देवरानी-जेठानी मंदिर युगल मंदिर हैं, जो अलग- अलग शिल्प परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये दोनों मंदिर ऐतिहासिक ग्राम तल्हाटी मंडल (ताला गांव) में मिट्टी के टीलों की सफाई और उत्खनन के बाद प्रकाश में आये थे। पर्याप्त संरक्षण एवं समुचित रखरखाव के अभाव में इन मंदिरों के भग्रावशेषों का रहा- सहा शिल्प-सौंदर्य भी नष्ट हो रहा है, जबकि ताला गांव का देवरानी मंदिर तो शासन द्वारा घोषित छत्तीसगढ़ के दस प्रमुख पुरातात्विक संरक्षित स्मारकों में से एक है।
पुरातत्वविदों के मतानुसार, देवरानी मंदिर छठी शताब्दी के पूर्वार्द्ध तथा जेठानी मंदिर छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में निर्मित हुए हैं। यद्यपि काल- निर्धारण के संदर्भ में अब भी भ्रांतियां व्याप्त हैं। एक पुरातत्व अधिकारी का कहना है कि जेठानी मंदिर, देवरानी मंदिर से पहले बना है। दाहिने पार्श्व पर स्थित देवरानी मंदिर अब शिखर विहीन है, जबकि बायीं ओर का जेठानी मंदिर पूरी तरह ढह गया है।
उत्तराभिमुख देवरानी मंदिर वस्तुतः जयेश्वर शिव का मंदिर हैं। इसकी गणना गुप्त काल के एक दुर्लभ मंदिर के रूप में की जाती है। साथ ही इसे देश के शिव मंदिरों में एक विलक्षण मंदिर की संज्ञा दी गयी है। ईंट पत्थरों के सम्मिश्रित वास्तुशिल्प का यह एक अनूठा उदाहरण है। इस मंदिर के ललाट बिंब में शिव के किरात रूप का उल्लेख मिलता है। यह रूप महाकवि भारवि के संस्कृत काव्य किरातर्जुनीयम् में वर्णित भी है। मंदिर के प्रवेश-द्वार के बायें पार्श्व पर भित्तियों में शिव-पार्वती और कौरव-पांडव का चौपड़ प्रसंग भी उत्कीर्ण है। लेकिन शनैः शनैः अब यह हिस्सा क्षरण का शिकार होता जा रहा है और आकृतियां क्षत-विक्षत हो रही हैं।
इस मंदिर में छत नहीं होने के कारण हवा-पानी का भी विपरीत असर पड़ रहा है। ऊपर से सरकार की लापरवाही शिल्प- सौंदर्य को मटियामेट करने को आमादा है। आज तक देवरानी मंदिर में शेड की व्यवस्था नहीं की गई है। इसका प्रतिकूल प्रभाव यह है कि मंदिर के आंतरिक भाग की प्रतिमाओं पर काई जम गयी हैं। प्रतिमाओं के कुछ अंग खंडित भी हो गये हैं। प्रतिमाओं पर निरंतर धूल- मिट्टी जमने के कारण उनके स्वरूप बिगड़ते जा रहे हैं। मंदिर के क्षैतिज स्तंभ के अंदर की ओर उत्कीर्ण शतदल कमल भविष्य में सुरक्षित रह पायेगा, इसकी भी उम्मीद कम है। अब तो शतदल कमल की पंखुड़ियों में बनी अभिषेक- नृत्यरत 108 नारी आकृतियां भी क्षरित हो रही हैं। पिछले एक वर्ष के भीतर इस मदिर के प्रमुख द्वार के बायें पार्श्व में उत्कीर्ण शार्दुल मुख क्षरण की चपेट में आ गया है। उसकी नासिका खंडित हो गयी है। दायें पार्श्व में उत्कीर्ण शार्दुल मुख पर भी क्षरण के लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं।
मंदिर के दायें-बायें स्तंभों के मध्य भाग में उत्कीर्ण गंगा-यमुना की आकृति भी प्रभावित हो रही है, जबकि यह देवरानी मंदिर की मुख्य विशेषताओं में से एक हैं। मंदिर के द्वार एवं पाषाण स्तंभों पर तराशे गये कलात्मक बेलबूटे भी क्षरण नहीं झेल पा रहे हैं। मंदिर के सामने एक पेड़ के नीचे भी कुछ दुर्लभ मूर्तियां यों ही पड़ी हुई हैं। छांव होने के कारण यह जगह मवेशियों की आरामस्थली भी है। यहां गंदगी का आलम भी है।
देवरानी मंदिर के बाहर हुई खुदाई के दौरान दायें सोपान के पार्श्व में गणेश की आसनस्थ प्रतिमा भी मिली है, जो क्षरित हो रही है। साथ ही मंदिर का पीठ भी उत्खनन से दृष्टिगोचर हुआ है, जिसकी सुरक्षा जरूरी है। ध्वस्त जेठानी मंदिर भी कमोवेश उपेक्षा भोग रहा है। दक्षिणमुखी इस मंदिर की नींव का ऊपरी भाग वर्गाकार है। अब भी इस मंदिर का गर्भ गृह स्पष्ट दिखता है। दक्षिण दिशा की सीढ़ियों के दोनों ओर अलंकृत पाषाणों के विशाल स्तंभ टूटे हुए दबे पड़े हैं। निचले भाग में पुरुष आकृतियां उत्कीर्ण हैं। हाथ टेके हुए पुरुष की एक विलक्षण प्रतिमा उपेक्षित पड़ी है। इस मंदिर के सामने नर्तकियों की चार खंडित प्रतिमाएं पत्थरों के टूटे स्तंभों के साथ खुले आसमान तले पड़ी हुई हैं। ये प्रतिमाएं गंदगी से सनी हुई हैं। खुदाई में निकली प्रतिमाएं तथा कलावशेषों का ढेर समीपस्थ निषादराज मंदिर के सामने लगा कर रख दिया गया है। इनके हाल भी बेहाल है।
इन पुरा-संपदाओं को एक स्थल पर सुरक्षित रखने के लिए सरकार द्वारा ताला गांव में संग्रहालय स्थापित किये जाने की कोई पहल नहीं की गयी है। मात्र एक चौकीदार के पद की स्थापना कर दी गयी है। अब तो यहां से ध्वंसावशेष भी चोरी होने लगे हैं। यहां पर्यटन की बेहद संभावनाएं हैं।
- दिनेश ठक्कर
(टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप की पत्रिका "धर्मयुग", मुंबई के 3 अप्रैल 1988 के अंक में प्रकाशित)