जुमलों की चिकनी चुपड़ी
सड़क पर
बेकाबू होकर भागती
जुबाँ पर लगाओ लगाम
उसे रखो काबू में
तलुओ में ठोंको नाल
लोकतंत्र के सफर में
निर्जीव न समझो
रास्ते के पत्थरों को
जब वे उछले
तब चोट लगी गहरी
बिगड़ गया चाल चेहरा
हालत हालात यह है
जो जुबाँ
भागा करती थी सरपट
वो अब
रेंग रही है हांफते हुए
बंद हो गई है बोलती
जो जुबाँ
उगला करती थी आग
उस पर
अब फिर गया है पानी !
@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार )
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