अभिव्यक्ति की अनुभूति / शब्दों की व्यंजना / अक्षरों का अंकन / वाक्यों का विन्यास / रचना की सार्थकता / होगी सफल जब कभी / हम झांकेंगे अपने भीतर

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

सत्यदेव दुबे के रंग और कर्म का सच

झुरमुट में दुपहरिया कुम्हलाई/ खेतों में अन्हियारी घिर आई/ पश्चिम की सुनहरिया घुंघराई/ टीलों पर, तालों पर/ इक्के दुक्के अपने घर जाने वाले पर / धीरे धीरे उतरी शाम/ लगता है इन पिछले वर्षों में/ सच्चे झूठे, मीठे कडवे संघर्षों में/ इस घर की छाया छूट गई अनजाने .... डा. धर्मवीर भारती द्वारा लिखित चर्चित कविता "कस्बे की शाम" की उक्त पंक्तियाँ रंग ऋषि सत्यदेव दुबे पर चरितार्थ होती हैं. वे भी जीवन पर्यंत इस कविता के माध्यम से अपने खोये कस्बे और घर की छाया को अपने सृजन में तलाशते रहे. डा. धर्मवीर भारती के वे बेहद प्रिय पड़ोसी थे. परस्पर साहित्य सहवास भी अत्यंत अन्तरंग था. यह भी एक संयोग था निवास क्षेत्र का नाम "साहित्य सहवास" होना. मुंबई के उप नगर बांद्रा (पूर्व) में डा. धर्मवीर भारती के घर का पता "५, शाकुंतल, साहित्य सहवास" और सत्यदेव दुबे का ठौर ठिकाना "१०, फूलरानी , साहित्य सहवास". डा. भारती के अन्तरंग पड़ोसी होने के कारण सत्यदेव दुबे की साहित्यिक अभिरूचि में वृद्धि और सोच में व्यापकता स्वाभाविक थी. लेकिन रविवार, २५ दिसंबर २०११ को सुबह ११.३० बजे सत्यदेव दुबे के देहावसान से साहित्य सहवास की "फूलरानी" मुरझा गई. अपने भाई सदृश्य मित्र डा. भारती की तरह यायावर सत्यदेव दुबे भी अनंत यात्रा पर चले गए. उनका जाना सार्थक रंगमंच और समानांतर सिने कथा-संवाद जगत के लिए बड़ा झटका है. मुंबई के एक निजी अस्पताल में साँसों की डोर टूटने से उनके जीवन के रंगमंच का ही पर्दा नहीं गिरा है, अपितु प्रयोगधर्मी सृजन कर्म भी "लास्ट कट" के साथ "पैक-अप" हो गया है. कोमा में चले जाने के कारण उनके जीवन अध्याय के अंतिम "शाट" के "रिटेक" का मौका भी ऊपर वाले ने नहीं दिया. रंगमंच की दुनिया खासकर जुहू, मुंबई के पृथ्वी थियेटर से उनका दिलोदिमाग से गहरा जुडाव था. इसके प्रबंधन और मालिकाना हक़ को लेकर फिल्म अभिनेता शशी कपूर की पुत्री अभिनेत्री संजना कपूर और शशी कपूर के ही पुत्र कुनाल के बीच हुए पारिवारिक विवाद का सदमा सत्यदेव दुबे को भी लगा था. संजना कपूर को पृथ्वी थियेटर से अलग कर दिए जाने से इन्हें मानसिक आघात पहुंचा था. तब से सत्यदेव दुबे की तबियत खराब रहने लगी थी. सितम्बर माह में उन्हें ब्रेन स्ट्रोक हुआ था, जो जीवन के अंतिम सफ़र की वजह भी बना. भावनात्मक रूप से वे जितने संवेदनशील थे, उससे कहीं ज्यादा सृजन में संवेदनशील थे. इनका अंतिम संस्कार रविवार, २५ दिसंबर की शाम को मुंबई के शिवाजी पार्क शमशान गृह में किया गया.
७५ वर्षीय सत्यदेव दुबे के जीवन की पृष्ठभूमि प्रतिष्ठित रही है. छितानी मितानी परिवार बिलासपुर (छतीसगढ़) का एक जाना माना परिवार है. बिलासपुर के खांटी पुराने मुहल्ले गोंड पारा में १९ मार्च १९३६ को गया प्रसाद दुबे के यहाँ इनका जन्म हुआ था. इनके पिताश्री की इच्छा थी सत्यदेव इंग्लिश की पढ़ाई में अव्वल रहे, इसलिए इन्हें  आरंभिक शिक्षा बिलासपुर के रेलवे इंग्लिश मीडियम स्कूल में दिलवाई गई थी. उस जमाने यह एंग्लो इंडियन लोगों का स्तरीय स्कूल समझा जाता था. एक एंग्लो इंडियन परिवार के संरक्षण में इन्हें इस स्कूल में एडमिशन मिला था. नवमी कक्षा के बाद फिर मैट्रिक इन्होने हिन्दी माध्यम वाले स्कूल लाल बहादुर शास्त्री शाला से किया था. शालेय शिक्षा के दौरान ही इनके पिताश्री की मृत्यु हो गई थी. सत्यदेव दुबे जब दस साल थे, तब आलू पराठे खाने का बेहद शौक था. बचपन में इनका अधिकतर लालन पालन चाचा काशीप्रसाद दुबे के यहाँ हुआ था. चाचा के घर से लगा हुआ ब्रिजवासी होटल गोलबाजार के संचालक कल्लामल ब्रिजराज खंडेलवाल का घर भी था. दोनों घर की छत एक थी. इसी छत में खेलने के दरम्यान बालक सत्यदेव अक्सर खंडेलवाल जी के घर पहुँच जाते फिर उस घर की बड़ी बहू जो स्वादिष्ट शुद्ध घी के आलू पराठे बनाने में माहिर थी, से आलू पराठा खिलाने का बाल हठ करते. बालक सत्यदेव नाटकीय अंदाज वाले थे, इसलिए बड़ी बहू कहती "पहले अपना डांस दिखाओ तब आलू पराठा मिलेगा". फिर आलू पराठे के लालच में सत्यदेव ठुमक ठुमक कर डांस करते. इस दौरान घर की सभी महिलाएं एकत्रित हो जाती थीं. सत्यदेव बिना झेंपे सबका मनोरंजन करते थे.
सत्यदेव दुबे के बाल्यकाल का नाटकीय अंदाज युवा अवस्था में परिष्कृत हो गया था. मुंबई के जेवियर्स कालेज में जाने पर यह नाटकीय अंदाज कलात्मक सृजन में परिवर्तित हो गया. यहाँ से स्नातक होने के बाद वर्ष १९५९ में सत्यदेव दुबे ने सागर यूनिवर्सिटी से इंग्लिश में मास्टर आफ आर्ट्स (गोल्ड मेडलिस्ट) की डिग्री ली थी. इसके बाद कुछ समय तक इन्होने बिलासपुर के एस.बी.आर. कालेज में पढ़ाया भी था. बिलासपुर के  देश विख्यात "तीन एस." में से वे एक थे. तीन एस. यानी साहित्यकार- राजनीतिज्ञ श्रीकांत वर्मा, नाटककार डा. शंकर शेष और सत्यदेव दुबे. इन तीनों ने अपने अपने तरीके से बिलासपुर का नाम पूरे देश में रोशन किया. ये तीनों विभूतियाँ आज इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन लोगों के दिलों में अवश्य बसे हैं.                .
बिलासपुर के गोंड पारा की घुमावदार गलियों में सत्यदेव दुबे का बाल्यकाल गुजरा था. गोलबाजार के निकट स्थित हरदेव लाला मंदिर के आसपास बैठ कर वे दोस्तों से गप्पे लड़ाते थे. बाल्यकाल की इन यादों को उन्होंने अपने सृजन में भी उकेरा था. स्कूली जीवन से ही इन्हें क्रिकेट के खेल में ज्यादा रुचि थी, जो मुंबई जाने का कारण बनी थी. टेस्ट प्लेयर बनने का सपना उन्हें मुंबई खींच ले गया था, लेकिन बन गए नाटक और सिनेमा के खिलाड़ी, जो आख़री समय तक क्रीज पर बने रहे. पारिवारिक बंटवारे में बिलासपुर का पुराना सिनेमा हाल श्याम टाकिज इनके हिस्से में आया था. एक समय ऐसा भी आया जब पूर्व मंत्री अशोक राव  इसका संचालन कर सत्यदेव दुबे की आर्थिक सहायता करते रहे. बिलासपुर में रामचंद और बाजपेयी बाड़ा इनकी बैठकी का पसंदीदा स्थल था. जस्टिस के.के. वर्मा और बाजपेयी जी का बँगला इनका बौद्धिक विचार विमर्श का प्रमुख स्थान हुआ करता था. मध्यप्रदेश शासन में मंत्री रहे और सत्यम टाकिज के संचालक अशोक राव से इनकी गहरी दोस्ती थी. मुंबई वासी हो जाने के बाद भी जब वे बिलासपुर आते तब वे अशोक राव के यहाँ ही ठहरते. ख़ास सिने पटकथा, संवाद लेखन के लिए भी वे उनके यहाँ गुप्त रूप से आते थे. कुछ रोज बाद फिर वे किसी से मिले बगैर वापस मुंबई लौट जाते थे. यहाँ जब भी आते तो दिन में दो चार बार गुड़ाखू करना नहीं भूलते थे.
साहित्यकार पालेश्वर शर्मा भी बिलासपुर के प्रारम्भिक प्रमुख युवा मित्रों में से एक रहे. इन्होने ही सत्यदेव दुबे को मुंबई जाने से पहले डा. धर्मवीर भारती के चर्चित रेडियो प्ले "अंधा युग" के बारे में बताया था और उसे नयी स्क्रिप्ट के साथ रंगमंच पर प्रस्तुत करने की प्रेरणा दी थी. सत्यदेव दुबे ने नयी स्क्रिप्ट लिखकर १९६२ में इसका मंचन इब्राहिम अल्काजी के निर्देशन में मुंबई और दिल्ली में करवाया था. इस प्ले को नव आयाम देने से डा. धर्मवीर भारती स्वयं इनकी प्रयोगशीलता से बेहद प्रभावित थे.
मुंबई के जेवियर्स कालेज में पढ़ाई के दौरान सत्यदेव दुबे देव आनंद के भाई विजय आनंद के संपर्क में आये थे. वे ही इनके सृजन के सफ़र के सूत्रधार बने थे. उनके बहु आयामी व्यक्तित्व का बीजारोपण हो गया. शुरूआती दौर में थियेटर उनके लिए महज शौकिया था, जो आगे चलकर जूनून बन गया.  पीडी शिनॉय और निखिल जी की बताई रंग राह मंजिल की तरफ ले गई. वे इब्राहिम अल्काजी के थियेटर से जुड़ गए. फिर तो निर्बाध रंग यात्रा शुरू हो गई. देसी विदेशी नाटको के मंचन में उन्हें समान रूप से ख्याति मिली. हिन्दी, मराठी, गुजराती के अलावा इंग्लिश और फ्रेंच नाटको की सफल प्रस्तुतियों से उनकी पहचान प्रयोगधर्मी रंगकर्मी बतौर अधिक बनी. नाटक "अंधा युग" (डा. धर्मवीर भारती), "ययाति", "हयवदन" (गिरीश कर्नाड), "एवम इन्द्रजीत", पगला घोड़ा" (बादल सरकार), "और तोता बोला" (चन्शेखर काम्ब्रा), "आधे अधूरे" (मोहन राकेश), "गिधाडे", "शांतता ! कोर्ट चालू आहे" (विजय तेंदुलकर) आदि नाटकों के जरिये सत्यदेव दुबे रंगकर्म की दुनिया के एक सशक्त हस्ताक्षर बन गए. बिलासपुर के अपने नाट्य लेखक मित्र डा. शंकर शेष, जो १९७४ में मुंबई वासी हो गए थे, का नाटक "अरे मायावी सरोवर" का सफल मंचन इन्होने सौ बार से ज्यादा किया था. फ्रेंच नाटक "एंटीगोने " के  कलात्मक मंचन से उच्च वर्ग के दर्शकों में इनकी पैठ गहरी हुई. मुंबई के पृथ्वी थियेटर को स्थापित करने में इनके मंचित नाटकों का भी बड़ा हाथ रहा. जार्ज बर्नाड शा के नाटक "जूआन इन हेल" का मंचन जब इन्होने मुंबई के नरीमन पाइंट स्थित टाटा थियेटर में किया था तब समाप्ति के बाद दर्शक इन्हें बधाई देने के लिए टूट पड़े थे.
सत्यदेव दुबे जब मुंबई में रंगकर्म के क्षेत्र में कमर कस कर सक्रिय हुए तब उस समय व्यावसायिक तौर पर द्विअर्थी गुजराती और मराठी नाटकों का बोलबाला था. आज के कुछ स्थापित फिल्म और टीवी अभिनेता उसी दौर के नाटकों के रास्ते से आये हैं. इंग्लिश नाटकों का भी तब वर्चस्व था. उस वक्त मुंबई में हिन्दी नाटकों का व्यायसायिक स्थान चौथे क्रम पर था. ऐसे विपरीत रंग परिदृश्य में सत्यदेव दुबे ने हिन्दी नाटकों को टिकट खिड़की पर ग्राह्य बनाया.
नवमे दशक आते तक हिन्दी रंगमंच जगत में एम्.एस. सथ्यू, अंजन श्रीवास्तव (इप्टा), इला अरुण (सुरनयी ), नादिरा बब्बर (एकजुट), दिनेश ठाकुर (अंक), ओम कटारे (यात्री), संजना कपूर (पृथ्वी प्रोडक्शन), मकरंद देशपांडे (प्लेटफार्म प्ले), फिरोज खान (प्लेटफार्म परफार्मेंस) आदि नाट्य निर्देशक अपने अपने थियेटर ग्रुप के मार्फ़त पृथ्वी थियेटर में सक्रिय होकर सत्यदेव दुबे के लिए चुनौती सदृश्य बन गए थे. किन्तु अपनी शर्तों पर जीने वाले सत्यदेव दुबे ने अपने समकक्ष के रंगकर्म की प्रत्येक चुनौती को सहर्ष स्वीकारा था. हिन्दी नाट्य मंडलियों की इस प्रतिस्पर्धी चुनौती में उनका रंगकर्म अलग अंदाज का था. कम किन्तु अच्छी प्रस्तुति उनका ध्येय होता था. वे व्यावसायिकता की अंधी रंग दौड़ में धावक बनना नहीं चाहते थे. उनका दर्शक वर्ग तय था. वह उनकी बेबाक और कलात्मक प्रस्तुति की प्रतीक्षा करता रहता था. लगन, जोश और जुनून उनकी रंग कार्य शैली के प्रमुख घटक थे. सत्यदेव दुबे ने अपनी नाट्य संस्था "संवर्धन" (पुराना नाम- थियेटर यूनिट) के संचालक और निर्देशक का दोहरा प्रभार बखूबी सम्हाला था. पृथ्वी थियेटर में नाटक "एजुकेटिंग रीता", "गांठ" और "स्ट्रिपटीजन पुलिस" के अनूठे मंचन से उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई थी. पृथ्वी थियेटर से ही इनकी दोस्ती अभिनेता अमरीश पुरी, कुलभूषण खरबंदा, नसीरूद्दीन शाह , ओमपुरी, इला अरूण , स्मिता पाटिल, शबाना आजमी, निर्देशक श्याम बेनेगल और सिनेमेटोग्राफर, निर्देशक गोविन्द निहलानी से हुई थी. आगे चलकर ये हस्तिया सिने सफ़र में भी इनके साथ रहीं. सत्यदेव दुबे पृथ्वी थियेटर के बाहरी खुले परिसर में होने वाले निःशुल्क प्लेटफार्म प्ले के नवोदित कलाकारों और उनके निर्देशकों को प्रोत्साहित भी किया करते थे, ताकि पूरी ऊर्जा के साथ वे परिमार्जित होकर भविष्य में पृथ्वी थियेटर के भीतरी व्यावसायिक मंच पर अपनी प्रतिभा प्रस्तुत कर सकें. उनसे पहली बार जो भी काम मांगने या सहयोग लेने के मद्देनजर मिलता, तो सर्वप्रथम वे उसकी बाडी लेग्वेज पर गौर फरमाते. फिर बातचीत के दौरान उसकी भाषा शैली और कार्य लक्ष्य परखते. अगर सामने वाला कहीं से भी कमजोर दिखता तो वे उसकी वहीं क्लास ले लेते थे. वह आगंतुक चाहे उनका रिश्तेदार ही क्यों न हो, उनके बेबाक, अक्खड़, गुस्सैल व्यवहार से ऐसे लोग काँप उठते थे. लेकिन वे दिल के बेहद साफ़ इंसान थे. उनके भीतर का एक मददगार इंसान किसी को बिना परखे बाहर आसानी से नहीं आता था. इसीलिये वे लोग उनको समझने में भूल करते थे. दरअसल, उनकी मंशा होती थी संघर्ष करने आया व्यक्ति कोई भी "शार्ट कट" मार्ग न अपनाए. अन्यथा सपनों की नगरी मुंबई में उसका कोई वजूद न रहेगा. सत्यदेव दुबे ने अपने भतीजे संकल्प दुबे (राजा बाबू दुबे के द्वितीय पुत्र), जो वर्ष १९७९ में बिलासपुर से मुंबई एक्टर बनने गए थे, को भी यही नसीहत दी थी. उन्होंने उसे कहा था- "अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाओ. किसी की सिफारिश के बजाय अपनी प्रतिभा के बूते आगे बढ़ो". भतीजा संकल्प दुबे भी स्वाभिमानी था. उसने कक्का के आदेशमाय सुझाव का सम्मान करते हुए अपनी अलग राह चुनी. उसने विभिन्न निर्देशकों के साथ बीस नाटकों में अभिनय किया था. सईद अख्तर मिर्जा के टीवी सीरियल "नुक्कड़" में चाय वाले तंबी का किरदार निभाया था. फिल्म "चक्र", "अपमान", "सारांश", "मोहन जोशी हाजिर हो" और "आघात" में भी इसने संक्षिप्त भूमिका अदा की थी. फिर सत्यदेव दुबे ने अपने भाई राजा बाबू के तीसरी पीढी के अभिनेता पोते और सुतीक्ष्ण दुबे के पुत्र सत्यजीत दुबे (शाहरूख खान की फिल्म "आलवेज कभी कभी" के नायक और टीवी सीरियल "झांसी की रानी" के नाना साहेब) को भी खुद अपना मुकाम बनाने की सलाह दी थी. सत्यजीत ने ऐसा किया भी. सत्यदेव दुबे के अंतिम दिनों का सत्यजीत साक्षी और सेवक भी है.                                              
सत्यदेव दुबे के सृजन जीवन में कर्म और पुरस्कार दोनों के मायने अलग अलग थे. रंगकर्म के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने के फलस्वरूप सत्यदेव दुबे को सबसे पहले मध्प्रदेश शासन की तरफ से शिखर सम्मान से विभूषित किया गया था. वर्ष १९७१ में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से इन्हें सम्मानित किया गया था. पुरस्कार और सम्मान पाने के लिए उन्होंने कभी भी कोई जुगत और न ही कोई लाबिंग की. यह उनकी प्राथमिकता में शामिल भी नहीं था. उन्होंने पुरस्कार और सम्मान पाने की अपेक्षा कभी नहीं की. स्वयं अपनी जन्मभूमि बिलासपुर और अपने राज्य छतीसगढ़ की सरकार से भी नहीं. छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य है उनका कोई नाटक राज्य में कहीं भी मंचित न हो सका. वर्ष २००१ में जब वे अपने व्यक्तिगत प्रवास पर बिलासपुर आये थे तब उन्हें लाल बहादुर शास्त्री शाला परिसर में लगे पुस्तक मेले में बुलाकर सम्मान की औपचारिकता निभाई गई थी. वे गीता दर्शन में भरोसा रखते थे. "कर्म करो, फल की चिंता मत करो" यह सूत्र वाक्य उन्होंने मुंबई जाते ही अपना लिया था. लेकिन इज्जत के साथ मिले राष्ट्रीय पुरस्कारों को ग्रहण कर उन्होंने उनका सम्मान जरूर बढाया. वर्ष १९७८ में इन्हें श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म "भूमिका" की उत्कृष्ट पटकथा लेखन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. जबकि वर्ष १९८० में फिल्म "जुनून" में बेहतर संवाद लेखन के लिए फिल्म फेयर अवार्ड मिला था. वर्ष २०११ में इन्हें पद्मभूषण सम्मान से नवाजा गया था. ( जारी )          

@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(चित्र : गूगल से साभार)