अभिव्यक्ति की अनुभूति / शब्दों की व्यंजना / अक्षरों का अंकन / वाक्यों का विन्यास / रचना की सार्थकता / होगी सफल जब कभी / हम झांकेंगे अपने भीतर

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

सूखे में गीली हुई आंखें

सूखे की चपेट में है पूरा क्षेत्र
भूख प्यास से त्रस्त
बाशिंदे और परिंदे
कर गए हैं पलायन
अपने अपने रहवास से
शेष रह गए हैं जो अशक्त
उनकी हो रही है अकाल मौत
बुझे हुए चूल्हों के आसपास
नहीं दिख रहे हैं अब
चींटे और चींटियां
चूहे तो पहले ही भाग गए थे
आसन्न संकट को भांप कर
उनके बिलों में रह रहे हैं अब
अलसाए अजगर

पेड़ पौधों के पांव होते
तो वे भी चले जाते
छोड़कर अपनी जड़ों को
किन्तु बंधे हैं वे
प्रकृति के विधि विधान से
उनको देनी है मरते दम तक
सबको जिंदा रखने प्राण वायु
पालतू मवेशी भी जी रहे हैं अब
आवारा जिंदगी
कोई चारा नहीं है उनके पास
सिवाय इधर उधर भटकने के
पसरे हैं मौत की पगडण्डी पर
भूख प्यास से तड़पते मवेशी

खाली हो गए हैं खेत खलिहान
खेत बन गए हैं अब कब्रस्तान
वाद विवाद नहीं होता है अब
मेड़ों के अतिक्रमण को लेकर
कंठ सूख गए हैं प्यास के मारे
भूख मिटाने वाले खेतों के
फट रही है झुलसाती गर्मी में
सूखे खेतों की तनावग्रस्त नसें
बंजर खेतों की गहरी दरारों में
समा गई है भीतर तक
फसल की उम्मीदें
नहीं निकल रहा है कोई हल
सूखे की विकराल समस्या का
बुला रहा है दुख दर्द साझा करने
पशु पक्षियों को भ्रमित करने वाला
रोते खेतों में अकेला पड़ा पुतला

हो गई है वीरान
गांव खेड़े की गलियां और चौपाल
गिन रहा है दिन
अकाल मृत्यु के मुंहाने पर लेटा
बूढ़ी हड्डियों का ढांचा
सूखे में गीली हुई आंखें देख कर
नहीं रोक पा रहा है आंसू
सिराहने बैठा बेबस अशक्त भविष्य
सुन रहा है अतीत से
अकाल की व्यथा गाथा
सिहर उठता है भविष्य
पानी के लिए होने वाले अगले
विश्व युद्ध की भविष्यवाणी सुन कर
फिर पानी मांगते अतीत की खातिर
निकल पड़ता है प्यासा भविष्य भी
बैसाखियों के सहारे पानी की खोज में

सूखे मिलते हैं मीलों तक
नल, हैण्डपम्प, कुंए, तालाब नहर
बंदूकों के साए में लगा है पहरा
सरकारी बांधों के बचे खुचे पानी पर
जल वाहन की घंटों तक प्रतीक्षा में
लड़ भिड़ रही हैं घड़े बाल्टियों की भीड़  
सब कुछ देख कर जान कर भी
आंखें मूंदे बैठा है शासन प्रशासन
नहीं हो रहा है वह शर्म से पानी पानी
सूख चुका है उनकी आंखों का पानी

थक हार कर भविष्य
वापस लौटता है जब अपने गांव
और हो जाता है दुखी  
पंचायत भवन के बाहर मजमा देख कर
ताली बजा रहे हैं पंच सरपंच बड़े बाबू
पानी की तरह पैसा बहाते मैच देख कर
बल्ले बल्ले हो रहे हैं बड़े परदे के सामने
उछल रहे हैं छक्के पर छक्का देख कर
शीतल पेय के विज्ञापन बार बार देख कर
उन्हें हो रहा है आभास
प्यास बड़ी चीज है  
गला तर कर रहे हैं वे ठंडी बोतलें खोल कर  

लाचार भविष्य पानी की बोतल खरीद कर
आता है अतीत के पास
बुझाता है प्यास उसकी तथा अपनी
फिर यह पानी
छलक जाता है दोनों की आंखों से
खून के आंसू बन कर
जल संकट से उपजे हालात सुन कर अतीत
पानी को लेकर होने वाले अगले विश्व युद्ध की
दोहराता है भविष्यवाणी
उखड़ती सांसों के दरम्यान यह कहता है कि  
जल ही जीवन है
जल है तो कल है
और
पथरा जाती हैं
अतीत की आंखें !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)

गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

देश राग

गलत नहीं है भारत माता की जय बोलना
गलत है अपनी मां के भी खिलाफ बोलना

देश से बड़ा किसी का भी कद नहीं है ऊंचा
अपना कद छोटा कर कड़वा नहीं बोलना

राज-योग में भले ही लंबी सांसें लेना छोड़ना
लेकिन कानून से ऊपर उठ कर नहीं बोलना

काले मन वाले तन पर सफेद चोला पहन कर
जिंदाबाद मुर्दाबाद के स्वार्थी बोल नहीं बोलना

हिंसक टोपी पहन कर दूसरों को नहीं भड़काना
देश में ही रह कर अलगाव के बोल नहीं बोलना

देश की एकता अखण्डता को सदा कायम रखना
आपसी भाईचारे को बढ़ाने के लिए मीठा बोलना

जिस थाली में खाते हो उसमें कभी छेद नहीं करना
भूखों का पेट भरता रहे वैसे राष्ट्रवादी बोल बोलना

राष्ट्र का सम्मान घटा कर देशभक्ति नहीं दिखाना
दबे कुचले पिछड़ों का मान बढ़ाने खुल कर बोलना

देशभक्ति का प्रमाण पत्र लेने देने की होड़ नहीं मचाना
देश में अमन चैन बना रहे वैसे मानवीय बोल बोलना

अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग होगा छोड़ना
राष्ट्र के हित में होगा देश राग में गाना बजाना बोलना !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)

मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

मर रहा है बेबस बस्तर

आदिकाल से रही है अभिशप्त
खून से सनी बस्तर की मिट्टी
बेमौत मर रहा है बेबस बस्तर
पहले गोरे अब लाल आतंक में
आदिवासियों का बह रहा है लहू
हरीतिमा ओढ़े साल के वनों में
सिर भी कट रहे हैं पेड़ों के साथ
मुखर हुए तो मुखबिरी के शक में
बीच बाजार चढ़ा दिए जाते फांसी
गोरों की तरह लाल साम्राज्य में
बुंदरू सुंदरू जैसे चढ़ाए जाते फांसी
गुण्डाधुर के भूमकाल की आग में
झुलसा अबूझमाड़ भी सुलग रहा
हालांकि अब नहीं बंटती गांवों में
आम की डाल में बंधी लाल मिर्च
सलवा जुड़ुम की भी विफलता में
विस्थापन के साथ मिली है मौत

बस्तर के आदिम समाजशास्त्र में
हावी हो गया दोहन का अर्थशास्त्र
बाधक है समस्या के समाधान में
अपनी अपनी स्वार्थी विचारधारा  
अस्तु आज भी दो पाटों के बीच में
पिस रहा लाचार गरीब आदिवासी
बना दिए गए हैं वे अपने ही क्षेत्र में
प्रत्यक्ष जंग के अप्रत्यक्ष हथियार
अधिकारों की प्रदर्शनी की खूंटी में
टांग दिया गया है नंगधड़ंग शरीर

आतंक के खूनी दंडकारण्य में
झोपड़ियों में कैद हैं तीर धनुष
जल जंगल जमीन की चाह में
शोषण के आदी हो गए हैं वासी
मालिक मकबूजा के प्रकरण में
गुलाम जिंदगी जीने हुए मजबूर
रोटी, कपड़ा, मकान के नारों में
गुम हो गई है भूखे तन की गुहार

दम घुटने लगा है अब घोटुल में
घुट घुट कर जीने वाली पीढ़ी का
मौत की पहरेदारी होती घोटुल में
जीवन साथी चुनना हुआ कठिन
लड़ाए जाते हैं मड़ई हाट बाजारों में
मुर्गों की तरह आपस में आदिवासी
दक्ष किए जाते हैं वे हर दांव पेंच में
पाले पोसे जाते हैं पिला खिला कर  
बांधे जाते हैं छुरे मुर्गों के पैरों में
जबकि इन्हें दी जाती हाथों में बंदूकें
उतारे जाते हैं वे लड़ाई के मैदान में
और मारे जाते है दांव में लगे लड़ाकू
लुगरा लंगोटी बदल रही है कफन में
दफनाने के लिए नसीब नहीं जमीन
इंद्रावती समेत जीवनदायी नदियों में
पानी का रंग भी हो गया है अब लाल

जानलेवा विस्फोटों के बीच
जिंदगी के संग दब गई है अब
मारक गजराजों की चिंघाड़
गोलियों की आवाज के बीच
आक्रांत नहीं करती है अब
जंगल के राजाओं की दहाड़
पहाड़, पेड़, झाड़ियों के बीच  
घात लगा कर टूट पड़ते अब
मानव रक्त के पिपासु भेड़िए
मानवता के परखच्चों के बीच
भक्षकों की भूख बढ़ गई है अब
चील गिद्धों ने डाल दिया है डेरा
आए दिन होती मुठभेड़ के बीच
मृत्यु के दूतों को देख कर अब
भयवश रोते नहीं हैं जंगली कुत्ते  
जलती हुई उग्र मशालों के बीच
रात में मद्धम हो गई है अब
आजाद जुगनुओं की रोशनी
शमशान सी खामोशी के बीच
दहशत से शांत हो गई है अब
निशाचर झींगुरों की ध्वनियां
   
रक्तरंजित इस अरण्य में
मिलना बंद हो गई है अब
इंसानियत को प्राण वायु
हैवानियत की बदबू के बीच
सहम सी गई है सौंधी खुशबू
क्षत विक्षत लाशों के बीच
धूमिल हो गई है अब
पलाश के फूलों की लालिमा
निर्दोषों के बहे खून के कारण    
फीका पड़ गया है अब
सेमल के फूलों का लाल रंग
बारूद की दुर्गन्ध के बीच
मदहोश नहीं करता है अब
टपकता हुआ महुआ फूल
इसे बीनने से मिलती है अब
बारूदी सुरंग में बिछाई मौत
बेटियों का खून बहा देख कर
दहेज में मिला सल्फी का पेड़
नशा नहीं, आंसू बहाता है अब!    

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)





रविवार, 3 अप्रैल 2016

खून से सने हुए हाथ

उनकी नसों
उनकी अस्थियों
उनकी सोच में बागी हो चुका है खून
उनके सिर पर सवार है खून
जंगल लाल कर रहे हैं बहा कर खून
हालात जाकर देखोगे समझोगे
तो पूरी दास्तां बयां कर देंगे
उनके खून से सने हुए हाथ

उनको विश्वास नहीं है
अहिंसा के आदर्शों पर
उनको भरोसा नहीं है
सरकार के सिद्धांतों पर
उनको विश्वास नहीं है
नीयत और नीतियों पर
उनको केवल भरोसा है
अपने खूनी आतंक पर
उनको सिर्फ विश्वास है
समानांतर सरकार पर
उनको काबिज रहना है
अकूत वन संपदाओं पर
उनको हुकूमत करना है
निरीह आदिवासियों पर  

लेकिन
हमारा अटूट विश्वास है
मददगार मानवता पर
हमारा पुख्ता भरोसा है
जीवनदायी प्रयासों पर
हमारा संपूर्ण विश्वास है
सर्व प्रगति की पहल पर
बेहतर नतीजे हासिल होंगे  
जब तक हम दिखाते रहेंगे
सरकार को भी आइना !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)