"राम नाम में लीन हैं, देखत सबमें राम, ताके पद वंदन करूँ, जय जय श्री जलाराम" यह पंक्ति संत शिरोमणि श्रद्धेय जलाराम बापा के जीवन-दर्शन को गागर में सागर के सदृश्य रूपायित करती है. गृहस्थ आश्रम में रह कर भी जलाराम बापा ने सांसारिक मोह माया से परे हट कर सेवा और भक्ति को अपने जीवन का मूल मन्त्र बनाया था. अपनी सेवाभावी धर्मपत्नी वीर बाई के सहयोग से इन्होंने
सदाव्रत-अन्नदान सेवा कार्य के जरिये सामाजिक जीवन का प्रेरणादायी मार्ग प्रशस्त किया था.
जलाराम बापा ने दरिद्र नारायण की सेवा को ही वास्तविक प्रभु भक्ति मान कर अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया था. दीन दुखियों और भिक्षुओं की सेवा उनकी पहली प्राथमिकता में शुमार था. "खुद भूखे रह कर, दूसरों का पेट भरना" जलाराम बापा का प्रमुख सिद्धांत था. घर आये अथितियों में उन्हें प्रभु श्रीराम की झलक मिलती थी. भिक्षु, साधु-सन्यासी, यात्री सहित सभी आगंतुक अतिथियों को वे रोटी में राम के दर्शन करवाते थे. इनके आँगन में आया श्रद्धालु व्यक्ति सार्थक जीवन दर्शन आत्मसात कर लौटता था.
जलाराम बापा अपनी प्रशंसा और निंदा से कभी भी आत्म मुग्ध अथवा विचलित नहीं होते थे. धर्म-आख्यान और प्रवचन करने के बजाय वे जरूरतमंदों की सेवा को ही अपना प्रमुख लक्ष्य और कर्तव्य समझते थे. समय समय पर ईश्वर ने भी जलाराम बापा की गहन कसौटी ली, जिसमें वे पूरी तरह खरे उतरे. श्रद्धालु और अनुयायी जलाराम बापा को सेवक संत के रूप में ईश्वर का अवतार मानते थे. सच्चे मन से जलाराम बापा के स्मरण मात्र से ही लोगों के दुःख दर्द दूर हो जाते थे. इनके स्नेहमयी स्पर्श और आशीर्वाद से प्रत्येक जीव में नवजीवन का संचार हो जाता था. सहृदयपूर्वक जलाराम बापा के नाम से मानी गई मन्नत फलीभूत होने में कोई संदेह नहीं रहता. उनके चमत्कार जनहित के पर्याय रहे हैं. आज भी यही स्थिति यथावत है. जलाराम बापा के प्रति अनुयायियों की आस्था और श्रद्धा को समय का चक्र भी प्रभावित नहीं कर सका है. इनके अनुयायी देश ही नहीं वरन पूरी दुनिया में हैं.
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