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शनिवार, 10 जनवरी 2015

अभिव्यक्ति कभी मर नहीं सकती

दर्दनाक दृश्य है …
बिखरे पड़े हैं रक्तरंजित कागज
खून से लथपथ है कलम पेंसिल
अभिव्यक्ति पड़ी हुई है औंधे मुँह
आतंकी हमला हुआ है इस जगह
 
अभी भी जान बाकी है कटे हाथ में
कोशिश कर रहा है कुछ लिखने की
कुछ रेखाएं उभारने की जुगत में है
चौड़ा हो गया है खून से छलनी सीना
गर्व से ऊँचा हो गया है कटा हुआ सर
आशा की हलचल हैं कटे हुए पाँव में
लहूलुहान ये कलम पेंसिल की नोंक
अपनी शक्ति को एकत्रित कर रही है
कुछ उगल रहे हैं क्षतविक्षत कागज
शब्द- रेखाओं का ढेर सा लग गया है

अधिक ताकतवर लगी है बंदूक को
कलम और पेंसिल की चुभीली नोंक
चोट पहुँची है शब्दों और रेखाओं से
ज्यादा विस्फोटक है उनका बारूद
इसीलिये चलाई है आतंक की गोली
अभिव्यक्ति को मारने कोशिश की है  
अंग अंग बेजान करने कोशिश की है
किंतु,
बंदूक अब हैरान है
आतंक भी चकित है
अंग भंग होने के बावजूद
अभिव्यक्ति कैसे जीवित है!
आहत कलम पेंसिल गर्वित हैं
एक स्वर में उनका कहना हैं
आघात से हस्ती मिट नहीं सकती
अभिव्यक्ति कभी मर नहीं सकती

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(चित्र गूगल से साभार)




 
 



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