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शनिवार, 30 मार्च 2013

धर्मयुग में ताला के रूद्र शिव की प्रतिमा पर आलेख

तालागांव में उत्खनन के बाद प्राप्त रूद्र शिव की दुर्लभ प्रतिमा पर मेरी समीक्षात्मक रपट राष्ट्रीय स्तर पर सर्वप्रथम द टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप की जानी मानी साप्ताहिक पत्रिका "धर्मयुग", मुंबई के 25 सितम्बर1988 के अंक में प्रकाशित हुई थी। यह अंक और रपट की कतरन मेरे लिए धरोहर स्वरूप है।

ताला के रूद्र शिव की दुर्लभ प्रतिमा के संग

शिवमय स्मृति ... छत्तीसगढ़ के तालागांव में उत्खनन के बाद प्राप्त रूद्र शिव की दुर्लभ प्रतिमा के समक्ष मैं और पत्रकार मित्र सर्वश्री प्राण चड्डा, नथमल शर्मा और सीतेश द्विवेदी।

नवभारत के होली समारोह की यादें

नवभारत, बिलासपुर में बतौर उप सम्पादक के अपने कार्यकाल के दौरान वर्ष 1986 में होली मिलन समारोह के वक्त प्रेस के समस्त साथियों के संग यादगार पल।

बुआ जी का बुलंद हौंसला




मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री केशव लाल ठक्कर की बुआ जी 97 वर्षीय श्रीमती राम बेन कोठारी के हौंसले आज भी बुलंद हैं। वे गुजरात के सरहदी जिले कच्छ के शहर अंजार के रामकृष्ण महावीर नगर स्थित मकान में अपने दूसरे पुत्र श्री देवसी भाई के साथ निवासरत हैं। वे अपने कपडे, बर्तन धोने से लेकर सभी दैनिक कार्य बिना किसी की मदद लिए खुद करती हैं। अंजार में रहने वाले अपने अन्य पुत्रों-पुत्री, नाती-पोतों से मिलने उनके घर अक्सर वे अकेली ही ऑटो रिक्शा में बैठ कर निकल पड़ती हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि बचपन से ही मुझे उनका स्नेह और आशीर्वाद मिलता रहा है। उनकी खुद्दार जीवन शैली से मुझे सदैव प्रेरणा मिलती रही है। 97 वसंत देख चुकी बुआ जी का सानिध्य अंजार में इस वसंत पंचमी को दिन भर मिला। उतार चढाव भरी उनकी जिन्दगी के यादगार लम्हों के संस्मरण की आधे घंटे की वीडियो रिकार्डिंग करने का भी सुअवसर मिला। अंजार में आये दिन भूकंप के झटके महसूस होते रहते हैं, लेकिन बुआ जी इससे बिलकुल नहीं घबराती हैं। वे अंजार में अब तक आये दो बड़े भूकंप की त्रासदी झेल चुकी हैं।21 जुलाई 1956 और 26 जनवरी 2001 को सुबह अंजार समेत कच्छ में आये विनाशकारी भूकंप से जड़ी त्रासदी को वे आज भी नहीं भूली हैं। हालांकि दोनों बार वे सकुशल रहीं। 26 जनवरी 2001 को सुबह जब भूकंप आया तब वे अंजार के गंगा नाका स्थित अपनी पुरानी हवेली के स्नान गृह में थीं। जबकि उनकी बड़ी बहू लीलावन्ती बेन रसोई घर में थी। संयुक्त परिवार के बाकी सदस्य हवेली से बाहर थे। इस भूकंप से उनकी हवेली के बरामदे वाला हिस्सा ही गिरा, इसलिए सास-बहू की जान बच गई। भूकंप के कारण आंतरिक रूप से यह प्राचीन हवेली जर्जर हो गई, जिसे सुरक्षा की दृष्टि से बाद में ढहा दिया गया। इसके साथ ही इनका संयुक्त परिवार भी विखंडित हो गया। इन दोनों घटनाक्रमों का अफसोस आज भी बुआ जी को है। पुरानी हवेली को वे अपनी जड़ें मानती हैं, इसलिए उससे दूर होने की टीस मन में है। इसी प्रकार अपने संयुक्त परिवार के रास्ते अलग अलग होने का मलाल भी है। उनका मानना है कि संयुक्त परिवार बंद मुट्ठी की तरह है, जिसके खुल जाने से परिवार की ताकत कमजोर हो जाती हैं। आज भले ही उनके पुत्र निवास और कारोबार के मामले में अलग अलग हैं, लेकिन बुआ जी ने उन्हें अपने ह्रदय में एक साथ जगह दे रखी हैं। वे समय के साथ चलने की पक्षधर हैं। सबकी खुशी में अपनी खुशी मानती हैं। मोबाइल फोन से भी बतियाने वाली बुआ जी अपने जीवन को भी मोबाइल रखे हुए है। उनके बुलंद हौंसले को शत शत प्रणाम। उनके दीर्घायु रहने की ईश्वर से मंगल कामनाएं।

अंजार, कच्छ स्थित मेरे देवस्थान