नामकरण की असमर्थता : जहाँ तक प्रतिमा के प्रमाणिक नामकरण का सवाल है, तो इस मसले पर स्वयं पुरातत्व अधिकारियों ने असमर्थता जाहिर की है. केवल अनुमान के आधार पर इस प्रतिमा का नामकरण कर दिया गया है. उत्खनन निर्देशक के.के. चक्रवर्ती ने प्रतिमा का तादात्म्य शिव के रूद्र स्वरुप से स्थापित करते हुए लकुलीश मत के साथ संबद्ध होने की संभावना व्यक्त की है. हावर्ड विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डा. प्रमोद चन्द्र ने भी इसे रूद्र शिव की प्रतिमा होने का आंकलन किया है. कुछ पुरातत्वविदों ने इसे पशुपति की मूर्ति बताया है. परन्तु इसमें भी विरोधाभास है. धर्मशास्त्रों के अनुसार, पशुओं को भी जीवात्मा के रूप में मानते हैं, जबकि पति को परमात्मा कहा गया है. पशुपति की मूर्ति में इसका मिलन है. पशुपति की मूर्ति में पशु साथ में दिखते हैं, न कि शरीर पर उत्कीर्ण रहते हैं. लेकिन तालागांव की इस चर्चित प्रतिमा में पशु शरीर पर दिखाए गए हैं. सम सामयिक प्रामाणिक जानकारी अनुपलब्ध होने से इस मूर्ति का रहस्य अनावृत्त नहीं हो पा रहा है. साधारणतः शिव के सौम्य भाव वाली मूर्तियाँ पाई जाती हैं, परन्तु रौद्र भाव की प्रतिमाएं बहुत ही कम मिली हैं. राज्य के विभिन्न स्थलों में अब तक गजारी, त्रिपुरांतर, काल भैरव, बटुक भैरव, उन्मत्त भैरव, वीरभद्र, कंकाल एवं अघोर जैसी रौद्र स्वरुप वाली मूर्तियाँ मिल चुकी हैं. लेकिन तालागांव में में प्राप्त मूर्ति का रौद्र स्वरुप अति विकट है. इसके समकक्ष की अन्य कोई प्रतिमा भी अब तक कहीं नहीं मिली है. प्रतिमा के अंग-प्रत्यंग भयावह होने के साथ साथ रौद्रता को भी उजागर करते हैं. यों शिव को भूतेश भी कहा गया है. अतः प्रतिमा पर फन फैलाए नाग सर्प तथा शरीर पर अंकित गण का होना स्वाभाविक है. इस प्रतिमा को देख कर स्पष्ट होता है कि शिव के चरित्र में संहारमूलक और सृजनमूलक व्यवहार का एक साथ संजोग है. आकार प्रकार की दृष्टि से भी यह प्रतिमा निराली है. यद्दपि करीब १४ फुट ऊँची एक विशाल मूर्ति विदिशा के पास नदी के अन्दर से मिल चुकी है, लेकिन वह यक्ष प्रतिमा है.
शास्त्र के आधार पर निर्मित : तालागांव में मिली प्रतिमा के पुरातात्विक विश्लेषण से ज्ञात होता है कि इसके निर्माण में केवल उर्वरा कल्पना शक्ति का ही सहारा नहीं लिया गया है, बल्कि मूर्तिकार द्वारा किसी शास्त्र को ध्यान में रखते हुए मूर्ति बनाई गई है. साथ ही इसके द्वारा स्वयं के शिल्प कौशल का बखूबी इस्तेमाल किया गया है. अनुमान है कि उस समय आसपास तांत्रिक साधना का जोर रहा होगा, जिससे प्रेरित होकर मूर्तिकार ने उपासना के लिए सौम्य रूप के बजाय रौद्र रूप वाली प्रतिमा तराशी होगी. यह प्रतिमा तालागांव के देवरानी मंदिर की है अथवा जेठानी मंदिर की, यह प्रश्न भी अनुत्तरित है. प्रतिमा की स्थिति और उसके सुरक्षित रखे जाने की पूर्व हालत को मद्देनजर रखते हुए पुरातत्व अधिकारी यह बता पाने में सक्षम नहीं हैं कि प्रतिमा किस मंदिर में प्रतिष्ठित और पूजित रही होगी. उत्खनन निर्देशक के अनुसार, आम तौर पर मूर्ति मंदिर के पास ही रखी जाती है. यद्दपि इस आकार की कोई दूसरी मूर्ति देवरानी मंदिर में नहीं मिली है, पर जेठानी मंदिर में ज्यादा मिली है. हालांकि रूद्र रूप शिव के गण देवरानी मंदिर की खुदाई में मिले हैं, परन्तु प्राप्त प्रतिमा इस मंदिर की मुख्य मूर्ति नहीं हो सकती है. (जारी)
शास्त्र के आधार पर निर्मित : तालागांव में मिली प्रतिमा के पुरातात्विक विश्लेषण से ज्ञात होता है कि इसके निर्माण में केवल उर्वरा कल्पना शक्ति का ही सहारा नहीं लिया गया है, बल्कि मूर्तिकार द्वारा किसी शास्त्र को ध्यान में रखते हुए मूर्ति बनाई गई है. साथ ही इसके द्वारा स्वयं के शिल्प कौशल का बखूबी इस्तेमाल किया गया है. अनुमान है कि उस समय आसपास तांत्रिक साधना का जोर रहा होगा, जिससे प्रेरित होकर मूर्तिकार ने उपासना के लिए सौम्य रूप के बजाय रौद्र रूप वाली प्रतिमा तराशी होगी. यह प्रतिमा तालागांव के देवरानी मंदिर की है अथवा जेठानी मंदिर की, यह प्रश्न भी अनुत्तरित है. प्रतिमा की स्थिति और उसके सुरक्षित रखे जाने की पूर्व हालत को मद्देनजर रखते हुए पुरातत्व अधिकारी यह बता पाने में सक्षम नहीं हैं कि प्रतिमा किस मंदिर में प्रतिष्ठित और पूजित रही होगी. उत्खनन निर्देशक के अनुसार, आम तौर पर मूर्ति मंदिर के पास ही रखी जाती है. यद्दपि इस आकार की कोई दूसरी मूर्ति देवरानी मंदिर में नहीं मिली है, पर जेठानी मंदिर में ज्यादा मिली है. हालांकि रूद्र रूप शिव के गण देवरानी मंदिर की खुदाई में मिले हैं, परन्तु प्राप्त प्रतिमा इस मंदिर की मुख्य मूर्ति नहीं हो सकती है. (जारी)
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