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सोमवार, 4 मई 2015

खेतों में अब मौत लहलहाती है

कब तक हाथ पसारते रहेंगे
ये मिट्टी का कर्ज चुकाने
आकंठ डूबे हैं कृषि ऋण से
खेत क्या श्मशान बन जाएंगे

हल चलाते वक्त पसीने के संग  
आंसू भी भिगोते हैं मिट्टी को
संकट के बादल बरसने के बाद
पानी फिर जाता है आशाओं पर

इन्हें अक्सर दगा दे जाता है
किस्मत की तरह मानसून भी
खेत संग बंजर होती जिंदगी भी
तब सांसें भी गिरवी हो जाती हैं

इनके ही अनाज की रोटियां को
सेंका जा रहा है सियासी तवे पर
इनकी कोई चिंता नहीं किसी को
हाथ सेंक रहे वे जलती चिता पर

इनका अपना अब कुछ नहीं है
उधार की हैं प्रत्येक धड़कनें भी
बंधक हैं आश्रितों की आशाएं भी
खेतों में अब मौत लहलहाती है

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
 (चित्र : गूगल से साभार)
     
  

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