
जब अनसुनी हो जाती हैं
अपने अपने शोरगुल में
तब विद्रोही स्वर गूँजते हैं
अनास्था के ऊँचे शिखर से
शिकवे फतवे के भय वश
फहर नहीं पाती हैं ध्वजाएं
अपने अपने स्वार्थ वश
भड़कायी जाती है भावनाएं

बजने वाले घण्टे और भजन
भक्तभाव से होने वाले प्रवचन
गूँजते हैं अपने दायरे से बाहर
तब ऊँगली उठती आस्था पर
विवाद उपजता अनास्था पर
तो दब जाता है मूल प्रयोजन
खड़ा हो जाता विरोध का स्वर
तेज हो जाता है सियासी शोर

बाँगड़ुओं के कोलाहल के बीच
अब तो मुर्गे भी भोर होने पर
डरने लगे हैं बाँग लगाने से
भलाई समझते हैं चुप रहने में
चिड़ियाँ सहमी रहती पेड़ों पर
डरती सुबह शाम चहचहाने से
क्योंकि
इस समय जताई जा रही है
आपत्ति गूँजती आवाज़ पर !
@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)
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