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बुधवार, 31 दिसंबर 2014

नहीं पिघलती है बर्फ कच्ची छतों में

















रात भर बर्फ अपनी ठंडी हथेलियों से
दरवाजे खिड़कियां खटखटाती है
भीतर घुसने का प्रयास व्यर्थ होने से
नींद के मारे पक्की छतों पर सो जाती है

बादलों की ओट में सूरज छिप जाने से
बर्फ दिन में भी सर्द खर्राटे मारती है
मखमली छतों की शोभा बढ़ाती है
धनी छतों को स्वर्ग सा आनंद देती है  

यदा कदा बर्फ रात को घुप्प अँधेरे में
निर्धन छतों में दबे पाँव पहुँच जाती है  
जीवन रोशनी बुझाने में खुश होती है
नहीं पिघलती है बर्फ कच्ची छतों में

पहाड़ पर बर्फ सफेद कहर बरपाती है  
निर्बल छतें ही खून से लथपथ होती हैं  
जमीन से लिपट कर दम तोड़ देती है  
बर्फ की चादर ही कफन बन जाती है      
 
@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(तस्वीर मेरे द्वारा)  


सोमवार, 29 दिसंबर 2014

पश्मीना ओढ़ा बूढ़ा पेड़

जवां चीड़ देवदारों के बीच
जीवन के अंतिम छोर पर
झुका पश्मीना ओढ़ा बूढ़ा पेड़
भारी बर्फबारी से शंकित है
आ न जाय गिरने की बारी
अनुभवी आँखों में नमी सी है
पड़ोसी पेड़ों से विनती करता है
मुझे अपनी जड़ों से जोड़े रखो
ठंडी होती देह को गरमाए रखो
आशाओं का अलाव जला दो
बुझते संबंधों को सुलगा दो
मेरी शाखों को ईंधन बना लो
तुम सूखे स्वार्थी पत्ते जला दो
सफेद आफत को राख कर दो
हम ऐसी ऊर्जा पैदा करें ताकि  
देह प्रेम अग्नि से गर्म हो जाय  
बर्फ भी पसीने पसीने हो जाय      

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
 (तस्वीर मेरे द्वारा)





रविवार, 21 दिसंबर 2014

बर्फ की चादर


पहाड़ों पर जब सोने सर्दी आई
बर्फ ने अपनी चादर बिछाई
गर्मी ने जाने में समझी भलाई  
कांपते हुए कहा सो जाओ माई 

मौसम के करवट बदलते ही   
पहाड़ों पर सर्दी सो गई   
बर्फ की चादर पर,  
कंपकंपाती हुई ठंडक 
लिपट गई  
समूची देह पर, 
शीत आलिंगन देख कर 
ऊंचा पारा हुआ शर्मीला, 
प्रवाहित रक्त भी जम कर   
हो गया है अब बर्फीला,   
उभर गए हैं त्वचा पर 
सफेद आफत के धब्बे, 
हाथ पांव सिकुड़ कर 
बने थरथराती गठरी,
सांसें भी मांग रही हैं 
अपने लिए प्राण वायु, 
जो आंख कान खोलें 
तो चुभने लगते है
सफेद हवाओं के झोंके,
ठिठुरती परिस्थितियों से      
जीवन ठहर सा गया है 

चीड़ देवदार भी कहने लगे हैं
सर्द सफेद छांव से उबार दो 
मुझे जर्द धूप का पसीना दे दो  
सूरज अपना अलाव जला दे  
आंखों की पुतलियों के अलावा   
पूरी देह को कहीं सफेद न कर दे  
यह बर्फ की चादर  
@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(तस्वीर : श्रीमती प्रीति ठक्कर द्वारा)       





  
       


  
 

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

जिंदगी का सफ़र

जिंदगी का सफर जारी है
तकलीफों की कड़ी धूप में
जीने का हौंसला मेरा बढ़ाती है
दुआओं की घनी छाँव
बीतते लम्हें नई राह दिखा जाते हैं
मुझे इस सफर में
ईमान की राह में थमेंगे नहीं
वक्त के काँटे चुभे ये पाँव

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(तस्वीर श्रीमती प्रीति ठक्कर द्वारा) 

आँसू हमारी आँखों में ही रहने दो

आँसू अपने गमों के हमारी आँखों में ही रहने दो
न जाने किस वक्त ये अंगारे बन खाक कर देंगे

हैवानों अब इंसानियत का लहू बहाना बंद कर दो
न जाने किस वक्त ये बारूद बन जमींदोज़ कर देंगे

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(सांकेतिक चित्र : गूगल से साभार)       

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

नापाक हैवानियत
















नापाक हैवानियत ख़्वाबों को भी
बेख़ौफ़ निशाना बनाती है  
पाक इंसानियत नन्हें ताबूतों में भी
खुद को मरा पाती है

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(सांकेतिक चित्र : गूगल से साभार)    

इंसानियत की मौत

इंसानियत की मौत को देख कर
आतंक मुस्कुरा रहा है
अपना वजूद ख़त्म होता देख
अमन चैन आंसू बहा रहा है
@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(सांकेतिक चित्र : गूगल से साभार)    

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

मुखौटा

परदा जब गिरता है
जीवन के रंगमंच का
तब दुखी हो जाता हैं
मुखौटा
देख कर असली चेहरा
अपने ही किरदार का
फिर भाव विहीन होकर
मुखौटा
निष्प्राण देह को तज कर
आशाओं की साँस के साथ
नया किरदार ढूंढ लेता है
मुखौटा
बार बार किरदार ढूंढता है
मुखौटा
किंतु सदैव निराश होता है
मुखौटा
तलाश में अब बूढ़ा हो गया है
मुखौटा
किरदार संग बेजान हो गया है  
मुखौटा  
@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(चित्र गूगल से साभार)   

गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

दिलीप कुमार को जन्म दिन की बधाई और मंगल कामनाएं


हमारा यह सौभाग्य है कि वर्ष 1995 में दिलीप साहब द्वारा टीवी जगत के प्रदत्त पहले लम्बे इंटरव्यू का अवसर "जी सिनेमा" में  प्रसारित होने वाले टीवी न्यूज सीरियल "अनबन" के लिए मिला था। उन पर बने आधे-आधे घंटे के दो एपिसोड टेलीकास्ट हुए थे। संजू सिन्हा द्वारा निर्देशित इस सीरियल का तब मैं पटकथा लेखक और मुख्य सहायक निर्देशक था। दिलीप साहब के साक्षात्कार का फिल्मांकन उनके पाली हिल, बांद्रा, मुम्बई स्थित बंगले में सुबह से शाम तक किया गया था। पहले साक्षात्कार के अलावा उस रोज उनके साथ व्यतीत अंतरंग क्षण, स्नेह और पारिवारिक व्यवहार मेरे जीवन के लिए यादगार और अविस्मरणीय हैं। इस दौरान दिलीप साहब की सेवाभावी धर्मपत्नी सायराबानो से प्राप्त स्नेह और आतिथ्य सत्कार की यादें आज भी जीवंत हैं। गौरतलब है कि दिलीप साहब का यह साक्षात्कार फिल्म "कलिंगा" के निर्माता सुधाकर बोकड़े के साथ हुई उनकी अनबन पर आधारित था। दिलीप साहब के निर्देशन में फिल्म "कलिंगा" के निर्माण में विलम्ब को लेकर सुधाकर बोकाड़े के साथ उनके बीच विवाद, आरोप प्रत्यारोप का लम्बा दौर चला था, जो फिल्म इंडस्ट्री में चर्चा का विषय बन गया था। दिलीप साहब ने हमें इसी शर्त पर उन पर तत्संबंधी दो एपिसोड बनाने की मंजूरी दी थी कि वे अपनी बात लगातार एक ही बैठक में बोलेंगे। उनके इशारे पर ही कैमरा ऑन और अॉफ होगा। केवल लंच के वक्त ही वे अपने कमरे में जाएंगे। फ़ाइनल एडिटिंग और प्रतीकात्मक तौर पर फिल्म के दृश्यों की मिक्सिंग भी उनके मन मुताबिक और निज सचिव की मौजूदगी में ही होगी ताकि विषय और साक्षात्कार के साथ न्याय हो सके। हमने भी दिलीप साहब की गरिमा और मान सम्मान के मद्देनजर शर्तों का पालन भी किया। उल्लेखनीय है कि दूसरे एपिसोड में ही निर्माता सुधाकर बोकाड़े ने अपने इंटरव्यू में दिलीप साहब से अपने आरोप और बयान पर माफी मांग ली थी। दूसरे एपिसोड के टेलीकास्ट होने के बाद दोनों के मध्य विवाद का पटाक्षेप भी हो गया। इस खुशी में दिलीप साहब ने होटल ताज में पार्टी दी और वहीं प्रेस कांफ्रेंस लेकर हमारे सीरियल "अनबन" को श्रेय देते हुए अपने विवाद की समाप्ति की घोषणा भी की। बॉलीवुड के विवादास्पद विषयों पर आधारित यह साप्ताहिक न्यूज कंट्रोवर्सी सीरियल उन दिनों बेहद लोकप्रिय हुआ था। 31 दिसंबर 1995 की शाम को जी टीवी पर भी प्रसारित हुए "अनबन 95 स्पेशल" कार्यक्रम में भी इन दोनों कड़ियों की मुख्य झलकियाँ शामिल थीं। दैनिक भास्कर बिलासपुर सहित देश के विभिन्न अख़बारों और पत्रिकाओं में इसकी समीक्षा रपट भी प्रकाशित हुई थी। ईश्वर से कामना है कि दिलीप साहब स्वस्थ और दीर्घायु हों।      
(ग्रुप फोटो में दिलीप साहब के साथ दृष्टिगोचर निर्देशक संजू सिन्हा और मैं )  
@ दिनेश ठक्कर "बापा"

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

दाम्पत्य जीवन

दंभ परे रख कर
जीना पड़ता है
दाम्पत्य जीवन
बनना होता है
परस्पर पूरक
रहना होता है
एकाकार होकर
तभी निभता है
दाम्पत्य जीवन

सुख दुख दो ऋतुएं हैं
दाम्पत्य जीवन की
समन्वय आवश्यक है
ऋतु परिवर्तन में
पतझड़ और बहार
आपसी परीक्षा लेते हैं
दाम्पत्य जीवन की
समझौता और जिम्मेवारी
पुष्पित करती है बगिया
दाम्पत्य जीवन की
फिर महकते हैं
समर्पण के फूल

इन्हीं सिद्धांतों के जल से
मेरे माता पिता ने भी
पुष्पित की थी बगिया
दाम्पत्य जीवन की
मैंने भी सिंचित की है
विरासत के जल से बगिया
दाम्पत्य जीवन की
किंतु समर्पण के फूल महके हैं
संगिनी के निःस्वार्थ सिंचन से
इसीलिए पुष्पित पल्लवित है
हमारा दाम्पत्य जीवन

@ दिनेश ठक्कर "बापा"




 



मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

फिल्म क्षेत्र के मेरे गुरू शत्रुघ्न सिन्हा जी को जन्म दिन की बधाई


फिल्म क्षेत्र के मेरे गुरु शत्रुघ्न सिन्हा जी को जन्म दिन
(9 दिसंबर) की बधाई और मंगल कामनाएं
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(ग्रुप फोटो वर्ष 1995 में प्रदर्शित फिल्म "अग्नि प्रेम" के सेट की है, जिसमें मुख्य अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा जी, निर्देशक एस. रूकुन जी और मैं सहायक निर्देशक बतौर अग्रिम पंक्ति में दृष्टिगोचर हूँ। शत्रुघ्न सिन्हा जी के सहयोग और मार्गदर्शन से ही इस फिल्म से मैंने असिस्टेंट डायरेक्टर के रूप में अपना फिल्म कैरियर शुरू किया था)  
   

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

जग जीत कर कहां चले गए

जग जीत कर कहां चले गए
चिट्ठी संदेश मायूस लौट आए
देश राग को क्यों रूला गए
गीत भी आंसुओं से भीग गए

जाते जाते कैसा राग छेड़ गए
सुर ताल से साथ छोड़ गए
हर साज को थे तुमने सजाए
इनसे हाथ जल्दी क्यों छुड़ा गए
जग जीत कर कहां चले गए

चाहने वालों को क्यों तड़पा गए
संगी संगीत को अब चैन न आए
गजल को तेरा ही गम सताए
अंखियों को अब नींद न आए
जग जीत कर कहां चले गए

सरगम भी गम से तनहा हो गए
सारे गम तुम्हारे अब हमारे हो गए
कागज की कश्ती किनारे कर गए
बारिश का पानी आंसू बना गए
जग जीत कर कहां चले गए

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(10 अक्टूबर 2011 को सुबह मुम्बई में प्रख्यात गजल गायक जगजीत सिंह का निधन होने पर श्रद्धांजलि स्वरूप मैंने यह गीत लिखा था, जो दैनिक भास्कर, बिलासपुर में 11 अक्टूबर 2011 को छपा था )
(ब्लॉग में इस्तेमाल चित्र गूगल से साभार)
   

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

राम भरोसे है राम लीला

मुम्बई में सांध्यकालीन हिन्दी दैनिक अखबारों की श्रृंखला में इंडियन एक्सप्रेस समाचार पत्र समूह के "संझा जनसत्ता" का स्थान प्रमुख माना जाता था। मुम्बई में पत्रकारिता करने के दौरान इस समाचार पत्र समूह से जुड़ कर मुझे लेखन कार्य का निरंतर अवसर प्राप्त हुआ था। "संझा जनसत्ता" के 3 अक्टूबर 1997 के अंक में "मुम्बई में रामभरोसे है राम लीला" शीर्षक से मेरी रिपोर्ताज प्रकाशित हुई थी। यह रिपोर्ताज आज भी मुझे सामयिक और प्रासंगिक लगती है। आर्थिक तंगी से पीड़ित राम लीला मंडलियों की हालत कमोवेश आज भी ऐसी ही है। आधुनिक और बदलते परिवेश के कारण न सिर्फ मुम्बई बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी पारम्परिक "राम लीला" के मंचन पर असर पड़ा है। इस लोक परम्परा को बचाए रखने आज भी जो मंडलियां सक्रिय हैं और जो आयोजक राम लीला का मंचन करा रहे हैं, वे भी बधाई के पात्र हैं।    
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                                ( दिनेश ठक्कर )
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन चरित्र और उनके आदर्शों की
जीवंत झांकी प्रस्तुत करती हैं राम लीला। यूं तो देश के विभिन्न प्रांतों में इसके मंचन की शैली और उसका प्रस्तुतीकरण भिन्न होता है, लेकिन उसका मूल भाव एक समान रहता है। राम लीला का मुख्य आधार वैसे तो रामचरित मानस ही है, लेकिन कई मंडलियां अन्य आधार ग्रंथों का सहारा लेती है। इसलिए भाषा में भी विभिन्नता पाई जाती है। खड़ी बोली, अवधी, भोजपुरी आदि इसकी संप्रेषक बोली होती है। मुंबई जैसे आधुनिक महानगर में भी राम लीला का गौरवशाली इतिहास रहा है। यहां वृंदावन, मथुरा, मुरादाबाद की व्यावसायिक मंडलियां एक लंबे अरसे से राम भक्तों को आकर्षित कर रही हैं। तो दूसरी ओर स्थानीय और गैर व्यावसायिक मंडलियां भी मुंबई के आधुनिक माहौल को राममय बनाने में अपनी अहम भूमिका अदा कर रही हैं।
मुंबई और आसपास के उप नगरों में राम लीला आम तौर पर दो चरणों में आयोजित होती है। एक दशहरा से पूर्व और दूसरी उसके बाद। दशहरा के बाद बोरीवली और वडाला की राम लीला बेहद प्रसिद्ध है। नवरात्रि से शुरू होने वाली राम लीलाओं की संख्या इस वर्ष तकरीबन चालीस है। इनमें आठ- दस राम लीला का मंचन पूरी साज-सज्जा और भव्यता के साथ किया जाता है। मुंबई में सार्वजनिक राम लीला के जनक पं. शोभनाथ मिश्र माने जाते हैं। यद्यपि वर्ष 1964 के पहले राम लीला का स्वरूप छोटा हुआ करता था। उनके दर्शक उसी मुहल्ले के ही होते थे। वर्ष 1961 में आजाद मैदान में हुई राम लीला का भी उस समय काफी अर्थ हुआ करता था। तब इसे सिने कलाकारों द्वारा पेश किया गया था, लेकिन दर्शकों में इनकी लीला लोकप्रिय नहीं हो सकी। इसलिए अगले दो- तीन वर्षों में इसका आयोजन बंद हो गया।
पंजीकृत समितियों की देखरेख में होने वाली राम लीला की असल शुरुआत वर्ष 1953 में हुई थी। तब इसके आयोजन का जिम्मा पं. शोभनाथ मिश्र को सौंपा गया था। यद्यपि इसके पहले भी सांस्कृतिक मंच पर व्यावसायिक राम लीला होती थी। इसे प्रस्तुत करने उत्तर प्रदेश और बिहार की कुछ मंडलियां मुंबई आया करती थीं। हालांकि यहां आने से उन्हें कोई खास आर्थिक फायदा नहीं हो पाता था। केवल आरती के चढ़ावे से उन्हें संतुष्ट रहना पड़ता था। रोज के भोजन की व्यवस्था भक्तगण कर दिया करते थे। इन सब दिक्कतों के कारण यह क्रम भी बाधित हुआ। पं. शोभानाथ मिश्र उत्साही थे। वे राम भक्तों के लिए स्थाई आयोजन का स्वप्न देखा करते थे। उत्तर भारतीयों को बेहतर धार्मिक माहौल भी वे देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने फोर्ट में राम लीला समिति का गठन किया। इसके तहत उन्होंने राम लीला का आयोजन शुरू करवाया। पं. मिश्र के अच्छे संपर्क और संबंधों के कारण नामी हस्तियां भी इस समिति से जुड़ीं और फिर एक निर्बाध सिलसिला चल पड़ा राम लीला के आयोजन का।
73 वर्ष पहले जूना खार के हनुमान मंदिर का राम लीला महोत्सव भी यादगार हुआ करता था। भले ही इसका स्वरूप छोटा था। महावीर दास के संचालन में महोत्सव की शुरुआत हुई थी। अब इनके पौत्र शिवमूर्ति दास इस क्रम को अपने स्तर पर आगे बढ़ा रहे हैं। हालांकि इनकी समिति बड़ी नहीं हैं। सहयोग के बलबूते आयोजन किया जाता है।
मुंबई में भव्य राम लीला के आयोजन में श्री आदर्श राम लीला समिति का महत्वपूर्ण योगदान है। वर्ष 1964 में इस समिति की स्थापना हुई थी। तब अलग- अलग क्षेत्र में राम लीला के आयोजन का निर्णय लिया गया था। अखंडानंद सरस्वती की प्रेरणा से ही श्री राम लीला समिति का नाम परिवर्तित कर श्री आदर्श राम लीला समिति किया गया था। एम.बी. जयकर, विनोद गुप्ता, जुग्गीलाल पोद्दार, जुगू किशोर बंसल, रमेश ब्रजवासी इसके प्रमुख संस्थापक थे। एम.बी. जयकर संस्थापक अध्यक्ष रहे, जबकि शिवकुमार भुवालका और पं. शोभनाथ मिश्र उपाध्यक्ष हुए थे। जयकर जी के बाद शिवकुमार भुवालका को समिति का अध्यक्ष बनाया गया। वर्ष 1969 में उनके निधन के बाद रामप्रसाद पोद्दार वर्ष 1974 तक अध्यक्ष रहे। वर्ष 1974 से 1987 तक सदाजीवत लाल चंदूलाल बहल का नेतृत्व रहा। इनके निधन के बाद 1987 में दौलतराम भेरूमल पहलाजानी अध्यक्ष बने। वर्तमान में इसके अध्यक्ष दौलतराम और मंत्री स्वरूपचंद गोयल और राजेंद्र अग्रवाल हैं। इस समिति द्वारा समय के हिसाब से राम लीला के आयोजन का स्थल भी बदला जाता रहा। वर्ष 1964 में आजाद मैदान, 1965 में क्रास मैदान ,1968 से 1970 तक फिर से आजाद मैदान, 1971 से फिर क्रास मैदान, 1972 से क्रास मैदान के बदले चौपाटी में राम लीला का आयोजन होता रहा। शिवाजी पार्क दादर में राम लीला वर्ष 1969 से शुरू हुई थी। 1972 से काटनग्रीन और 1977 से वडाला में दशहरा के बाद राम लीला हो रही है। 1976 से चेंबूर में भी राम लीला शुरू हुई थी, जो बाद में बंद कर दी गई। 1982 में श्री आदर्श राम लीला समिति ने वडाला की राम लीला बंद कर बोरीवली में राम लीला की शुरुआत की। 1964 में जब इस समिति ने राम लीला की शुरुआत की थी तब उसका खर्च मात्र 35 हजार रूपए होता था, जो अब बढ़ कर 5 लाख रूपए से भी ज्यादा हो गया है। डांडिया रास के आयोजन की तरह इसके बड़े प्रायोजक और विज्ञापनदाता नहीं मिल पाते हैं।
श्री आदर्श राम लीला समिति के अलावा अन्य बड़ी राम लीला समिति भी हर वर्ष सरकारी उपेक्षा को लेकर दुखी रहती है। मैदान के आबंटन, उसकी अनुमति, बिजली की दर, उसकी अग्रिम जमा राशि, पानी की दर आदि को लेकर समितियों को काफी परेशानी झेलनी पड़ती है। इस वर्ष सबसे ज्यादा तकलीफ श्री आदर्श राम लीला समिति को हुई। इनके दादर स्थित शिवाजी पार्क की राम लीला को आयोजन दिवस के मात्र एक दिन पहले लिखित रूप से मैदान की अनुमति मिली। समिति के मंत्री स्वरूपचंद गोयल ने बताया कि आयोजन में दो दिन पहले सरकारी अमला धमकी देकर गया था कि यदि लिखित अनुमति नहीं होगी तो उनके मंच और पंडाल को तोड़ दिया जाएगा। राज्य मंत्री राजपुरोहित की सक्रियता के कारण हालांकि मामला सुलट गया। श्री गोयल ने बताया कि बिजली की दर में भी एकरूपता नहीं रहती है। अग्रिम जमा राशि कई दफा एक वर्ष बाद भी वापस नहीं की जाती है। हिंदू मतों की राजनीति करने वाले बाल ठाकरे और मनोहर जोशी का रवैया राम लीला के प्रति कतई सम्मानजनक और सहयोगात्मक नहीं है। जब बाल ठाकरे विपक्ष में थे तब वे बिना बुलाए लीला महोत्सव में आकर लोगों को आश्वस्त करते थे कि उन्हें कोई तकलीफ नहीं होने दी जाएगी और न ही समय की पाबंदी से डरने की जरूरत है। अब जब उनकी पार्टी सत्ता में है तो सबसे ज्यादा तकलीफ ये ही लोग दे रहे है। इस वर्ष भी रात साढ़े ग्यारह बजे तक लाऊड स्पीकर चालू रखने का आदेश दिया गया है। इसके कारण आगे की लीला प्रभावित होने का अंदेशा है। इसी तरह के आदेश के कारण पिछले साल भी पुलिस से झड़पें हुआ करती थीं।
हालांकि राम लीला समितियों की समस्याओं के निदान के नाम पर राम लीला महासंघ का गठन वर्ष 1990 में किया गया था। राममनोहर त्रिपाठी की प्रेरणा से इसकी स्थापना हुई थी। स्व. रामनाथ गोयनका और विनोद गुप्ता ने इसकी स्थापना में हर दृष्टि से बेहद सहयोग किया था। इस महासंघ के वर्तमान में 16 राम लीला समिति के लोग सदस्य हैं। भालचंद्र दिघे इसके अध्यक्ष और राजेंद्र अग्रवाल मानद मंत्री हैं। यह महासंघ अपने उद्देश्यों को लेकर काफी हद तक सफल है।
मुंबई की राम लीला समितियों के क्रियाकलापों और मंडलियों के कलाकारों की सोच और स्थितियों के कारण राम लीला का स्वरूप भी अब बदला है। श्री आदर्श राम लीला समिति द्वारा चौपाटी और शिवाजी पार्क में की जाने वाली राम लीला सजावाट और भव्यता के मामले में अग्रणी कही जाएगी। इनके आयोजकों का मानना है कि जब तक राम लीला में मर्यादा के तहत आकर्षण नहीं होगा तब तक दर्शकों में इसका आकर्षण भी नहीं बढ़ेगा। समय के साथ जरूर इसका स्वरूप कुछ बदला है, लेकिन इसका मूल आधार बिलकुल परिवर्तित नहीं हुआ है। श्री राम लीला सेवा केंद्र (क्रास मैदान धोबी तालाब), साहित्य कला मंच (आजाद मैदान), श्री रामायण प्रचार समिति (जुहू), महाराष्ट्र राम लीला मंडल (आजाद मैदान), राम लीला प्रचार समिति (मालाड़) आदि के लोगों का भी यही मानना है कि राम लीला में अन्य लीला की तरह आमूलचूल परिवर्तन नहीं हुआ है। अभी भी उसका लोक और धार्मिक तत्व बरकरार है।
राम लीला प्रस्तुत करने वाली मंडलियों की माली हालत हालांकि संतोषजनक नहीं है। आर्थिक तंगी के कारण कई मंडलियां बिखराव के कगार पर हैं। मथुरा, वृंदावन और मुरादाबाद से यहां आने वाली मंडली के संचालकों में इस त्रासदी का असर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। अनंत राम लीला मंडल (मथुरा) के संचालक बैजनाथ चतुर्वेदी का कहना है कि सरकार से हमें जरूरत के मुताबिक सहयोग नहीं मिल पाता। मैं और मेरी मंडली के कलाकार भक्ति भावना से प्रेरित होकर ही अब तक राम लीला में हिस्सा ले रहे हैं। इससे हमें खास आर्थिक फायदा नहीं हो पाता। यही बात चतुर्वेद राम लीला मंडल (मथुरा) के संचालक वासुदेव चतुर्वेदी, स्वामी रामस्वरूप शर्मा (वृंदावन) भी कहते हैं।

(इंडियन एक्सप्रेस समाचार पत्र समूह के "संझा जनसत्ता", मुम्बई में 3 अक्टूबर 1997 को प्रकाशित)

मंगलवार, 30 सितंबर 2014

हम रेशम के कीड़े

स्वार्थ के शहतूती पत्ते खाकर
कब तक बने रहेंगे हम
रेशम के कीड़े
अपनी मन-मज्जा से
कब तक स्वयं के लिए
बुनते रहेंगे आवरण हम
कब तक चलेगी प्रक्रिया
पिल्लू से कोया बनने की
कब तक भीतर फंसे रहेंगे
स्व निर्मित तंतु कोश में
कब छुटकारा पाएंगे हम
मोहक इन्द्रियों की कैद से

क्यों स्वयं को जकड़े हैं हम
मोह माया के मारक रेशे से
क्यों इतने आसक्त हैं हम
इस मायावी आवरण से
क्यों तोड़ देते नहीं हैं हम
झूठे सांसारिक बंधन को
क्यों भूल गए हैं हम
जीवन की उपयोगिता को
क्यों इतने विरक्त है हम
मुक्ति के मार्ग से
क्यों भटक गए हैं हम
जीवन के सत्य पथ से

कहां किसके हाथ है
रेशमी सांसों की डोर      
नहीं जानते हैं
रेशम के कीड़े
कहां तक लिपटते रहना है  
अनभिज्ञ हैं
रेशम के कीड़े
कहां तक मृत्यु को बुनना है
नहीं जानते हैं
रेशम के कीड़े
कहां क्यों कब जैसे प्रश्न जाल से
आबद्ध हैं
रेशम के कीड़े
आत्मघाती प्रश्नों पर अनूत्तर हैं
रेशम के कीड़े  

जीवन की सार्थकता तज कर
मन मज्जा से बनाए गए
कालग्रस्त कोया आवरण में
अपने ही तागों से बुन लेते हैं
स्वयं के लिए रेशमी कफ़न
रेशम के कीड़े
जीवित रहते उसे ओढ़ लेते हैं
और इसी में दम घुट जाता है
अंततः तड़प कर मर जाते हैं
रेशम के कीड़े

दुष्परिणाम से बचना है तो
रेशमी कर्म बंधन को तोड़ कर
बनना होगा तितली हमें
तब उड़ सकेंगे मुक्त होकर
किन्तु समझ नहीं पाते हम
तितली होने के मायने
समय रहते कोश मुक्त होकर
नहीं उड़ेंगे तो
मार दिया जाएगा निर्ममता से
गर्म पानी में डूबा कर
नोंच लिया जाएगा रेशमी तन
रेशम के कीड़े की मानिंद
फिर भी क्या बने रहेंगे हम ऐसे
रेशम के कीड़े

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(चित्र : गूगल से साभार)  
 
 
   

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

परिंदे को आसमां बुलाए

परिंदे को आसमां बुलाए
उड़ जा दरख़्त बेगाने हुए
पत्ता पत्ता भी खुदगर्ज़ हुए
उड़ना होगा आज़ादी के लिए

शाख से साथ छूटता जाए
जड़ों से नाता टूटता जाए
हवा का रूख बदलता जाए
उड़ना होगा आज़ादी के लिए

बुरे वक्त में अपने हुए पराए
पर कतरने पर आमादा हुए
दाना पानी के लिए तरसाए
उड़ना होगा आज़ादी के लिए

देर न कर वक्त बीता जाए
आसमां पुकारे बांहें फैलाए
लंबी उड़ान का हौंसला लिए
उड़ना होगा आज़ादी के लिए

ज़मीं को रूख़सत करते हुए
बेमानी रिश्तों को तोड़ते हुए
बेदर्द जहां से कूच करते हुए
उड़ना होगा आज़ादी के लिए

परिंदे को अब चैन न आए  
जिंदगी के पंख फड़फड़ाए
आसमां की पुकार सताए
उड़ना होगा आज़ादी के लिए

अब वह जा रहा है हंसते हुए
देख रहा जमाने को रोते हुए
उड़ा है वह नई उम्मीदें लिए
आसमां खड़ा है फूल बिछाए

सूरज चांद सितारे भी आए
मिल कर सबने गले लगाए
जन्नत के इंद्रधनुष बनाए
खुश है वह आसमां ओढ़े हुए

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
     (चित्र : गूगल से साभार)

बुधवार, 17 सितंबर 2014

साबरमती आश्रम के अश्रु

साबरमती आश्रम का ह्रदय कुंज
निवास रहा है सत्य अहिंसा का
साक्षी रहा है सत्य के प्रयोग का
स्थल रहा है संबोधन विशेष का
मोहनदास करमचंद गांधी से
महात्मा गांधी बनने की धड़कन
झकझोरती रही ह्रदय कुंज को
स्वराज्य पाने की प्रतिज्ञा
आधार बनी थी दांडी कूच की
सफल वापसी की प्रतिज्ञा
गर्वित करती रही ह्रदय कुंज को
स्वराज्य प्राप्ति के कर्मयोग ने
मिलन केंद्र बनाया ह्रदय कुंज को
सत्य अहिंसा के हाथ से चला था
स्वराज्य का चरखा
किंतु अब मौन है यह चरखा
ह्रदय कुंज की धड़कनें
शांत हो गई हैं बंद कमरे में
आदर्श संदेश और स्मृतियां
शेष रह गई हैं प्रदर्शनी तक
अपनी ही खादी के ताने बाने में
तड़प रही है
महात्मा गांधी की आत्मा
राजनीति के चरखे से
अब काते जा रहे हैं स्वार्थ के सूत
देश का नमक अदा करने में
मारी जा रही है दांडी
सत्य के प्रयोग का पक्षधर
साबरमती आश्रम का ह्रदय
अब द्रवित है झूठी गांधीगिरी से
महात्मा की आत्मा का रूदन देख
अनवरत बह रहे हैं
साबरमती आश्रम के अश्रु

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
     (चित्र : प्रीति ठक्कर)


 















शनिवार, 6 सितंबर 2014

धवल जीवन का ब्लैक बोर्ड

सरस्वती को पूजने वाला शिक्षक
पिस रहा है आज
दो विषम पाटों के बीच
सिद्धांत और स्थितियों के मध्य
घर्षण कर रहा है उसे मर्माहत
भविष्य गढ़ते गढ़ते
वर्तमान होने को है कालातीत
सबके ज्ञान चक्षु खोलते खोलते
बंद होने को आतुर हैं उसकी आंखें
मिट्टी को आकार देने वाले हाथ
अब जीवन से कर रहे हैं दो दो हाथ
गरीबी में भी पाठ पढ़ाते पढ़ाते
अब झुक गई है उसकी कमर
महंगाई की मार झेलते झेलते
अब टूट गई है उसकी कमर

बचपन में माँ से मिले संस्कार
बुढ़ापे में भी बढ़ा रहे हैं हिम्मत  
ईमानदारी है बुढ़ापे की लाठी
प्रेरणादायी है इसकी कद काठी
रगों में संचारित है सेवा का रक्त
शिक्षा मंडी से नहीं रखा सरोकार
ज्ञान के व्यापार का नहीं है पक्षधर
तराजू से स्वयं को रखा है दूर
तुला नहीं इसीलिये अतुलनीय हैं

लक्ष्मी के उल्लू बिना मांगे
आज भी देते रहते हैं उसे सलाह
लक्ष्मी की पूजा करो
और अपना उल्लू सीधा करो
घी निकालना है तो उंगली टेढ़ी करो
छप्पर के मकान में रहने वाले
सरस्वती पूजक शिक्षक
लक्ष्मी की पूजा करो
फिर ऊपर वाला देगा छप्पर फाड़ के
परंतु सिद्धांतवादी शिक्षक
लक्ष्मी के उल्लुओं से है असहमत
धवल जीवन के ब्लैक बोर्ड पर वह
नहीं लिखना चाहता है काला अध्याय
उसे स्वीकार है उसका कोरा रह जाना
मिट्टी को आकार देते हुए
उसे स्वीकार है मिट्टी में मिल जाना
लक्ष्मी की पूजा करते हुए
उसे स्वीकार नहीं है पत्थर बन जाना

जो उसके भीतर है वही बाहर भी है
वह फलों से लदे वृक्ष की मानिंद है
जड़ से उखाड़ दिए जाने के बाद भी
पीढ़ियों को अपनी ताकत दे जाएगा
झंझावतों से सतत जूझने के बाद भी
अनुभवों से सबक लेना सीखा जाएगा
गुरू और गोविंद में फर्क बता जाएगा
साल में एक बार याद करने पर भी
गुरू घंटालों को वह मंच दे जाएगा

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
     (चित्र : गूगल से साभार)  



शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

कोणार्क का अकेला घोड़ा















समय के मारक प्रहार से
हो चुका है मरणासन्न  
कोण के अर्क का रथ
धूमिल हो गई है आभा
तेजस्वी सौंदर्य की
ठंडी हो गई है ऊर्जा
अनवरत गमन की
विध्वंसकों की चाबुक से
कालकवलित हो गए
छह घोड़े
साथ छोड़ गया सारथी
अरूण
हो रहा है असमय अस्त
कोणार्क
खंडित रथ के पहियों ने भी
अलग बना ली है पहचान
और अकेला छोड़ दिया है
इकलौते बचे घोड़े को
कोणार्क का अकेला घोड़ा
शोक संतप्त है
अब अपने अकेलेपन से
अपंग होकर जूझ रहा है
स्वयं अपने अस्तित्व से

क्या इसीलिये नरसिंह तुमने
कोण के सूर्य को
पत्थरों से रथारूढ़ कराया था
कि आस्था मोम की तरह
कभी यूं ही पिघल न जाये
किंतु नरसिंह तुम यह भूल गए
कि राज विद्वेष की तपन
आस्था को पिघला देगी
और फिर हुआ भी ऐसा
यदाकदा विद्वेषी मनुष्य
पत्थर दिल बन कर
श्रद्धा मार्ग से करते रहे विमुख
कोणार्क के रथ को
खंड खंड करते रहे आस्था को
व्यथित सदियों ने भी देखा है
विद्वेषी मनुष्य को पत्थर बनते
इसके बाद भी क्या यही कहेंगे
कि कोणार्क के पत्थरों की भाषा
अच्छी है मनुष्यों की भाषा से

कोणार्क का अकेला घोड़ा
नहीं कर सका है विस्मृत
अपने अतीत की गति को
सप्त अश्व युक्त रथ के पहिए
सातों दिवस बारहों मास
सहायक थे गतिशीलता में
उदित मध्यान्ह अस्त सूर्य
ऊर्जित रहते रथारूढ़ होकर
देवदासियों की नर्तन मुद्राएं
प्रेमी युगल की काम क्रियाएं
देव, गंधर्व, जीव की अवस्थाएं
गूढ़ भावार्थ देती रही रथ को
काला पहाड़ की क्रूरताएं
कारण बनी रथ विखंडन की
शिखर छत्र पृथक किए गए  
रथच्युत किया कोणार्क को
आसंदी में रेत पत्थर भरे गए
रथ रक्षार्थ नव ग्रह बेबस हुए
अपनी ही रक्षा में विफल हुए
पूर्ण ग्रहण लगा कोणार्क को
तरस रहा है वह मोक्ष के लिए

कोणार्क का अकेला घोड़ा
अतीत की छाया से है हताश
वर्तमान की उपेक्षा से निराश
भविष्य की दशा से है आक्रांत
बिरंची नारायण बिना टूटा रथ
अब और उसे नहीं देखा जाता
रथ के ध्वंसावशेष की वेदना
अब और उससे नहीं सही जाती
वह जान गया है श्रद्धा का मार्ग
अब कोणार्क के हिस्से में नहीं है
आस्था के फूल अब पत्थर बन गए हैं
वह जान गया है सारथी अरूण
पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर के सिंह द्वार समक्ष
स्पर्शी स्तम्भ पर अनाथ बैठा है
नाथ का संग साथ पाने वह असमर्थ है
वैभव वापसी की स्तुति असफल है
नहीं मिल रहा मोक्ष प्राप्ति का कोई संकेत
वह जान गया है कोण का सूरज
अब कोणार्क लौटना नहीं चाहता है
कोणार्क का अकेला घोड़ा
अपने अकेलेपन से दुःखित है
वह आशंकित है
कि किसी सांझ, सूर्यास्त होते ही
उसका जीवन भी हो जाएगा अस्त !

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
     ( तस्वीरें : दिनेश और प्रीति ठक्कर )



सोमवार, 4 अगस्त 2014

कहीं दूर गगन की छांव में

राग रागिनियों की थी वो बेला  
उनके संग आया सुरों का रेला
पीछे छोड़ गए वे यादों का मेला
ऊपर वाले ने ये कैसा खेल खेला

आए थे वे जमीं पर खुद रोते हुए
चले गए वे जग को हंसाते हुए  
जीवन की उलझन छिपाते हुए
गीत जीवंत वे कर गए गाते हुए

याद आते तो गाती है हर धड़कन
ह्रदय को होता सुरों पर अभिमान
सुन कर स्वस्थ हो जाता तन मन
रगों में प्रवाहित होती सुरीली तान

खिलंदड़ चेहरे ने दर्द खूब छिपाए
हाथ की लकीरों ने कई भेद दबाए
अनकही दास्तां भी साथ छोड़ गए
विधि के विधान को कौन पढ़ पाए

आंसुओं से सींचा खुशी का तराना
सुन कर उसे खुश होता है जमाना
महफिल में झूम उठता है दीवाना
गीतों में चाहता हर कोई खो जाना

कह रहे हैं सिसकते हर साज
तेरे बिना जीना दुश्वार है आज
उखड़ी उखड़ी सी सांसें सुरों की
तान थम सी गई है तरानों की

सरगम की उदास बगिया में
सुगंध नहीं मिलती है फूलों में
भौंरों ने छोड़ दिया है मंडराना
कलियों को न भाता है खिलना

कहीं दूर गगन की छांव में
यादों के साज की संगत में
गा रहे हैं वे अकेले अकेले
सुन रहे हैं चांद तारे अलबेले  

उस आभासी गगन के तले
न गम मिले न आंसू निकले  
उन्हें अब प्यार प्यार ही मिले
सूरज की पहली किरण मिले !

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(चित्र : गूगल से साभार)

शनिवार, 2 अगस्त 2014

मरते नहीं हैं कभी प्रेमचंद

मरते नहीं हैं कभी
प्रेमचंद
जीवित रहते हैं सदा
प्रेमचंद
सच्चे शब्दार्थों में
निःस्वार्थ कलम में
उत्पीड़ित देह में
शोषित पात्रों में
आक्रांत बस्तियों में
सतत जागृत रखना हैं
शब्द साधकों को
प्रेमचंद
अपने सार्थक सृजन में
बोध कराना है अक्षरों में
प्रेमचंद
होने के अपने सही मायने
अभिव्यक्ति की अनुभूति
शब्दों की व्यंजना
अक्षरों का अंकन
वाक्यों का विन्यास
रचना की सार्थकता
होगी सफल जब कभी
हम झांकेंगे अपने भीतर
ह्रदय से होंगे एकाकार
प्रेमचंद की आत्मा से
तब पुनः दिखेंगे सृजन में
प्रेमचंद

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
     (चित्र : गूगल से साभार) 

फिर कब आओगे रफी












अकेले अकेले कहां चले गए
रफी
सुरों को बेसहारा क्यों कर गए
रफी
राग रागिनियों को क्यों रूला गए
रफी
गाते सुनते आंखों में उतर आए
रफी
आंसू बन कर तुम छलक गए
रफी
छलकते आंसू भी मोती बन गए
रफी
यादें अपनी छोड़ गए गाते हुए
रफी
ढूंढ रहा है जमाना तुम्हें रोते हुए
रफी
सुर ताल प्रतीक्षारत हैं पूछते हुए
फिर कब आओगे
रफी
सरगम ने जब तुम्हारे गीत सुनाए
रफी
साज भी जब संग संग गुनगुनाए
रफी
नग़मों में अक्स तुम्हारे उभर आए
रफी
यूं भुला ना पाएंगे वक़्त के पहरुए
रफी

जब भी ख्यालों में तुम आए
रफी
मौसिक़ी में तुम ही नजर आए
रफी
वो समा हम ना भुला पाए
रफी
गायिकी को गुलज़ार कर गए
रफी
ढूंढती ग़मगीन निगाहें बुलाए
रफी
चाहने वालों को बहुत याद आए
रफी
गाने वाले दर्द में डूबे गीत गाए
रफी
साजिंदे सिसकता साज सुनाए
रफी
रोज पुरानी राहों से आवाज दिए
रफी
फिर कब आओगे
रफी

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
     (चित्र : गूगल से साभार)

शनिवार, 26 जुलाई 2014

पुरी के काष्ठमय जगन्नाथ














जगन्नाथ करते हैं स्नान
बद्रीनारायण में
श्रृंगार स्थल है
द्वारका
करते हैं अन्न का भोग
पुरी में
जगन्नाथ का शयन स्थल है
रामेश्वरम
मान्यताओं के हैं ये चार धाम

जगन्नाथ का अन्न भोग तीर्थ
पुरी
आबद्ध है आध्यात्मिक आस्था
और दार्शनिक विशेषणों से
पुरूषोत्तम, उड्डियान, जमनिक
कुशा, शंख, नीलाद्रि, श्री क्षेत्र
जगन्नाथ धाम को करते हैं
उद्बोधित
अपने शब्दार्थों से आस्थावान
पुरूषोत्तम शंख क्षेत्र पुरी
पीढ़ियों का है आस्था धाम

जगन्नाथ मंदिर है समर्पित
विष्णु के अवतार कृष्ण को
परंतु कृष्ण के ज्ञान से परे
आस्था के शंखनाद के साथ
प्रतिमा पर वर्चस्व का चक्र
करता रहा रक्तरंजित
राजकीय इतिहास को
सदियों की साक्षी स्याही ने
दर्ज कर दी है अपनी पीड़ा
पीढ़ियों के समय ध्वज पर

मगध नरेश महाझपनंद
प्रतिमा हरण से हुए कलुषित
कलिंग सम्राट खारवेल के
पराक्रम से हुआ प्रतिमा का
पुनः प्रतिष्ठापन
उत्कल नरेश ययाति केशरी
मंदिर भव्यता के बने निमित्त
समय और समुद्री जलवायु
खंडित करती रही
श्रद्धा की शिला से निर्मित
जगन्नाथ मंदिर को
गंगवंशीय नरेश चोड़गंग देव
अनंत बर्मन अनंगभीम देव
खुर्दा नरेश रामचन्द्र देव
पुनर्निर्माण के बने माध्यम

कलिंग शैली की स्थापत्य
वास्तु शिल्प कला
वक्र रेखीय आकारयुक्त
जगन्नाथ मंदिर को देती है
नव आयाम
गर्भ गृह के हैं सार्थक मायने
रत्न मंडित पाषाण चबूतरा
विराजित वेदिका स्थल है
जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा का
काष्ठमय प्रतिमाएं
जीवंत होने की देती है प्रेरणा
विमान, मुखशाला, जगमोहन
भोग मंडप हैं मंदिर के प्रभाग
शिखर पर स्थापित नील चक्र
प्रतीक है सुदर्शन चक्र का
लहराता लाल ध्वज
संकेत देता है
जगन्नाथ की उपस्थिति का

पूर्व में सिंह, पश्चिम में बाघ
उत्तर में हाथी, दक्षिण में अश्व
ये चार दिशा प्रवेश द्वार हैं
मतान्तर दर्शनाभिलाषियों के हैं
परंतु मंदिर के भीतर मिलती
एकाकार होने की सीख
सिंह द्वार सन्मुख अरुण स्तंभ
सूर्य शक्ति का है परिचायक
अरुण स्तंभ के स्पर्श पश्चात प्रवेश
यानी स्वयं को आलोकित कर
जगन्नाथ के निकट जाना है
चहारदीवारी मेघनाथ प्राचीर
रोकती है समुद्र की गर्जना
संदेश देती है दर्शनार्थियों को
क्रोध कलह स्वर शांति का
असहिष्णु न बनने का
यहां की बाईस सीढ़ियां हैं
असल में अवगुणों की
जिसे पार कर मिलता है
दर्शन लाभ जगन्नाथ का
 
वृहद रसोई घर में बनते हैं
जगन्नाथ के लिए
नैवेद्य योग्य विविध व्यंजन
चढ़ता है भोग महाप्रसाद
धन्य होते ग्रहण कर दर्शनार्थी
कैसी है विडम्बना
कैसा है विरोधाभास
कैसी है मानवीय सोच
मंदिर के बाहर बेबस बैठे
भूखे पेट हाथ फैलाए
लाचार दरिद्र नारायण में
क्यों नहीं दिखते हमें
जगन्नाथ
क्यों नहीं चढ़ाते इनके सन्मुख
भोग चढ़ावा
क्या इनसे नहीं मिलेगा पुण्य
कब तक रहेगा ये प्रश्न अनुत्तरित

जगन्नाथ कहलाते हैं
पतित पावन
अस्पृश्य पतित जनों के हैं
उद्धारकर्ता
सिंह द्वार के निकट भी विराजित
बाहर से भी मिलता दर्शन लाभ
फिर हम क्यों उलझे हैं
छुआछूत के मकड़जाल में
फंसे हैं वर्ण भेद के भंवर में
दुःखित पतित जनों में
क्यों नहीं दिखते हमें
जगन्नाथ
कब होगा हमारा दिल दिमाग
पावन
इसका जवाब जगन्नाथ ही जाने

काष्ठ खंड में भी रहते जीवंत
जगन्नाथ
भावानुरूप होते हैं श्रृंगारित
जगन्नाथ
तिथि विशेष में होते वेशधारित
जगन्नाथ
एक विग्रह में बहु विन्यासित
जगनाथ
पद्म, स्वर्ण, गजेंद्र मोक्ष वेश
प्रलंबासुर वध, कालिया दमन
वन भोजि, रघुनाथ, नरसिंह वेश
राधा दामोदर वेश में भी श्रृंगारित
जगन्नाथ
कल्याण भाव करते हैं प्रस्फुटित
विविध वेश से करते हैं प्रमाणित
जगन्नाथ
सत्कर्मों से होगा जीवन फलित
जगन्नाथ
अपने बहुरूप से हमें करते प्रेरित
व्यक्तियों का चेहरा हो छद्म रहित
हर चेहरा हो कल्याण भाव सहित
मुखौटा धारण में हो अच्छी नीयत
तभी होगा हमारा जीवन आनंदित

रथ यात्रा में एकता होती है प्रदर्शित
हर वर्ग के श्रद्धालु होते हैं हर्षित
जगन्नाथ
नंदी घोष रथ पर होते विराजित
बलभद्र
तालध्वज रथ पर होते विराजित
सुभद्रा
देवदलन रथ पर होती हैं विराजित
सांकेतिक रंगों से होते सुसज्जित
रस्सा खींचते हाथ आस्था सहित  
गुंडिचा मंदिर होते हैं ये प्रस्थित
बाहुड़ा यात्रा भी करती है प्रफुल्लित


मंदिर से बाहर आकर विराजित
रथारूढ़ जगन्नाथ
संदेश देते हैं जन प्रतिनिधियों को  
जनता के बीच रहने का
समभाव के साथ मिलने का
सबके विकास की रथ यात्रा में एकता का
प्रगति से जुड़े हाथ में हों निहित
जगन्नाथ
सर्व कल्याणकारी हो अपने अपने
जगन्नाथ

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
     (मंदिर के सामने मेरी तस्वीर - प्रीति ठक्कर द्वारा, शेष चित्र गूगल से साभार)





 
 
 
     













गुरुवार, 24 जुलाई 2014

काष्ठ रूप जगन्नाथ

दशपल्ला के अरण्य में हुआ
सूत्रपात
विप्र विद्यापति बने
सूत्रधार
नीलमाधव दर्शन उपरांत सुनी
देववाणी
काष्ठ रूप में तैरते पहुंचेंगे स्वयं
जगन्नाथ
चक्र तीर्थ सागर तट तीरे
और यही काष्ठ खण्ड होंगे
पूजित

लौटे विप्र और सुनाई गाथा
पंडुवंशीय नरेश इंद्रद्युम्न को
सच हुई घोषित पूर्णिमा पर
देववाणी
मिले सागर तट तीरे काष्ठ खंड
शंख चक्र गदा पद्म उत्कीर्ण
तीन काष्ठ
अनुष्ठान यज्ञादि पश्चात
प्रस्थित कराए जनकपुर गुंडिचा

आए बूढ़े बढ़ई के छद्म वेश में
सृष्टिकर्ता
दिया सशर्त प्रस्ताव इंद्रद्युम्न को
काष्ठ से देव विग्रह निर्माण का
व्यवधान रहित बंद कमरे में
प्रारम्भ हुआ प्रतिमा निर्माण
कुछ दिनों बाद जिज्ञाशावश
इन्द्रद्युम्न ने किया वचन भंग
खोल दिया कमरे का दरवाजा
अदृश्य था बूढ़ा बढ़ई
मिले अर्ध निर्मित तीन विग्रह
कोहनी हथेली चरण विहीन
जगन्नाथ बलभद्र और सुभद्रा
इन्हीं रूपों में होते हैं विग्रह  
पूजित
मान्यताओं के हैं ये श्रद्धा शब्दार्थ

अधूरे अंग होने के बाद भी होते हैं
पूजित
काष्ठमय जगन्नाथ
परंतु पूरे अंग पाने के बाद भी
प्राणमय व्यक्ति
दुष्कर्मों के फलीभूत होता है
लज्जित
संपूर्ण अंगों का करता नहीं है
सदुपयोग
जिंदा लाश बन कर
ढोता रहता है जिंदगी का बोझ
हाड़ मांस वाला भी बन जाता है
काष्ठमय व्यक्ति
और देह दाह होता है लकड़ियों से

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
 (चित्र : गूगल से साभार)

गुरुवार, 26 जून 2014

वृक्ष संहार














विकास की वेदी पर
चढ़ती है सदा
वृक्षों की बलि
प्रगति का मंत्रोच्चारण
हरियाली की आहुति
देने पर
भड़क उठती है
विनाश की ज्वाला
तब
हर पत्ता हर टहनी
मांगते हैं
अपनी मौत का हिसाब
यही है प्रकृति का गणित

चलती जब कुल्हाड़ी आरी  
वृक्ष की जड़ों पर
तब
वृक्ष के साथ
आदमी भी
अलग होता है
अपने अस्तित्व से
दम तोड़ते हैं दोनों
पहले वृक्ष
फिर आदमी
प्रकृति की मार
पड़ती है सब पर भारी

जड़ों से कट जाने के बाद
मरा वृक्ष
लावारिस शव सदृश्य
लेटा रहता है जमीन पर
सुनाता है मौत की गाथा
फूल फल छांव देने वाला
मरा वृक्ष
तरसता है
श्रद्धांजलि के फूल के लिए
सोचता है
क्यों भोगना पड़ा ये फल
तपती दोपहरी में
धूप का कफ़न ओढ़े
वंचित रहता है
आदर की छांव के लिए

शव बना वृक्ष बांट जोहता हैं
चार मित्र कंधों की
आशा करता है
सम्मान से अर्थी निकलने की
सत्य ही गत्य हैं
राम नाम सत्य है
सरीखे शव यात्रा शब्दार्थों की
लेकिन
दुर्गति ही भाग्य में लिखी है


अब यह विडम्बना है
गति बढ़ गई विकास की
लकड़ियां बची नहीं है
चिता के लिए
चाहे मरा वृक्ष हो या आदमी
अब राख होना होगा
विद्युत शव दाह गृह में
चिंता है सबको प्रगति के लिए
यही सत्य अंतिम संस्कार है
यही वृक्ष संहार का परिणाम है

संकट आएगा सांस लेने का
अभाव होगा छांव हवा का
तब
समझेंगे महत्व वृक्ष का
चिता जलाने वालों को
चिंता होगी वृक्ष की
तब
फिर होगा पौधारोपण
भ्रष्टाचार का
हरियाली की आड़ में
संहारकों की जेब
हो जाएगी हरी
होता रहेगा आक्रमण
वृक्षों पर
क्रम जारी रहेगा वृक्ष संहार का

- दिनेश ठक्कर "बापा"
   (पेंटिंग- गूगल से साभार, बाकी फोटो अश्विनी ठाकुर द्वारा)







सोमवार, 23 जून 2014

अभिव्यक्ति पर आघात












पढ़ाई के बाद कोई काम मिला नहीं
तो कलम थाम ली
मालूम था इतना आसान नहीं
दुर्दिन को कलमना

रखना था स्याही से सरोकार
अंदेशा भी था स्याह होने का
सामने लाना था शब्दों से सच
खतरा था सुर्खियां बनने का

सुधारना था समाज वाक्यों से
जानता था असामाजिक होना
कठिन था सामाजिक व्याकरण
संबल मिला सच्ची पंक्तियों से

गलत व्यक्ति का सही चेहरा
मुखौटे से उसे अनावृत्त करना
प्रलोभन संग व्यक्तिगत होना
यह कार्य है बड़ा जोखिम भरा

आदमी को इंसान बनाना
आसान नहीं है इतना
रगों में इंसानियत का रक्त
चाहता है यह विषम वक्त  

शक्ति की अस्मत लुट जाना
निःशक्त का घर उजड़ जाना
शब्दों का निःशब्द हो जाना
दुखद है कलम का कुंद होना

अभिव्यक्ति पर आघात बढ़ना
फिर भी कलम मुखर रखना
जान हथेली पर लेकर
लिखना होगा निडर होकर

-दिनेश ठक्कर "बापा"
 (चित्र : गूगल से साभार)




 




  

शनिवार, 21 जून 2014

किताबों का क्रंदन















ग्रंथागार केवल गोदाम नहीं
किताबों का
और प्रदर्शन स्थल भी नहीं
चाहे अपना हो या सरकारी
इसे कमतर आंकना नहीं

किताबों से भरी है अलमारी
कुछ जान कर खरीदी
और कुछ आदतन
किसी ने भेंट स्वरूप दी
उपकृत होती रही अलमारी

अपना सच्चा मित्र बताया
किताबों को
और स्वयं को भरमाया
कुछ पन्ने पढ़ कर
अलमारी का भार बढ़ाया

सबके बीच बौद्धिक बनाया
किताबों ने
लिखने बोलने योग्य बनाया
पुरस्कार सम्मान दिलाया
फिर भी इनको श्रेय न दिया

समय संग धूल चढ़ती रही
किताबों पर
दीमकों की फौज बढ़ती रही
चूहों का आहार बनती रही
उपेक्षा का दंश झेलती रही

सहेजने की जरूरत न समझी
किताबों को
त्यौहार आए तो सफाई सूझी
ग्रंथागार की
फिर भी ये समस्या न सुलझी

छत से टपकता रहता है पानी
बरसात का
भीग कर किताबों के निकलते
आंसू देख
क्यों नहीं होती हैं ये आंखे नम

बापा रहे ना रहे अस्तित्व रहेगा
किताबों का
अगली पीढ़ी को जरूर मिलेगा
ज्ञान का खजाना
ग्रंथालय उन्हें इंसान बनाएगा

-दिनेश ठक्कर "बापा"
  (चित्र : गूगल से साभार)



  

रविवार, 15 जून 2014

बापूजी का बनाया घर









बापूजी का बनाया घर
मेरा ही हक़ नहीं इस पर
यदा कदा सांप आ जाते
रहने का हक़ जता जाते  
आस्तिन में हैं सांप रहते
इसलिए नहीं लगता भय

रहते यहां मेंढक निर्भय
बढ़ रहा उनका परिवार
वे नहीं हैं बरसाती मेंढक
उनका व्यवहार है पृथक
टर्राना उनको न सुहाता
वे भी नहीं बनना चाहते
मेरी तरह कुएं के मेंढक
पसंद नहीं है उछलना
जमीन पर रहना भाता
   
बिल्लियों का आशियाना
मौक़ा पाते दूध पी जाना
ठंड में रजाई में दुबकना
फिर भी मनुष्यों से कम
अपनी चालाकी दिखाना
कभी अपनापन जताना
ये घर नहीं लगता बेगाना

कभी चूहे देख मुंह फेरना
अचंभित करता है याराना
चूहे बिल्ली का साथ रहना
शत्रु भाव को भी परे रखना
मनुष्यों को है शिक्षा लेना
 
बढ़ती जा रही छिपकली
दीवारें बनी ठौर ठिकाना
टंगी दीवार घड़ी की तरह
हर वक्त की याद दिलाती
कीड़े मकोड़ों को दबोचना
दबंगों सा अहसास कराती
शिकार पर नजरें गड़ाना
मौका मिलते लील जाना
दुष्टों जैसी बन गई प्रवृत्ति  
सतर्क रहने की सीख देती

ये दिन भी शेष था देखना
अब मीठा बोलने पर भी
निकल आतीं हैं चीटियां
नमक अदा करने पर भी
उमड़ पड़ती हैं चीटियां
अच्छे दिन आने पर भी
चीटियों के पर निकलना
पैदा करती कई भ्रांतियां
नियति है इनके बीच रहना
अपनी जमीन से जुड़े रहना

नहीं आसान ये दुख भुलाना
सड़क चौड़ीकरण का बहाना
घर के सामने पेड़ का कटना
चिड़ियों का बसेरा उजड़ना
न सुनना उनका चहचहाना
वे थी आनंददायक पड़ोसी
आंगन में भी होता था आना
दुखद है स्मृति शेष हो जाना

-दिनेश ठक्कर "बापा"
  (चित्र : गूगल से साभार) 

बुधवार, 11 जून 2014

हम हैं उम्मीदों के रखवाले

हम हैं उम्मीदों के रखवाले
सुनेंगे सबके दर्द भरे नाले
विकास करेंगे हम मतवाले
देश को हैं आगे बढ़ाने वाले

इधर बैठे या फिर बैठे उधर
हम चलेंगे सामूहिकता पर
हमें भरोसा नहीं संख्या पर
सबका भला करेंगे मिल कर
हम हैं उम्मीदों के रखवाले....

आशाओं को है पूरा करना
कसौटी पर है खरा उतरना
सिर ऊंचा कर आगे बढ़ना
सीना तान कर है चलना
हम हैं उम्मीदों के रखवाले....

अब हर हाथ को काम मिले
गरीबों का चूल्हा जरूर जले
लाचारों को भी शिक्षा मिले
आओ गांवों का जीवन बदलें
हम हैं उम्मीदों के रखवाले....

मजदूर किसान का हो भला
आंसू पोंछने का मौका मिला
आलोचना से है संबल मिला
मिट्टी का कर्ज चुकाने चला
हम हैं उम्मीदों के रखवाले....

अच्छाई के पथ पर हम चलें
बुराइयों को किनारे कर लें
भाईचारे के साथ गले मिले
हम हैं उम्मीदों के रखवाले....

-दिनेश ठक्कर "बापा"
  (चित्र : गूगल से साभार)