( दिनेश ठक्कर )
गायन प्रयोग नहीं अभियान है: "हिन्दी साहित्य का भंडार अथाह है.मध्ययुगीन तथा रीतिकालीन रचनाएँ आज भी ग्रंथालयों तथा पाठ्य पुस्तकों तक ही सीमित हैं. रहीम, रसखान, नरोत्तम दास, बिहारी, देव, आलम, गोविन्द, मीरा और भूषण की रचनाओं का किसी भी संगीतज्ञ द्वारा इस्तेमाल नहीं किया गया था, यद्दपि शास्त्रीय संगीत काफी प्राचीन है, इसीलिये हमनें मध्ययुगीन और रीतिकालीन कवि, रचनाकारों की रचनाओं को अपने सुगम शास्त्रीय संगीत में पिरोया है. यह प्रयास मात्र प्रयोग नहीं वरन एक अभियान है." उक्ताशय के विचार प्रसिद्ध भजन-गजल गायक शेखर सेन ने "नवभारत" को दी गई विशेष भेंट में व्यक्त किये. अपनी बात को आगे बढाते हुए उन्होंने यह स्वीकार किया "उक्त रचनाकारों की रचनाएँ शास्त्रीय गायन पर आधारित होते हुए भी हम इसे सुगम तरीके से गाते हैं, ताकि श्रोताओं में यह ग्राह्य हो सके."
उल्लेखनीय है रायपुर में जन्मे शेखर सेन ने अपने जयेष्ठ भ्राता कल्याण सेन के साथ जोड़ी बना कर भक्ति काल और रीति काल के कवि-रचनाकारों के छंद, पद, कवित्त, दोहे, सवैये, चौपाई तथा सोरठा को सुगम संगीत के दायरे में सुर ताल में आबद्ध कर संगीत के क्षेत्र में एक अभिनय कार्य किया है. एक ओर जहां वे पद्य काव्य को अपनी स्वर लहरियों से श्रोताओं को अभिभूत कर देते हैं, वहीं दूसरी ओर वे नामी शायरों की गजलों को भी कुछ इस तरह गायकी में ढाल कर पेश करते हैं श्रोताओं में एक अनूठी सांगीतिक चेतना स्वतः जागृत हो उठती है. इन्होने पाकिस्तान में लिखे हिन्दी गीतों को भी खूबसूरत अंदाज के साथ सुर ताल में संजोया है.
यूं तो शेखर-कल्याण का समूचा परिवार बरसों से संगीत साधना में जुटा हुआ है, बावजूद इसके शेखर-कल्याण ने एक नव सांगीतिक सुरभि पैदा कर अपनी मौलिकता का परिचय दिया है. निष्णात गायिका और कमला देवी संगीत महाविद्यालय रायपुर की प्राचार्य डा. अनिता सेन और पिताश्री डा. अरूण कुमार सेन (पूर्व कुलपति खैरागढ़ विश्वविद्यालय) के सुपुत्र शेखर सेन ने रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर से बी.काम., खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय से संगीत विद और बी. म्यूजिक की उपाधि प्राप्त की है. जबकि कल्याण सेन कंठ संगीत में स्नातकोत्तर हैं, वे तबला वादन में संगीत विद की उपाधि से विभूषित हो चुके हैं. इन्होने मैहर के बाबा अलाउद्दीन खान, रहमत अली खान और हीरा लाल त्रिपाठी के सानिध्य में रह कर तबला वादन के कौशल में श्रीवृद्धि की. गायन की शिक्षा ग्वालियर घराने के बाला साहब पूंछवाले, श्रीमती कमल कलाकार और अमरेश चन्द्र चौबे से प्राप्त की.
इसी तरह शेखर सेन ने भी माता पिताश्री के अतिरिक्त श्रीमती कलाकार की शिष्यता में गायन में महारथ हासिल की. यही वजह है शेखर-कल्याण की गायन शैली में ग्वालियर घराने की स्पष्ट छाप है. लखनऊ,बनारस, गया की ठुमरी के अलग अलग भेद गाने से सेन बंधू अपनी मातुश्री की तरह दक्ष हैं. सेन बंधू पिछले छः वर्षों से बम्बई में रह कर संगीत साधना कर रहे हैं.
शेखर-कल्याण से यह पूछे जाने पर "मध्ययुगीन काव्य को गायन शैली में आत्मसात करने के पीछे कौन सी प्रेरणा रही?" तो जवाब में उन्होंने कहा- "जब भविष्य की ओर देखना होता है तो हम अतीत की ओर भी देखें. इस युग की रचनाओं को यदि आम लोगों के सामने लायेंगे नहीं तो एक समय बाद यह लुप्त हो जायेगी. यही आशंका मेरे लिए प्रेरणा बनी. मैंने उसमें गायिकी की संभावना को खोजा और सफल भी हुआ."
गायन में किये जाने वाले नित नए प्रयोगों से आप कहाँ तक सहमत हैं? इस सवाल के जवाब में कल्याण सेन बोल उठे- "प्रयोग होना चाहिए, लेकिन शास्त्रीयता के दायरे में." इसे विस्तार देते हुए शेखर सेन ने कहा- "हम स्वयं प्रत्येक वर्ष हिन्दी दिवस पर एक नया प्रयोग करते हैं. सन १९८४ में हमने सबसे पहले दुष्यंत की गजलों को उठाया.पिछले वर्ष मध्ययुगीन काव्य तथा इस वर्ष पाकिस्तान के हिन्दी काव्य को हमने गायन के लिए चुना. निगार सहबाई, जेहरा निगाह, सहबा अख्तर, जमीलुद्दीन अली तथा इब्ने इंसा के नाम इनमें प्रमुख हैं."
गजल-भजन गायन के भविष्य को सेन बंधुओं ने बेहतर बताया. भजन गायकों की महत्ता प्रतिपादित करते हुए उन्होंने बेबाक तौर पर कहा- "भजन सुनाने से यदि मोक्ष मिल जाता तो श्रोता हमें सुनने के बजाय मंदिर में जाना बेहतर समझते. दरअसल श्रोता तो भजन के प्रस्तुतिकरण को देखने सुनने आते हैं." भजन और गजल के क्रमवार गायन से गायन संतुलन में कोई विपरीत असर तो नहीं पड़ता? इस प्रश्न पर उनका जवाब था- "गायन से पूर्व मानसिक तैयारी जरूरी होती है. श्रोताओं का रूख देख कर हम तय कर लेते है हमें उसका कितना प्रतिशत रखना है. बावजूद इसके दुराग्रह की स्थिति में श्रोताओं की फरमाइशें थोड़ी बहुत उलझन अवश्य पैदा करती है. यद्दपि इनका एक छोटा सा ही वर्ग होता है."
पक्का गायन तथा सुगम शास्त्रीय गायन इन दोनों में से आप किसे प्राथमिकता देते हैं अपने गायन के दौरान? उनका जवाब था- "जगह देख कर गायन में हम शास्त्रीयता का उपयोग करते हैं." क्या आपने स्वयं कोई गीत रच कर उसे स्वरबद्ध किया है? शेखर बोले- "फिलहाल तो नहीं, लेकिन पिताश्री के लिखे गीत रामायण,गीत नानक गीत महावीर जिन्हें माताजी ने स्वरबद्ध किया है, उन्हें अवश्य गाता हूँ."
देश में गजल का विकल्प आप किसे मानते हैं? शेखर कहते हैं- "हिन्दुस्तान में कोई भी चीज नहीं मरती है,यहाँ हर चीज शास्वत है.गजल तो उसके माधुर्यपूर्ण मेलोडी के कारण सुनी जाती है.इसलिए उसका कोई विकल्प नहीं हो सकता." गजल गायन के दौरान आपने आम श्रोताओं के मनोविज्ञान को कहाँ तक परखा है? उनकी सपाट बयानी थी- "गजल सुनते वक्त आम श्रोताओं की आतंरिक विकृतियाँ उभर कर सामने आ जाती हैं, ख़ास कर रूमानी नज्मों पर.उसकी अधिक दाद इसका सबूत है. कुछ ऐसे काम जो श्रोता अपनी निजी जिन्दगी में नहीं कर पाते वह अगर किसी शायर की बात में होता देखते हैं तो आत्म विभोर हो उठते हैं."
(नवभारत बिलासपुर में २ जनवरी १९८७ को प्रकाशित )
गायन प्रयोग नहीं अभियान है: "हिन्दी साहित्य का भंडार अथाह है.मध्ययुगीन तथा रीतिकालीन रचनाएँ आज भी ग्रंथालयों तथा पाठ्य पुस्तकों तक ही सीमित हैं. रहीम, रसखान, नरोत्तम दास, बिहारी, देव, आलम, गोविन्द, मीरा और भूषण की रचनाओं का किसी भी संगीतज्ञ द्वारा इस्तेमाल नहीं किया गया था, यद्दपि शास्त्रीय संगीत काफी प्राचीन है, इसीलिये हमनें मध्ययुगीन और रीतिकालीन कवि, रचनाकारों की रचनाओं को अपने सुगम शास्त्रीय संगीत में पिरोया है. यह प्रयास मात्र प्रयोग नहीं वरन एक अभियान है." उक्ताशय के विचार प्रसिद्ध भजन-गजल गायक शेखर सेन ने "नवभारत" को दी गई विशेष भेंट में व्यक्त किये. अपनी बात को आगे बढाते हुए उन्होंने यह स्वीकार किया "उक्त रचनाकारों की रचनाएँ शास्त्रीय गायन पर आधारित होते हुए भी हम इसे सुगम तरीके से गाते हैं, ताकि श्रोताओं में यह ग्राह्य हो सके."
उल्लेखनीय है रायपुर में जन्मे शेखर सेन ने अपने जयेष्ठ भ्राता कल्याण सेन के साथ जोड़ी बना कर भक्ति काल और रीति काल के कवि-रचनाकारों के छंद, पद, कवित्त, दोहे, सवैये, चौपाई तथा सोरठा को सुगम संगीत के दायरे में सुर ताल में आबद्ध कर संगीत के क्षेत्र में एक अभिनय कार्य किया है. एक ओर जहां वे पद्य काव्य को अपनी स्वर लहरियों से श्रोताओं को अभिभूत कर देते हैं, वहीं दूसरी ओर वे नामी शायरों की गजलों को भी कुछ इस तरह गायकी में ढाल कर पेश करते हैं श्रोताओं में एक अनूठी सांगीतिक चेतना स्वतः जागृत हो उठती है. इन्होने पाकिस्तान में लिखे हिन्दी गीतों को भी खूबसूरत अंदाज के साथ सुर ताल में संजोया है.
यूं तो शेखर-कल्याण का समूचा परिवार बरसों से संगीत साधना में जुटा हुआ है, बावजूद इसके शेखर-कल्याण ने एक नव सांगीतिक सुरभि पैदा कर अपनी मौलिकता का परिचय दिया है. निष्णात गायिका और कमला देवी संगीत महाविद्यालय रायपुर की प्राचार्य डा. अनिता सेन और पिताश्री डा. अरूण कुमार सेन (पूर्व कुलपति खैरागढ़ विश्वविद्यालय) के सुपुत्र शेखर सेन ने रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर से बी.काम., खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय से संगीत विद और बी. म्यूजिक की उपाधि प्राप्त की है. जबकि कल्याण सेन कंठ संगीत में स्नातकोत्तर हैं, वे तबला वादन में संगीत विद की उपाधि से विभूषित हो चुके हैं. इन्होने मैहर के बाबा अलाउद्दीन खान, रहमत अली खान और हीरा लाल त्रिपाठी के सानिध्य में रह कर तबला वादन के कौशल में श्रीवृद्धि की. गायन की शिक्षा ग्वालियर घराने के बाला साहब पूंछवाले, श्रीमती कमल कलाकार और अमरेश चन्द्र चौबे से प्राप्त की.
इसी तरह शेखर सेन ने भी माता पिताश्री के अतिरिक्त श्रीमती कलाकार की शिष्यता में गायन में महारथ हासिल की. यही वजह है शेखर-कल्याण की गायन शैली में ग्वालियर घराने की स्पष्ट छाप है. लखनऊ,बनारस, गया की ठुमरी के अलग अलग भेद गाने से सेन बंधू अपनी मातुश्री की तरह दक्ष हैं. सेन बंधू पिछले छः वर्षों से बम्बई में रह कर संगीत साधना कर रहे हैं.
शेखर-कल्याण से यह पूछे जाने पर "मध्ययुगीन काव्य को गायन शैली में आत्मसात करने के पीछे कौन सी प्रेरणा रही?" तो जवाब में उन्होंने कहा- "जब भविष्य की ओर देखना होता है तो हम अतीत की ओर भी देखें. इस युग की रचनाओं को यदि आम लोगों के सामने लायेंगे नहीं तो एक समय बाद यह लुप्त हो जायेगी. यही आशंका मेरे लिए प्रेरणा बनी. मैंने उसमें गायिकी की संभावना को खोजा और सफल भी हुआ."
गायन में किये जाने वाले नित नए प्रयोगों से आप कहाँ तक सहमत हैं? इस सवाल के जवाब में कल्याण सेन बोल उठे- "प्रयोग होना चाहिए, लेकिन शास्त्रीयता के दायरे में." इसे विस्तार देते हुए शेखर सेन ने कहा- "हम स्वयं प्रत्येक वर्ष हिन्दी दिवस पर एक नया प्रयोग करते हैं. सन १९८४ में हमने सबसे पहले दुष्यंत की गजलों को उठाया.पिछले वर्ष मध्ययुगीन काव्य तथा इस वर्ष पाकिस्तान के हिन्दी काव्य को हमने गायन के लिए चुना. निगार सहबाई, जेहरा निगाह, सहबा अख्तर, जमीलुद्दीन अली तथा इब्ने इंसा के नाम इनमें प्रमुख हैं."
गजल-भजन गायन के भविष्य को सेन बंधुओं ने बेहतर बताया. भजन गायकों की महत्ता प्रतिपादित करते हुए उन्होंने बेबाक तौर पर कहा- "भजन सुनाने से यदि मोक्ष मिल जाता तो श्रोता हमें सुनने के बजाय मंदिर में जाना बेहतर समझते. दरअसल श्रोता तो भजन के प्रस्तुतिकरण को देखने सुनने आते हैं." भजन और गजल के क्रमवार गायन से गायन संतुलन में कोई विपरीत असर तो नहीं पड़ता? इस प्रश्न पर उनका जवाब था- "गायन से पूर्व मानसिक तैयारी जरूरी होती है. श्रोताओं का रूख देख कर हम तय कर लेते है हमें उसका कितना प्रतिशत रखना है. बावजूद इसके दुराग्रह की स्थिति में श्रोताओं की फरमाइशें थोड़ी बहुत उलझन अवश्य पैदा करती है. यद्दपि इनका एक छोटा सा ही वर्ग होता है."
पक्का गायन तथा सुगम शास्त्रीय गायन इन दोनों में से आप किसे प्राथमिकता देते हैं अपने गायन के दौरान? उनका जवाब था- "जगह देख कर गायन में हम शास्त्रीयता का उपयोग करते हैं." क्या आपने स्वयं कोई गीत रच कर उसे स्वरबद्ध किया है? शेखर बोले- "फिलहाल तो नहीं, लेकिन पिताश्री के लिखे गीत रामायण,गीत नानक गीत महावीर जिन्हें माताजी ने स्वरबद्ध किया है, उन्हें अवश्य गाता हूँ."
देश में गजल का विकल्प आप किसे मानते हैं? शेखर कहते हैं- "हिन्दुस्तान में कोई भी चीज नहीं मरती है,यहाँ हर चीज शास्वत है.गजल तो उसके माधुर्यपूर्ण मेलोडी के कारण सुनी जाती है.इसलिए उसका कोई विकल्प नहीं हो सकता." गजल गायन के दौरान आपने आम श्रोताओं के मनोविज्ञान को कहाँ तक परखा है? उनकी सपाट बयानी थी- "गजल सुनते वक्त आम श्रोताओं की आतंरिक विकृतियाँ उभर कर सामने आ जाती हैं, ख़ास कर रूमानी नज्मों पर.उसकी अधिक दाद इसका सबूत है. कुछ ऐसे काम जो श्रोता अपनी निजी जिन्दगी में नहीं कर पाते वह अगर किसी शायर की बात में होता देखते हैं तो आत्म विभोर हो उठते हैं."
(नवभारत बिलासपुर में २ जनवरी १९८७ को प्रकाशित )
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