पहाड़ों पर जब सोने सर्दी आई
बर्फ ने अपनी चादर बिछाई
गर्मी ने जाने में समझी भलाई
कांपते हुए कहा सो जाओ माई
मौसम के करवट बदलते ही
पहाड़ों पर सर्दी सो गई
बर्फ की चादर पर,
कंपकंपाती हुई ठंडक
लिपट गई
समूची देह पर,
शीत आलिंगन देख कर
ऊंचा पारा हुआ शर्मीला,
प्रवाहित रक्त भी जम कर
हो गया है अब बर्फीला,
उभर गए हैं त्वचा पर
सफेद आफत के धब्बे,
हाथ पांव सिकुड़ कर
बने थरथराती गठरी,
सांसें भी मांग रही हैं
अपने लिए प्राण वायु,
जो आंख कान खोलें
तो चुभने लगते है
सफेद हवाओं के झोंके,
ठिठुरती परिस्थितियों से
जीवन ठहर सा गया है
चीड़ देवदार भी कहने लगे हैं
सर्द सफेद छांव से उबार दो
मुझे जर्द धूप का पसीना दे दो
सूरज अपना अलाव जला दे
आंखों की पुतलियों के अलावा
पूरी देह को कहीं सफेद न कर दे
यह बर्फ की चादर
@ दिनेश ठक्कर "बापा"
(तस्वीर : श्रीमती प्रीति ठक्कर द्वारा)
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