
नहीं आ रहा है कुछ समझ
किसके होते हैं ऐसे व्यक्ति
जो किसी के नहीं होते
और तो और
जो स्वयं के भी नहीं होते हैं
ऐसे व्यक्तियों के संबंध में
कुछ भी जानना समझना
इतना आसान भी नहीं है
जितना सोचा करते हैं हम
पास रह कर भी दूर रहते हैं

गले लगाओ तो गला काटते
पीठ ठोंको तो खंजर भोंकते
आस्तीन के सांप बने रहते
उन्हें कितना भी समझाओ
समझने को तैयार नहीं होते
कितना भी मीठा खिलाओ
बोल अक्सर कड़वे ही होते
जितने जमीन के ऊपर होते
उतने वे तो भीतर भी रहते
परछाई देख कर भ्रमित होते
कि खूब लम्बा है उनका कद
क्यों होते हैं ऐसे व्यक्ति
हमारी समझ से परे
वे भी खुद को समझ नहीं पाते
न ही दूसरों को कुछ समझते
उन्हें अच्छी तरह से समझना
स्वार्थी समय में जटिल सा है
बड़े-बुजुर्गों का भी कहना है
कि जो किसी के नहीं होते
वे अंततः कहीं के नहीं रहते
न तो घर के रहते न घाट के !
@ दिनेश ठक्कर बापा
(चित्र गूगल से साभार)
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