अभिव्यक्ति की अनुभूति / शब्दों की व्यंजना / अक्षरों का अंकन / वाक्यों का विन्यास / रचना की सार्थकता / होगी सफल जब कभी / हम झांकेंगे अपने भीतर

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

मसले वादे

मसलों से जुड़े वादों को
पूरा होते कभी न देखा 
सिर्फ चलती है जुबान
जुबान का पक्का न देखा
आसमां पर उछलते वादे
जमीं पर ठहरते न देखा
मज़लिसों में किए वादे  
अवाम में फलते न देखा
भूख प्यास वाले मसले
सुलझते कभी न देखा 
दिखाए गए कई सपने
सच में बदलते न देखा

बातदबीरों को मजमे में
सच्ची बातें करते न देखा 
ख़ुदगर्जों की इस भीड़ में
जमीर वाला कोई न देखा
मुदब्बिरों की जमात में
ईमानदार चेहरा न देखा 
सियासतदां की आंखों में
सच्चे आंसू कभी न देखा  
तख़्तनशीन होने के बाद
वादे निभाते कभी न देखा 
मुक़तदिर हो जाने के बाद
मुक़द्दस होते कभी न देखा ! 

@ दिनेश ठक्कर बापा  
(चित्र गूगल से साभार)



 

गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

कब ढहेंगे लाल आतंक के गढ़

सवार है नासूर लाल आतंक
सियासत के स्वार्थी कंधे पर
और लाल आतंक के सिर पर
सवार है खून वीर जवानों का
लाल हो रही मिट्टी बरसों से
जवानों के बहाए गए खून से

सियासत का न खौलता खून
पोषित लाल आतंक पर कभी
इसका उबलता है खून केवल
सरहद के घुसपैठी आतंक पर

आपात बैठक में कड़ी निंदा कर  
मुआयना कर मुआवजा देकर  
कोशिश की जाती राजनीतिक
लाल आतंक समाप्त करने की
मोर्चे पर होती रहती है शहादत
मुठभेड़ों में जांबाज़ जवानों की
       
विकास के बहाने पनपा आतंक
बन चुका है विकास का बाधक
लुगरा लंगोटी का कथित दोस्त
बन गया अब जान का दुश्मन
लाल आतंक की जन अदालत
देती मौत का एकतरफा फैसला      
तोड़ती है मुखर जनों का हौंसला
दहशत के आदी हो चुके हैं वासी
हमले में ढाल बनते आदिवासी

कब तक यूं ही होती रहेगी व्यर्थ
मोर्चे पर तैनात साहसी शहादत
कब तक होती रहेगी अपमानित
संवेदनहीन सियासत से शहादत
कब तक होता रहेगा वर्गीकरण
सरहद और सूबे के आतंक का
कब ढहेंगे लाल आतंक के गढ़
जवाब मांग रहे ये ज़िंदा सवाल !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)
       
     

मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

मां सरस्वती से कामना

हे मां सरस्वती
अपने पुत्र पर
कृपा करना इतनी
कि मरने से पहले
भले ही न कहलाऊं
पुरस्कृत नामी लेखक
किंतु देते रहना मुझे
ऐसे विचार और शब्द
कि मरने से पहले
पाठकों के लिए मैं
जीवंत छोड़ जाऊं
सार्थक और यथार्थ लेखन

हे मां सरस्वती
इसका नहीं है कोई अफसोस
कि नहीं बन सका क्यों मैं
मां लक्ष्मी का उपासक
नहीं बना लिखे शब्दों से धनी
किंतु अपने पुत्र पर
कृपा करना इतनी
कि बन जाऊं मरने से पहले
सार्थक सच्चे शब्दों का धनी

हे मां सरस्वती
इच्छाओं की अंतिम यात्रा में
उच्चारित हो सृजित शब्द भी
मृत देह की अंत्येष्टि के पश्चात्
गले लगाएं लोग मेरे लेखन को
दीर्घायु बनाएं जीवंत शब्दों को
अंतिम अरदास और उठावना
सार्थक सच्चे शब्दों के साथ हो
चित्र के बदले मेरे कृतित्व पर
शब्दों के श्रद्धा सुमन अर्पित हों
आंखों में अश्रुओं के स्थान पर
मेरे सृजित शब्दों की छवि हो
आंखों से आंसू न छलके बल्कि
जुबां से काव्य गीत निःसृत हो !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)

रविवार, 23 अप्रैल 2017

रोती धरती और सूखती हरियाली के अपराधी

चिमनी और सोखक
उलझ रहे हैं आपस में
कि, क्षमता किस में है अधिक
जो सोख सके पूरा पानी
नदियों, जलाशयों, तालाबों का
और निष्ठुरता से कर सके निर्वसन
उनकी देह का
फिर छोड़ दे उन्हें प्यासा मरने के लिये


कुल्हाड़ी और आरी
काट रहे हैं परस्पर
एक दूसरे का कथन
हो रहा है विवाद
कि, धार किसकी अधिक है तेज
जो शीघ्र काट सके जड़ों से
हरियाली धरती की
और उसको बना सके ठूंठ
छीन सके उनकी प्राण वायु

कुदाल और खोदक
खोद रहे हैं मिल कर
एक दूसरे के विचार
खुली भिड़ंत हो रही है उनमें
इस बात पर
कि, शक्ति किस में है अधिक
जो तीव्रता से कर सके 
सीना छलनी उर्वर धरती का
और उसे दे सके गहरा स्थायी घाव  

चिमनी और सोखक
कुल्हाड़ी और आरी
कुदाल और खोदक
जुटे हैं सिद्ध करने के लिये
स्वयं को सर्व शक्तिशाली
कर रहे हैं निरंकुश होकर
निकंदन मंच पर वाक् युद्ध

इन निष्ठुरों की मारक मंशा भांप कर
संहारक कृत्य देख कर       
दुःखी असहाय धरती
रो रही है धारोधार
आहत धरती पर आई विपत्ति
विषम स्थितियां जान कर
नष्ट हो रहे पर्यावरण पर दृष्टिपात कर
प्रकृति और समय
कर रहे हैं दण्ड निश्चित
निरंतर निर्भय हो रहे ऐसे जघन्य अपराध का
ताकि, दण्डित हो सकें
रोती धरती और सूखती हरियाली के अपराधी !

@ दिनेश ठक्कर बापा
( चित्र गूगल से साभार)






    

गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

आपत्ति गूँजती आवाज़ पर

आस्था की हर उद्घोषणाएं
जब अनसुनी हो जाती हैं
अपने अपने शोरगुल में
तब विद्रोही स्वर गूँजते हैं
अनास्था के ऊँचे शिखर से
शिकवे फतवे के भय वश
फहर नहीं पाती हैं ध्वजाएं
अपने अपने स्वार्थ वश
भड़कायी जाती है भावनाएं

सुबह शाम होने वाली अजान
बजने वाले घण्टे और भजन    
भक्तभाव से होने वाले प्रवचन
गूँजते हैं अपने दायरे से बाहर
तब ऊँगली उठती आस्था पर
विवाद उपजता अनास्था पर
तो दब जाता है मूल प्रयोजन
खड़ा हो जाता विरोध का स्वर
तेज हो जाता है सियासी शोर

स्वार्थमय विवादों के बाँगर में
बाँगड़ुओं के कोलाहल के बीच
अब तो मुर्गे भी भोर होने पर
डरने लगे हैं बाँग लगाने से
भलाई समझते हैं चुप रहने में
चिड़ियाँ सहमी रहती पेड़ों पर
डरती सुबह शाम चहचहाने से
क्योंकि
इस समय जताई जा रही है
आपत्ति गूँजती आवाज़ पर !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)






 

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

प्यासा निर्धन वर्तमान

देहात के सूखे कुंए के पास
बाल्टी लिए बैठा था उदास
प्यासा निर्धन वर्तमान
सूख गई थी पानी की आस
 
लकवाग्रस्त पगडंडियों से
गुजरता हुआ जल वाहन
देख कर उसने रूकवाया
जल वाहक से प्रश्न किया
किसकी प्यास बुझाओगे
मैंने कौन सा गुनाह किया
मुझे पानी नहीं पिलाओगे
कह कर मूर्छित हो गया  

उसके मुंह पर पानी छिड़क
जल वाहक ने होश में लाया
जख़्मों पर नमक छिड़कते  
कहा - उठो निर्धन वर्तमान
मेरा पानी होश में ला सकता
किंतु प्यास नहीं बुझा सकता
बिकाऊ पानी खरीद न पाओगे
दाम चुकाते तुम दम तोड़ दोगे
धनी प्यासों के लिए है ये पानी
तुम्हें पुकार रहा नाले का पानी            
तुम्हारे नहीं रहे अब नदी बांध
हमारे कब्जे में है उसका पानी
जल वाहक की सुन कर बयानी
रो पड़ा प्यासा निर्धन वर्तमान

इधर
छलकते असहाय आंसू
भर रहे थे खाली बाल्टी
बेज़ार प्यासे वर्तमान की
उधर
बाजार की तरफ चल पड़ा
कारोबारी जल वाहन
छलकाते हुए बिकाऊ पानी

जल वाहन के आते ही उमड़ते
बिकाऊ पानी को खरीदने वाले
पानी का कारोबार देख शासन
नहीं होता है शर्म से पानी पानी
सूख चुका है आंखों का भी पानी !    

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)

           

शनिवार, 15 अप्रैल 2017

जो किसी के नहीं होते

किसको अपना समझें हम
नहीं आ रहा है कुछ समझ
किसके होते हैं ऐसे व्यक्ति
जो किसी के नहीं होते
और तो और
जो स्वयं के भी नहीं होते हैं
ऐसे व्यक्तियों के संबंध में
कुछ भी जानना समझना
इतना आसान भी नहीं है
जितना सोचा करते हैं हम    

पास रह कर भी दूर रहते हैं
मित्र बन कर शत्रु बने रहते
गले लगाओ तो गला काटते
पीठ ठोंको तो खंजर भोंकते
आस्तीन के सांप बने रहते
उन्हें कितना भी समझाओ
समझने को तैयार नहीं होते
कितना भी मीठा खिलाओ
बोल अक्सर कड़वे ही होते
जितने जमीन के ऊपर होते
उतने वे तो भीतर भी रहते  
परछाई देख कर भ्रमित होते
कि खूब लम्बा है उनका कद
क्यों होते हैं ऐसे व्यक्ति
हमारी समझ से परे
वे भी खुद को समझ नहीं पाते
न ही दूसरों को कुछ समझते
उन्हें अच्छी तरह से समझना
स्वार्थी समय में जटिल सा है

बड़े-बुजुर्गों का भी कहना है
कि जो किसी के नहीं होते
वे अंततः कहीं के नहीं रहते
न तो घर के रहते न घाट के !

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)
 

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

कैयाद

कैयाद हरेक आदमी को दग़ा देगा
वो तो वालिदैन को भी धोखा देगा

उसका कीना ही उसका दुश्मन है
दोस्त बन कर वही उसे सज़ा देगा

ज़िंदगी की बंदगी भी करके देखो
उसका अक्स कभी अकड़ने न देगा

खुद से भी दुश्मनी करना छोड़ दो  
दुश्मनों को भी सलीक़ा सुकून देगा

बेईमानी अगर दरकिनार कर दोगे
तो झोली खुदा का बंदा भी भर देगा

ईमानदारी का प्याला जो पी लोगे
दवा बन कर वह हर दर्द मिटा देगा !
   
@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)


(कैयाद = कपटी,  वालिदैन = माता पिता,  कीना = कपट)     

गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

धुआं धुआं मौत

चिर निद्रा में लीन मौत
चिंताओं से परे चिता पर
गीली लकड़ियों कंडों से
हो रही है धुआं धुआं
और
गीली आंखों से जिंदगी
भड़का रही है आग
जैसे जैसे भड़क रही आग
वैसे वैसे सूखते जा रहे हैं
जिंदगी की आंखों से आंसू

मौत राख में विलीन होने पर
श्मशान में संवेदनाएं रख कर
अहंकारी सिर पर पानी छिड़क
नीम की कुछ पत्तियां चबा कर
और अधिक कड़वा कर मुंह  
जिंदगी पुराने रूख के साथ  
कठोर कदमों के सहारे
लौट आती है कड़वाहट लेकर
अपने निष्ठुर ठौर ठिकाने पर !  

@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)