्देशक बनने का अवसर मिला। उस समय चिन्नी प्रकाश पर हीरो बनने का भूत सवार था। रेखा की पहली फिल्म तेलुगू में थी। फिर वहां इन्होंने चार सौ से ज्यादा फिल्मों में नृत्य निर्देशन दिया। मि. इंडिया इनकी पहली हिंदी फिल्म थी। वे हंसते हुए बताती हैं, लोग तो एक जगह जमने के बाद उसे नाम की खातिर छोड़ते नही हैं। लेकिन मैं हमेशा इंडस्ट्री बदलती रही। पहले तेलुगू, फिर तमिल, कन्नड़ और अब हिंदी फिल्मों में कोरियाग्राफी कर रही हूं। रेखा ने कुचीपुड़ी के करीब तीन सौ स्टेज प्रोग्राम किए हैं। उन्होंने पंद्रह साल तक यह नृत्य किया है। इसे वेंकटचिन सत्यम (मद्रास) से सीखा था। अभिनेत्री हेमा मालिनी और रेखा भी उनकी शिष्या थीं। (जारी )
- दिनेश ठक्कर 
(इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के हिंदी फिल्म अखबार एक्सप्रेस स्क्रीन के 3 दिसम्बर 1993 के अंक में आवरण कथा बतौर प्रकाशित)   


शनिवार, 6 जुलाई 2013

हिंदी सिनेमा में नृत्य : नाच ? कवायद ? कसरत ?


हिंदी फिल्मों में एक दौर ऐसा आ गया जब मजाक में यह कहा जाने लगा कि आधी फिल्म फाइट मास्टर "डाइरेक्ट" कर देते हैं, आधी फिल्म डांस डाइरेक्टर! फिल्म के डाइरेक्टर के लिए कुछ बचता ही नहीं। काफी हद तक यह मजाक एक सच्चाई भी था। और था क्यों, आज फिर कुछ एक अपवाद को छोड़ दें तो ऐसा ही हो रहा है। भारत शास्त्रीय नृत्य-कला की समृद्ध परंपरा की भूमि रहा है और भारतीय सिनेमा में इस परंपरा का प्रयोग करने वाले कलाकार भी कई हुए। गीत ही की तरह कुछ हद तक नृत्य भारतीय सिनेमा का एक अभिन्न अंग बन गया। और फिर समय के साथ यह भी मिलावटों, सांस्कृतिक हमलों, यहाँ तक कि सांस्कृतिक प्रदूषण का एक जरिया भी बन गया। प्रस्तुत है एक लंबी चर्चा हिंदी सिनेमा में नृत्य और नृत्य निर्देशन को लेकर .... 
     
हिंदी फिल्मों में नृत्य की अहमियत शुरू से रही है। हर दौर में इसे स्वीकार किया गया है। शास्त्रीय शैली के नृत्यों को हालांकि अब पहले की तरह तरजीह नहीं दी जा रही है। लेकिन लोक नृत्यों को फिल्मी अंदाज मे परोसा जरूर जा रहा है। पश्चिमों नृत्यों का बोलबाला आज भी है। शायद फिल्म वालों की यह मजबूरी बन गया है। तभी तो वे इससे उबर नहीं पा रहे हैं। ऐसे हालात में पुराने और नए नृत्य- निर्देशकों की सोच परस्पर अलग है। क्या वे इन स्थितियों से खुश हैं? क्या फिर से शास्त्रीयता के दायरे में नृत्यों का फिल्मांकन किया जाए? या यूं ही सब लोग भेड़चाल में शामिल हो जाएं? और कसरतनुमा नाच को पश्चिमी शैली का डांस मान कर संयोजन करते रहें। इन ज्वलंत सवालों पर हिंदी सिनेमा के प्रमुख नृत्य निर्देशकों और नृत्यांगनाओं के विचार यहां पेश हैं।
पहले डांसिंग हीरो का गौरव पाने वाले गोपीकृष्ण ऐसे डांस-मास्टर हैं, जिनके योगदान को फिल्म इतिहास में कभी भुलाया नहीं जा सकता है। नृत्य प्रधान फिल्मों के लिए आज भी गोपीकृष्ण (गोपी मास्टर) को याद किया जाता है। वर्ष 1955 में बनी वी. शांताराम  की बहुचर्चित फिल्म "झनक झनक पायल बाजे" बतौर नृत्यकार नायक उनकी पहली फिल्म थी। "शास्त्रीय नृत्यों की अधिकता के बावजूद दर्शक इस फिल्म से ऊबे नहीं, बल्कि इसी वजह से फिल्म खूब चली", नटेश्वर भवन ( मुम्बई ) में गोपीकृष्ण ने एक्सप्रेस स्क्रीन को यह बात गर्व से बताई। उन्होंने पुराने प्रसंगों का जिक्र करते हुए कहा, "झनक झनक पायल बाजे" के क्लाइमेक्स वाले तांडव नृत्य को मैं कभी नहीं भूल सकता। इसने मुझे बेहद लोकप्रियता दिलाई। जब यह फिल्माया जा रहा था तो मेरे अंग खून से सन गए थे। असल में हुआ यूं कि वे जल्दबाजी में मुझे पहनाए गए चमकीले पीतल के गहनों के पीछे कपड़ा लगाना भूल गए। इतना समय नहीं था कि डांस रोक कर उस पर वेलवट लगाएं। फिर नाचते- नाचते मेरी चमड़ी छिलती गई। खून निकलता गया। मेकअप मैन उसे पोंछता गया। इस फिल्म का राधाकृष्ण नृत्य भी अनूठा था। चक्करदार परन रोक कर मुझे मुद्राएं देनी थीं। जब रीटेक पर रीटेक हो रहे थे तो मैं पसीने से लथपथ हो गया। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। बाद में इस नृत्य ने धूम मचा दी।"
इस फिल्म की कामयाबी के बाद गोपीकृष्ण के कैरिअर का ग्राफ ऊंचा उठता गया। फिल्म नाच घर (1959), छोटी सी मुलाकात (1961), फूलों की सेज (1964), जिद्दी (1964), आम्रपाली (1966), बायांनो नवरे सांभाला (मराठी-1974), महबूबा (1976), नाचे मयूरी (1986) की अपनी कोरियाग्राफी को भी वे विशिष्ट बताते हैं। फिल्म नाच घर का थाली नृत्य आज तक फिल्मी नृत्यकारों के लिए चुनौती बना हुआ है। नृत्यांगना- अभिनेत्रियों के ये पसंदीदा फनकार रहे हैं। फिल्म संग दिल के वक्त उनकी उम्र मात्र सोलह बरस थी। तब वे दुनिया के सबसे छोटे डांस मास्टर थे। इसमें उन्होंने मधुबाला से शास्त्रीय नृत्य करवाया था। इसके बाद मधुबाला ने वैसे स्टेप्स कभी नहीं किए। वैजयंतीमाला के वे प्रिय नृत्य निर्देशक रहे। उनके साथ बारह वर्ष तक काम किया। उनकी लगभग सभी फिल्में कीं।   
कला ही मकसद था
सनद रहे, फिल्म आम्रपाली ऐतिहासिक नृत्यांगना की जिंदगी पर केंद्रित थी। इस फिल्म के नृत्य- निर्देशन की तारीफ आज भी होती है। वैजयंतीमाला और सुशीला के मध्य नृत्य प्रतियोगिता का दृश्य संयोजन अनूठा कहा जा सकता है। यद्यपि वैजयंतीमाला ने कई फिल्मों में अनूठे स्टेपिंग दिए, परंतु आम्रपाली में तो उनकी नृत्य प्रतिभा अतुलनीय थी। नृत्य शॉट ओके होने से पहले वे घंटों रियाज करती थीं। उस जमाने में निर्माता- निर्देशक खुद चाहते थे कि शूटिंग में देर भले हो पर शॉट अच्छा होना चाहिए। व्यावसायिकता, कला पर हावी नहीं हो पाती थी। लेकिन आज मामला पलट गया। इसका मलाल गोपीकृष्ण को बेहद है। वे कहते हैं, "अब तो फिल्मों में व्यावसायिकता ने कला पक्ष को चौपट कर दिया हैं। इसमें मैं सभी को दोषी मानता हूं। आज एम टीवी देख कर कोई भी डांस मास्टर बन जाता है। इसीलिए आज की फिल्मों में बगीचे में जब गाना होता है तो उसमें हीरो- हीरोइन ऐसे नाचते हैं जैसे कोई बंदर- बंदरिया उछल-कूद कर रहे हों। आजकल का हीरो, हीरोइन को मुंह से लेकर पांव   तक ऐसे चाटता है, जैसे कोई कुत्ता सूंघ रहा हो, हीरो को कैसे नाचना चाहिए, यह वे कपूर खानदान से सीखें।"
तो मास्टर जी आप नृत्य-निर्देशन से क्यों मुंह मोंड़ रहे हैं? " क्या करूं, अब तो हमारा जमाना नहीं रहा। अब माइकल जैक्सन की तर्ज वाला वक्त है। क्लासिकल के लिए निर्माता-निर्देशक मुझे बुलाते ही नहीं है। इतने साल मर्यादित नृत्य किया है, करवाया है, तो अब मैं कैसे चड्डी उतार कर मैदान में आऊं। मतलब मैं अश्लीलता को कैसे महत्व दूं। हालांकि पश्चिमी नृत्य को मैं उतना बुरा नहीं कहता हूं। लेकिन हिंदी फिल्मों में जिस रूप में वह दिखाया जाता है, भौंडा होता है। माइकल जैक्सन जो डांस करता है, वह वलगर नहीं लगता है, पर यहां उसकी नकल बेहूदा लगती है। कथक के तोड़े-टुकड़े तो फिर कलाकारों की समझ से बाहर हैं। वन-टू-थ्री-फोर के जरिये वे किसी तरह हाथ- पांव हिला लेते हैं और उसे ही डांस समझ कर खुश हो लेते हैं। श्रीदेवी, मीनाक्षी शेषाद्रि, सुधा चंद्रन, कमल हासन जैसे लोग अब कहां आ रहे हैं।" 
गोपीकृष्ण का दुखड़ा सही है। लेकिन दूसरी तरफ अब नृत्य निर्देशकों के संजोजन कराने का तरीका भी तो बदल ही गया। उनकी सोच में भी फर्क आ गया है। बदलते समय से उन्हें समझौता करना पड़ रहा है। निर्माता-निर्देशक के आदेश पर कोरियोग्राफी हो रही है। पहले हालात इसके विपरीत थे। वर्ष 1940 के आसपास अजुरीबाई के नाम का डंका बजता था। वे शास्त्रीय और पश्चिमी नृत्यों में पूरी तरह पारंगत थीं। उनकी बात काटने की हिम्मत किसी में नहीं थीं। फिर मोरे मास्टर की तूती बोलने लगी। वे शास्त्रीय और लोक नृत्य के बेहतर निर्देशक थे। फिल्म अजीब लड़की में "लारी लप्पा लाई रे..." गीत में मोरे मास्टर ने खुद भी नृत्य किया था। 
भारतीय शास्त्रीय नृत्य को विदेशों में लोकप्रिय बनाने का महत्वपूर्ण कार्य किया उदयशंकर और उनके ट्रुप ने. मंच के प्रति प्रतिबद्ध उदयशंकर ने शास्त्रीय नृत्य को बढ़ावा देने के लिए सिनेमा के सशक्त माध्यम का प्रयोग करने का फैसला किया तो उनका यह प्रयास फिल्म "कल्पना" के रूप में सामने आया।
पश्चिमी नृत्यों की नकल
इसके बाद ज्ञान शंकर, कृष्ण कुमार आए। वर्ष 1951 में कृष्ण कुमार हिंदी फिल्मों में रंभा-संभा लाए। इनके छोटे भाई सूर्यकुमार ने भी पाश्चात्य किस्म को अपनाया। ज्ञान मंडलोई, गोपीकृष्ण, बद्रीप्रसाद, सत्यनारायण, सोहन खन्ना, सोहन लाल, हीरालाल (दक्षिण भारत के), पी. एल. राज, सुरेश भट्ट, हरमन, कमल, माधव किशन के बाद आने वाली नृत्य-निर्देशकों की नई पीढ़ी शायद शास्त्रीयता से दूर रहना चाहती है। इस नई पीढ़ी को ज्यादा लगाव वेस्टर्न पैटर्न से है। लोक नृत्यों का फिल्मांकन भी वे पश्चिमी अंदाज से कर रहे हैं। नई पीढ़ी में अभी सरोज खान, रेखा और चिन्नी प्रकाश का नाम तथा काम सबसे आगे है। इसके पश्चात तरुण कुमार, विजय, आस्कर, हबीबा रहमान, किरण कुमार, सुमन सरकार, कमलनाथ, चंदा, गणेश, महेश- नरेश, नायडू, पप्पू खन्ना, तारा, लक्ष्मी, बाबा हरमन, शैलेष कुमार, जय बोडें, निमेष और राजू खान (सरोज खान के पुत्र) का क्रम आता है। ( जारी ) 
- दिनेश ठक्कर
(इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के हिंदी फिल्म अखबार "एक्सप्रेस स्क्रीन", मुम्बई के 3 दिसम्बर 1993 के अंक में आवरण कथा बतौर प्रकाशित)    

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

हिंदी सिनेमा के नृत्य पर "एक्सप्रेस स्क्रीन" में मेरी आवरण कथा



इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के लोकप्रिय रहे हिंदी फिल्म अखबार "एक्सप्रेस स्क्रीन" के 3 दिसंबर 1993 के अंक में हिंदी सिनेमा में नृत्य और नृत्य निर्देशकों पर आधारित मेरी शोधपरक रिपोर्ताज आवरण कथा बतौर प्रकाशित हुई थी। इसका शीर्षक था "नाच ? कवायद ? कसरत ? " उस वक्त उदया तारा नायर "स्क्रीन" के अंग्रेजी और हिंदी संस्करण की संपादक थीं। हिंदी संस्करण की सहायक संपादक और प्रभारी रेखा देशपांडे थीं। बहरहाल, मेरी इस आवरण कथा को हिंदी फिल्म जगत में बेहतर प्रतिसाद मिला था। इसमें वरिष्ठ शास्त्रीय नृत्यांगना और नृत्य निर्देशक सितारा देवी, बिरजू महाराज, नर्तक-नायक और नृत्य निर्देशक गोपीकृष्ण, इनके भाई नर्तक और नृत्य निर्देशक माधव किशन, नृत्य निर्देशक पी.एल.राज, सरोज खान, दक्षिण भारतीय फिल्मों से मुंबई आए नई पीढ़ी के  नृत्य निर्देशक चिन्नी प्रकाश और उनकी पत्नी, नृत्य निर्देशक रेखा चिन्नी प्रकाश के अलावा पुरानी हिंदी फिल्मों की मशहूर नर्तकी मधुमती, हेलन, कल्पना अय्यर, बिंदु, लक्ष्मीछाया, जयश्री टी. और नृत्य में माहिर पुराने- नए प्रमुख नायक-नायिकाओं से हुई बातचीत पेश की गई थी। गौरतलब है कि हिंदी फिल्मों में एक दौर ऐसा आ गया जब मजाक में यह कहा जाने लगा कि "आधी फिल्म फाइट मास्टर "डाइरेक्ट" कर देते हैं, आधी फिल्म डांस डाइरेक्टर! फिल्म के डाइरेक्टर के लिए कुछ बचता ही नहीं।" काफी हद तक यह मजाक एक सच्चाई भी था। कमोवेश, आज भी कुछ अपवादों को छोड़ दें तो ऐसा ही हो रहा है।                                     

मंगलवार, 2 जुलाई 2013

यादें - धर्मयुग में सरगुजा के उपेक्षित पुरातात्विक स्थलों पर आलेख


 टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप की लोकप्रिय रही पत्रिका "धर्मयुग" (मुम्बई) के 31 जनवरी 1988 के अंक में सरगुजा के उपेक्षित पुरातात्विक स्थलों पर मेरा आलेख प्रकाशित हुआ था। उस वक्त गणेश मंत्री जी इस पत्रिका के कार्यवाहक संपादक थे। इस आलेख में मैंने रामगढ की प्राचीन नाट्य-शाला, जोगीमारा सीता बेन्गरा गुफा के मौर्यकालीन ब्राम्ही लिपि में उत्कीर्ण अभिलेख, रंगीन भित्ति चित्रों के अलावा महेशपुर,लक्ष्मणगढ़, देवगढ-सतमहला, डीपाडीह के मंदिरों के भग्नावशेष और अन्य पुरातात्विक संपदाओं की उपेक्षा और दुर्दशा पर प्रकाश डाला था। यह आलेख वाला अंक आज भी मेरे संग्रह में सुरक्षित रखा है, जो मेरे लिए धरोहर और यादगार स्वरूप है। इसकी छाया प्रति मित्र -पाठकों के लिए सादर प्रस्तुत है।             ,       

सोमवार, 1 जुलाई 2013

सरगुजा के उपेक्षित पुरातात्विक स्थल

 इतिहास पर जमती उपेक्षा की परतें 
पुरा- संपदा की दृष्टि से आदिवासी जिला सरगुजा अत्यंत संपन्न है, लेकिन इसकी सुधि लेने वाला कोई नहीं हैं। सैकड़ों वर्ष पुरानी पाषाण- प्रतिमाएं यत्र-तत्र उपेक्षित पड़ी हैं। कुछ महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थलों का औपचारिक सर्वेक्षण करवा कर शासन ने अपना फर्ज पूरा कर लिया, पर दुर्लभ मूर्तियों के संग्रह- संरक्षण के लिए अब तक कोई कारगर पहल नहीं की गयी है। जिले में महत्वपूर्ण प्रतिमाओं की चोरी और प्रशासन की निष्क्रियता ने मूर्तियों की तस्करी का क्रम बदस्तूर जारी रखा है।
रामगढ़ की प्राचीन रंगशाला, महेशपुर, देवगढ़- सतमहला तथा डीपाडीह की पुरा- संपदाएं देश में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। किंतु घोर उपेक्षा की वजह से ये धीरे- धीरे अपना अस्तित्व खो रहीं हैं। बिलासपुर- अंबिकापुर मार्ग पर स्थित रामगढ़ पहाड़ी पर जोगीमारा सीता बेंगरा गुफाएं हैं। जोगीमारा गुफा में ईसा पूर्व द्वितीय सदी का एक अभिलेख है, जिसमें सूतनका नामक नर्तकी एवं देवदत्त नामक रूपदक्ष के प्रणय- प्रसंग का उल्लेख किया गया है। इस गुफा की छत में रंगीन भित्ति चित्र भी हैं, जिनमें रथ, अश्व, गज और विभिन्न भावभंगिमाओं को प्रदर्शित करते हुए मानव का चित्रण किया गया है।
कहा जाता है कि भारत के ज्ञात ऐतिहासिक काल का यह सर्वाधिक प्राचीन भित्ति चित्र है। वे भित्ति चित्र अजंता, एलोरा के प्रख्यात भित्ति चित्रों से पहले के बने हुए बताये जाते हैं। उल्लेखनीय है कि इन चित्रों के निर्माण में लाल, गेरुआ, कत्थई, हरे एवं नीले रंगों का उपयोग किया गया था। यह जानकारी इन चित्रों के बचे-खुचे अंश से प्राप्त होती है। शासन की लापरवाही का नतीजा यह है कि यहां के चित्र संरक्षण के अभाव में अत्याधिक धूमिल एवं क्षरित हो गये हैं।
हर बार उपेक्षा की मार 
रामगढ़- जोगीमारा में मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण एक अभिलेख से इस क्षेत्र की ऐतिहासिक परंपरा का श्रीगणेश मौर्यकाल से हो जाता है। धार्मिक किंवदंतियों में रामगढ़ को रामायणकालीन प्रसंगों से जोड़ा जाता है। ऐसी मान्यता है कि राम ने अपने वनवास की अवधि में इसी स्थल पर निवास किया था। इसके पश्चात उन्होंने दक्षिण दिशा में प्रस्थान किया। दूसरी ओर रामगढ़ की भौगोलिक स्थिति कालिदास द्वारा रचित मेघदूत के अनेक संदर्भों से भी मेल खाती है। पुरातात्विक दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण स्थान होने के बावजूद राज्य सरकार रामगढ़ की नाट्यशाला में औपचारिक तौर पर 365 दिन में एकाध कार्यक्रम आयोजित कर इसके महत्व का अहसास कराती है, जबकि इसके संरक्षण तथा विकास की दिशा में पहल नगण्य है।
रामगढ़ की पहाड़ियों की तलहटी में तथा रेण नदी के तट पर स्थित महेशपुर भी इस समय उपेक्षा की मार सह रहा है। इस गांव में आठवीं-नवीं शताब्दी के 10 मंदिरों के भग्नावशेष हैं। इन ध्वंसावशेषों में शिवलिंग, विष्णु, त्रिविक्रम, नृसिंह, गणेश, दिग्पाल, नदी देवी गंगा- यमुना, अलंकृत स्थापत्य खंड एवं द्वार- शाखा के अवशेष प्रमुख हैं। तत्कालीन राजवंशियों (त्रिपुरी कलचुरी) के द्वारा रेण नदी के तट पर अनेक महत्वपूर्ण मंदिरों का निर्माण करवाया गया था। वैसे आठवीं शताब्दी के मंदिरों (भग्नावशेष) से संबंधित पर्याप्त साक्ष्य प्राप्त नहीं होने से मंदिर के कर्ताधर्ता राजवंशों के बारे में निश्चित रूप से कोई राय नहीं बन पायी है। लगभग तीन हजार की आबादी वाले इस आदिवासी बाहुल्य ग्राम में अधिकांश मंदिरों के भग्नावशेषों तथा स्थिति से ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में यह तीर्थ स्थल के रूप में विख्यात तो रहा होगा, साथ ही एक प्रमुख नगर भी रहा होगा। यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि यहां विभिन्न धर्मों के अनुयायी निवास करते रहे होंगे।
शेष बचे अवशेष
भौगोलिक स्थिति से यह भी स्पष्ट होता है कि उत्तर एवं पूर्वी भारत से आने वाले तीर्थ यात्री रेण नदी से होते हुए सोन नदी के तट और अमरकंटक आते रहे होंगे। महेशपुर में दो शिव मंदिरों के खंडहर तथा ऐतिहासिक महत्व के दस टीलों को इन दिनों सर्वाधिक संरक्षण की आवश्यकता है। समीपस्थ स्थल लक्ष्मणगढ़ भी उपेक्षा का अभिशाप भोग रहा है। जबकि यहां एक शिल्प पट्ट में कृष्ण लीला से संबंधित दृश्यों का अंकन मिलता है, जो अपने आप में महत्वपूर्ण हैं। इस पट्टे में विशेषकर कृष्ण जन्म एवं पूतना वध प्रसंग अत्याधिक स्पष्ट है।
पुरातत्वीय महत्ता के हिसाब से देवगढ़- सतमहला भी मुख्य स्थल है। उदयपुर-सूरजपुर मार्ग तथा रेण नदी के तट पर स्थित यह प्राचीन मंदिरों का एक समूह है। देवगढ़ में शिव मंदिर के अवशेष हैं, जिनमें एकमुखी लिंग उल्लेखनीय है। प्राचीन मंदिरों में गंगा-यमुना, गणेश, कार्तिकेय मंदिर के अलावा खंडित प्रतिमाएं विशेष महत्व की हैं। कहा जाता है कि सतमहला में पहले मंदिर कुछ ज्यादा थे। उस काल में तत्कालीन नगर भी बसा हुआ था। फिलहाल, यहां पर तीन समूहों में करीब पांच मंदिरों के टीले हैं । इन टीलों में गंगा- यमुना प्रतिमा एवं शिवलिंग आदि रखे हुए हैं। इन मंदिरों के निकट प्राचीन काल की एक बावड़ी भी है। भग्नावशेषों से ऐसा लगता है कि इन मंदिरों का निर्माण सातवीं- आठवीं शताब्दी में हुआ होगा। दुर्भाग्य से इनकी भी देखरेख करने वाला कोई नहीं है।
यही हाल डीपाडीह का भी है। डीपाडीह एक प्राचीन स्थल है, जो अंबिकापुर- कुसमी मार्ग में कन्हर नदी के तट पर स्थित है। यहां भी अनेक मंदिरों के भग्नावशेष हैं। इनमें गंगा- यमुना, शिव, भैरव, नंदी, गणेश, महिषासुरमर्दिंनी आदि की प्रतिमाएं रखी हुई हैं। खास बात यह है कि यहां के टीले आकार में विशाल तथा विस्तृत हैं। यहां के मंदिरों के निर्माण में भी ईंट व प्रस्तरों का साथ-साथ उपयोग किया गया है।
कौन करे पहल?
प्राप्त अवशेषों से मालूम होता है कि यहां के मंदिरों का निर्माण आठवीं- नवीं शताब्दी में करवाया गया होगा। टीलों का उत्खनन, सफाई आदि करवायी जाये, तो मंदिरों की संरचना और काल का सही निर्धारण हो सकता है। ज्ञातव्य है कि एक किलोमीटर के क्षेत्र में छह मंदिरों के भग्नावशेष हैं, लेकिन भारतीय पुरातत्वीय सर्वेक्षण विभाग और राज्य पुरातत्वीय सर्वेक्षण विभाग द्वारा रामगढ़ को छोड़ सरगुजा जिले के मुख्य स्थलों की तरह इसका भी पुरातात्विक सर्वेक्षण आज तक पूर्ण नहीं किया गया है, न ही जिले का गजेटियर प्रकाशित हुआ है।
सरगुजा जिले की भौगोलिक स्थिति, पर्यावरणीय वनस्पति तथा जनजातियों के अध्ययन से इस क्षेत्र की संस्कृति रामायणकालीन घटनाओं से आबद्ध किये जाने की परंपरा में निश्चित ही किसी महत्वपूर्ण सूत्र अथवा घटना का कुछ-न-कुछ अंश सन्निहित होगा, जिस पर अध्येताओं एवं विद्वानों का ध्यान तथा शोध कार्य आवश्यक है ताकि छत्तीसगढ़ की गौरवशाली ऐतिहासिक परंपरा सिर्फ सिरपुर, अड़भार, ताला, खरौद तथा मल्हार या कहें कि केवल महानदी- शिवनाथ नदी के तट तक  सीमित न रह कर रेण-सोन नदी के तट तक भी विस्तृत हो सके। 
 - दिनेश ठक्कर
(31 जनवरी 1988 को पत्रिका धर्मयुग, मुंबई में प्रकाशित)